हर वर्ष मौसम के मुताबिक बारिश कुछ दिन बरसकर बंद हो जाती है, लेकिन बाजार में बिक रहे सामान पर हो रही मनभावन छूट निरंतर रहती है। कुछ समय पहले एक इलेक्ट्रोनिक्स सामान की, नई खुली दुकान के प्रचार का एक बढ़िया रंगीन पर्चा आया। उसमें, ‘स्क्रेच एंड विन’ योजना को दर्ज किया गया था। यानी लोगों के सामने खेलने का विकल्प था। मशहूर कंपनियों के ब्रांड के उत्पादों के रंगीन चित्र छपे हुए थे। मासिक किस्त की राशि बताई गई थी, सामान की अदला-बदली और ज्यादा महंगा सामान लेने की स्थिति में मोटी राशि का लाभ मिलना तय था। नकद वापसी भी छब्बीस फीसद तक आनी थी। दिलचस्प यह भी था कि लुभावनी और आंखों को अच्छी लगने वाली सूचना में इक्यावन फीसद तक छूट बारे में पर्चे में छपा था। इक्यावन शब्द को हमारी संस्कृति में शुभ माना जाता है।
दो कदम दूर किसी मशहूर ब्रांड के सामान पर आकर्षक छूट मिल रही हो तो नींद खुल जाती है और व्यक्ति सोने के कपड़ों में भी पता करने चला जाता है। वहां सुरुचिपूर्ण वस्त्र धारण करने वालों को कैसे देखा जाएगा, पता नहीं। विक्रेता ने काफी बड़े स्मार्ट टीवी को दिखाते हुए आत्मविश्वास के साथ समझाया, ‘देखिए, यह दो लाख बीस हजार का है। इस पर जितनी रियायत है, उस पर दस हजार हम और कम कर देंगे। जिससे आपको इतने का पड़ेगा।’
एक ग्राहक ने स्पष्ट पूछा कि ‘आप छपे मूल्य पर छूट देंगे न’, तो उन्होंने कहा, जी। बाकी बात समझने की जरूरत नहीं थी। सामान पर कीमत जो मर्जी छाप दी जाए और भारी छूट से ग्राहक को अपना बना लिया जाए। ‘लोगों को दुकान तक लाने के लिए पर्चा छपवाया है, बाकी हम इंतजाम कर लेते हैं।’ विक्रेता ने समझाया। ग्राहक ने कहा- ‘पर्चे की अंग्रेजी समझ नहीं आई’, तब विक्रेता ने बताया कि यह कंपनी का नारा है। सही है, प्रचार-वाक्य ऐसी हो जो पल्ले न पड़े तो नए किस्म का जानदार विज्ञापन हो जाता है।
छूट के नाम पर ग्राहकों को भ्रम में डाल रहे दुकानदार
कुछ समय पहले आधुनिक माने जाने वाले एक व्यवस्थित शहर में में सत्तर फीसद छूट पर एक प्रसिद्ध कंपनी की टी-शर्ट मिल रही थी। कपड़े से पता चल रहा था कि उसका मोल, छपे मूल्य के तीस फीसद के काबिल ही है। प्लास्टिक की बाल्टी पर छपा तीन सौ अस्सी रुपए है, दो सौ चालीस में मिल रही है। बिस्कुट के पैकेट पर एक सौ चौंतीस रुपए छपा था। दुकान द्वारा चिपकाए चिट पर फिर से मूल्य एक सौ अठारह रुपए छपा था और विक्रय कीमत या विशेष मूल्य एक सौ दस रुपए छपा था। एक वस्तु की तीन कीमतें।
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दूसरी दर्जनों चीजों की कीमत पर छूट घोषित थी। खाने की वस्तुएं मनमाने दामों में बिक रही थीं और आम ग्राहक खरीद रहे थे। चीजों की कीमत बेचने वाले के कौशल के मुताबिक होती है। कंपनी जितना मर्जी छाप दे और विक्रेता जितनी मर्जी में बेचे। ब्रांडेड जूतों पर सत्तर फीसद से भी ज्यादा छूट मिलती है। बहुत से जूतों पर कीमत छपी ही नहीं होती। चीन में बने प्लास्टिक के दर्जनों किस्म के सामान पर कोई कीमत नहीं छपी होती। बेचने वाले अपने कोड लिखे होते हैं, यानी उस चीज को जितने में बेच सकते हैं। इसीलिए दुकानदार ध्यान से हिसाब लगाकर कर बताता है।
महंगे ब्रांडों ने बाजार पर कब्जा कर लिया है
अब जबकि रेडीमेड वस्त्रों के हजारों महंगे ब्रांडों ने बाजार पर कब्जा कर लिया है, यह जरूरत महसूस होती है कि कपड़े के थान पर भी प्रति मीटर मूल्य छपा होना चाहिए. ताकि छूट के मौसम में इस पर भी छूट मिले। सरकार विज्ञापित करती रही है कि छपी हुई दरों से कम भुगतान करने के लिए आप मोल भाव कर सकते हैं, मगर इस अनुरोध को अधिकांश दुकानदार कहां स्वीकार करते हैं। प्रशासन छोटे-मोटे ढाबे, सब्जी वालों से मूल्य सूची लगवाता है, लेकिन संबंधित विभाग, वस्तुओं पर लिखे मनमाने दाम के संबंध में कहीं कोई कार्रवाई करता नजर नहीं आता। यह बाजार में बैठकर ईमानदारी से व्यावसायिक ठगी करने जैसा है। इसकी क्या गारंटी है कि जो मूल्य बताया जा रहा है, वही उस सामान का वास्तविक मूल्य है?
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ग्राहक वैसे भी एक भोला और मासूम चेहरा होता है। जितना चाहे मूल्य छाप लिया जाएगा और जितना हो सके, अवसर, उत्सव, त्योहार या मौसम के बहाने छूट का दिखावा कर माल बना लिया जाए। सब्जी बेचने वाले से अभी भी मोलभाव किया जाता है, लेकिन मनमाने दाम छापकर दिखावटी छूट देने वालों से कोई सवाल नहीं करता। संपन्न खरीदार वैसे भी कोई परेशानी नहीं चाहते। सामान की पैकिंग कभी नष्ट न होने वाले, आकर्षक रंगों में छपे पालीपैक में ही होती है, जिस पर नारा छपा होता है, ‘अपने शहर को साफ और हरा रखें, पर्यावरण के सिद्धांतों को संरक्षित रखें।’ इस तरह का पर्यावरण प्रेम भी दिखावे का होता है।
सरकार और प्रशासन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हर वस्तु की उत्पादन लागत को आधार मानकर निर्माता, थोक विक्रेता और विक्रेता के लाभांश सहित, सब्जी आदि को छोड़कर, हर चीज पर मूल्य अंकित हो। हर वस्तु पर दाम छपे हों और दाम उचित और वही हों, जिन पर चीज वास्तव में बेची जानी है। छूट का झांसा या नाटक खत्म हो, ताकि क्रय विक्रय में पारदर्शिता आए और विक्रेता ग्राहक का आपसी विश्वास स्थापित हो। अगर ऐसा नहीं हो सकता तो मशहूर ब्रांड वाले टीशर्ट का मूल्य छाप देना चाहिए ‘एक लाख रुपए’ और छूट दे देनी चाहिए कि ‘निन्यानवे फीसद’, यानी निन्यानवे हजार रुपए की महान छूट। इस तरह के विज्ञापनों को महा नवोन्मेषी और मजेदार कहा जा सकता है।