बचपन में हमें किसी कील, तार के टुकड़े या खाली कागज को भी इसलिए संभाल कर रखने के लिए कहा जाता था कि जरूरत पड़ने पर उनका उपयोग किया जा सके। पर आज तेजी से बढ़ते हुए औद्यौगिक उत्पादन, हर दिन बदलती तकनीक और बाजार-आश्रित अर्थव्यवस्था का एक परिणाम यह हुआ है कि कल जिन चीजों को हमने बड़े चाव से खरीदा था, वे आज हमारे देखते-देखते सर्वथा अनुपयोगी हो जाती हैं। आज नाइलोन का शर्ट पहनने वाले या कलम-दवात का इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति को अन्य लोग किस तरह से देखेंगे, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।
बाजार की सफलता आज इसी बात में है कि वह हर रोज आपको कितनी ‘नई’ चीजें बेच सकता है। तकनीक हर दिन कुछ ऐसा नया लेकर आती है, जो हमारी कल की खरीदी चीज को ‘पुराना’ और ‘बेकार’ बना देती है। पहले जो टाइपराइटर हमारी रचनात्मकता का साथी था, वह रिबन वाले इलेक्ट्रानिक टाइपराइटर के आगमन से भंगार में बदल गया। और फिर वह इलेक्ट्रानिक टाइपराइटर भी कुछ समय बाद हमारे लैपटाप के आगे बिल्कुल नहीं टिक पाया। पंखे, कूलर और फिर वातानुकूलन यंत्र ने हमारे घरों में न केवल कई तरह के बदलाव किए, बल्कि उसने हमारी आवश्यकताओं और हमारे सामाजिक मूल्यबोध को भी बहुत गंभीरता से प्रभावित किया। श्वेत-श्याम या फिर रंगीन और अब स्मार्ट टीवी- हर बदलाव हमारी जरूरत से ज्यादा हमारी सामाजिक स्थिति से जुड़ गया।
नई पीढ़ी के लिए पुश्तैनी यादें अब ‘फिर से निवेश’ करने के अवसर हैं
आज का व्यक्ति अपनी किसी भी भौतिक वस्तु से बहुत लंबे समय तक गहरा भावनात्मक जुड़ाव नहीं रख सकता। तांबे का वह लोटा, जिस पर हमारे पितामह या उनके पिता का नाम खुदा होता था, अब अधिकांश लोगों को अपनी किसी गर्वपूर्ण विरासत के बजाय किसी संग्रहालय में रखने की चीज लगती है। हमारे पुश्तैनी मकान और पुराने मोहल्ले से भावनाएं अब केवल पुरानी पीढ़ी के लोगों की जुड़ी हैं। नई पीढ़ी के लिए तो ये सब अब ‘फिर से निवेश’ करने के अवसर हैं। हम आज ऐसे दौर में जी रहे हैं, जिसमें हमारे जीवन में बदलाव की गति से भी अधिक तेजी से हमारे आसपास की वस्तुएं बदल रही हैं। पर मनुष्य का मन, उसकी स्मृतियां और भावनाएं इतनी तेजी से नहीं बदल पाती।
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दो गतियों की इस भिन्नता के कारण उत्पन्न एक किस्म का टकराव आज कई सामाजिक और मनोवैज्ञानिक उलझनों को जन्म दे रहा है। एडविन टाफलर ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘द फ्यूचर शाक’ में जिन झटकों की बात की थी- आज उन्हीं झटकों को हम अपने रोजमर्रा के जीवन में अनुभव करते हैं। मध्यवर्ग की बढ़ती संपन्नता ने आज के समय में वस्तुओं के अनावश्यक संग्रहण को जन्म दिया है। जन्मदिन, शादी, त्योहार पर उपहार देने की औपचारिकता अब स्वयं में एक उद्योग का रूप ले चुकी है। यह उद्योग व्यापारियों को भले लाभ दे, पर उपहार प्राप्त करने वाले के लिए यह कई बार सिरदर्द बन जाती है। उपहार में आने वाली वस्तुओं को उन्हें पाने वालों द्वारा न आसानी से फेंका जा सकता है और न ही प्रयोग में लाया जा सकता है। परिणामस्वरूप लोगों के घर धीरे-धीरे इन अनुपयोगी वस्तुओं- कपड़ों, बर्तनों, महंगे-सस्ते उपहारों, सजावटी सामान आदि से भर जाते हैं।
मकर-संक्रांति जैसे पर्व पर अभाव से जूझते कुछ लोग पुराने वस्त्रों को खुशी-खुशी ले जाते थे
पहले मितव्ययिता भी एक सामाजिक-पारिवारिक मूल्य था, पर उसका स्थान अब जैसे अधिक पैसा खर्च करने ने ले लिया है। आज अगर हम अपनी अधिक आय के बावजूद अनावश्यक खर्च से बचते हैं, तो हमें कंजूस या ‘ओसीपीडी’ जैसे किसी मनोरोग से ग्रस्त घोषित किया जा सकता है। पूंजीवाद व्यक्ति को केवल उपभोग के लिए ही प्रेरित नहीं करता, वह उसके लिए एक नया जीवनदर्शन भी रचता है, जिसमें नवीनतम वस्तु को खरीद पाना ही सफलता का सूचक बन जाता है। वस्तुओं के निस्तारण के बारे में हम लोग आज भी काफी असहज और असंतुलित हैं। वस्तुओं को फेंकना आसान नहीं होता। भावनात्मक, सामाजिक और मानसिक बाधाएं उनके मालिक का रास्ता रोकती रहती हैं। पर हर घर की भौतिक सीमाएं भी हैं, जिनकी वजह से हर वस्तु को सहेजकर रखना संभव नहीं। जो लोग आज भी पोलिथीन की थैलियों, डिब्बों या बोतलों आदि को यह सोच कर इकट्ठा करते रहते हैं कि उन्हें कभी इनकी जरूरत पड़ सकती है, उनके घरों की यह आदत एक भंडारण-गृह में तब्दील कर देती है और उन्हें व्यवस्थित नहीं रहने देती।
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एक बड़ी विडंबना होते हुए भी यह सच है कि आज का समझदार व्यक्ति वस्तुओं के प्रति किसी तरह के भावनात्मक लगाव को बचकाना समझता है। एक समय था जब मकर-संक्रांति जैसे पर्व पर अभाव से जूझते कुछ लोग पुराने वस्त्रों को खुशी-खुशी ले जाते थे। पर आज वक्त तेजी से बदल रहा है। भारतीय दर्शन में ‘अपरिग्रह’ यानी अनावश्यक वस्तुओं के संग्रह से बचने को व्यक्ति की आत्मिक उन्नति का एक महत्त्वपूर्ण साधन माना गया है। पतंजलि योग के ‘यम’ में अपरिग्रह का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह दर्शन आज के समय में हमारे लिए भी एक व्यावहारिक दर्शन हो सकता है। आखिर यह सोच भी अपरिग्रह में हमारी मदद कर सकती है कि हर व्यक्ति को एक दिन इस संसार से खाली हाथ ही जाना होता है। जिन वस्तुओं का उपयोग हमने पिछले कई वर्षों से नहीं किया है, उनसे आज ही पिंड छुड़ा लेने में क्या बुराई है! अगर हम समय रहते इस नई संस्कृति में अपने निर्वाह का कोई नया रास्ता नहीं ढूंढ़ लेते, तब हम अपने घरों के साथ-साथ अपने विचारों और भावनाओं में भी कबाड़ से भर जाएंगे। शायद यह वह एक महत्त्वपूर्ण बिंदु है, जहां हमारे उपभोक्तावादी समाज को आत्मावलोकन की आवश्यकता है।
