हमारे गांव बदल रहे हैं। यह बदलाव कई स्तरों पर देखा जा सकता है। सड़क और रेलमार्गों से जुड़ जाने पर गांवों में न सिर्फ संपर्क बेहतर हुआ, बल्कि जीवनशैली और ग्रामीण परिवेश भी बदला है। गांवों में बिजली आई, जो अपने साथ रोशनी तो लाई ही, टीवी जैसे उपकरणों का माध्यम भी बनी। सड़क और बिजली ने गांवों को शहरों के समांतर खड़ा होकर बराबरी की ओर बढ़ने की कोशिश में बड़ी भूमिका निभाई। अब गांव वैसे नहीं रहे, जैसे तीन-चार दशक पहले थे। यकीनन, इस बदलाव को सकारात्मक और विकासोन्मुख कहा जाना चाहिए। गांवों के लोगों को भी साधन संपन्न जीवन जीने का उतना ही अधिकार है, जितना शहर के लोगों का, लेकिन बदलाव हमेशा अपने साथ कुछ अवांछित संदर्भ भी लाता है। ये संदर्भ कई बार सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के कारक बन जाते हैं और हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत से दूर ले जाते हैं।

गांवों में बिजली आई, तो रोशनी के साथ दुष्प्रभाव भी लाई, जिसके अंधेरे में गांवों की लोक संस्कृति लुप्त होने लगी। बिजली ने गांवों के लोगों की जीवनशैली ही नहीं बदली, बल्कि उनकी सोच में भी बदलाव ला दिया। टीवी ने ग्रामीण जीवन की खिड़की शहर और बड़े नगरों की तरफ खोल दी। रही-सही कसर मोबाइल और इंटरनेट ने पूरी कर दी। ग्रामीण जीवन इससे काफी प्रभावित हुआ। आधुनिकता की होड़ में लोग अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों से दूर होते गए। पर्व-त्योहारों से लेकर मांगलिक कार्यक्रमों में भी आधुनिकता इस कदर हावी हो गई कि लोग अपनी परंपराओं को बीते जमाने की बात समझने लगे।

पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत को भूलते जा रहे लोग

एक समय गांवों में हर छोटे-बड़े पर्वों से लेकर विभिन्न मौसमों के भी गीत गाए जाते थे। लोग मौसम को सिर्फ आबो-हवा में परिवर्तन की वजह से ही नहीं, बल्कि मन-मस्तिष्क से भी महसूस करते थे। लोकगीत-संगीत लोगों को पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत से जोड़ने का काम करते हैं। लेकिन बदलते समय ने सब कुछ बदल दिया। अब फाग, चैती, बैसाखी, कजरी, बारहमासा और झूला गीत सुनाई नहीं पड़ते। नई पीढ़ी इनकी मिठास से वंचित हो रही है। यही नहीं, गांवों में विभिन्न पर्व-त्योहारों और खास अवसरों पर आयोजित होने वाले लोक नाटक भी आधुनिकता की भेंट चढ़ गए। लोक नाटकों का स्थान आर्केस्ट्रा ने ले लिया। लोक नाटक सिर्फ मनोरंजन के साधन नहीं होते थे, बल्कि सामाजिक समरसता में भी इनकी बड़ी भूमिका होती थी।

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नाटक का मंच सामाजिक सद्भाव का मंच होता था। आधुनिकता की अंधी दौड़ में लोग आज बहुत आगे निकल गए और पारंपरिक रीति-रिवाज व लोक संस्कृति पीछे छूट गई। गांवों की पाठशाला में बहुत पहले चकचंदा होता था। हालांकि, उस समय और आज के शिक्षा व्यवसाय में आमूल परिवर्तन हो चुका है। तब ज्यादातर स्कूल सरकारी नहीं थे और पाठशाला के गुरुजी को जीविकोपार्जन के लिए उनके शिष्यों से मिलने वाली गुरु दक्षिणा पर ही आश्रित रहना पड़ता था। भाद्रपद चतुर्थी से शुरू होकर दस दिनों तक चकचंदा गांवों में एक उत्सव के रूप में मनाया जाता था, जिसमें विद्यार्थी घर-घर जाकर गणेश वंदना गाते थे और चकचंदा मांगते थे। यह चंदा गुरुजी को आदर के साथ दे दिया जाता था। इससे गुरु का जीविकोपार्जन होता था।

अब अतीत के अंधेरे में गुम होती जा रही है रामलीला

चकचंदा को सिर्फ गुरुजी की दक्षिणा के लिए मांगे जाने वाले लोक और पारंपरिक पर्व के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि यह पूरे गांव को समन्वित कर एकता के सूत्र में जोड़ता था। यह सही है कि आज गांवों में सरकारी स्कूल हैं और शिक्षक सरकारी मुलाजिम। कोचिंग संस्थान और निजी स्कूल भी खुल गए हैं। निजी शिक्षण संस्थानों को चकचंदा की राशि नहीं, बल्कि भारी-भरकम ट्यूशन शुल्क चाहिए। इसी तरह भाई-बहनों के अटूट प्रेम का एक पर्व है, सामा-चकेवा। महिलाएं इस पर्व में पारंपरिक मैथिली परिधान पहन कर ‘सामा चकेवा’ नृत्य करती हैं। इसी तरह विदापद नाच और जितिया नाच जैसे पारंपरिक उत्सव अब अपने अंतिम दिन गिन रहे हैं। ढोलक की जोरदार थाप के साथ वीर रस से सराबोर आल्हा गायन भी अब पुराने जमाने की बात हो गई है।

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रामलीला भी अब अतीत के अंधेरे में गुम होती जा रही है। कुछ दशक पहले तक गांवों में हर वर्ष नियमित रूप से रामलीला मंडली आती थी और दो-तीन हफ्ते तक लोग इसका लुत्फ उठाते थे। मगर, टीवी और ओटीटी की चकाचौंध के आगे गांवों की रामलीला अब लोगों को उबाऊ लगने लगी है। इसी तरह, गांवों का विरहा और कठपुतली नाच भी अब बीते जमाने की बात हो गई। आज पीछे मुड़ कर देखने से यह सहज अहसास होता है कि आधुनिकता की दौड़ में हम अपने रीति-रिवाजों और लोक परंपराओं से इतना दूर हो गए हैं कि अब लौट कर उन्हें अपनाना आसान नहीं है। पर जिन लोक परंपराओं में सांसें बाकी हैं, उन्हें नया जीवन देने की कोशिश अवश्य की जानी चाहिए। क्योंकि, जब लोक संस्कृति है, तभी लोक जीवन में राग-रंग और उमंग रहती है।