आधुनिकता की होड़ में जीवन इतनी तेजी से भाग रहा है कि अब मनुष्य को हर चीज चुटकियों में चाहिए। कहने का अर्थ यह है कि आजकल कोई अपनी किसी इच्छा को पूरा करने के लिए धैर्य रखना नहीं चाहता। सबको जैसे एक अलादीन का चिराग चाहिए कि इधर इच्छा व्यक्त की और उधर पूरी हो जाए। यह समझना मुश्किल हो जाता है कि आखिर लोगों के भीतर इतनी तेजी और इतनी हड़बड़ी क्यों है? सब कुछ तुरंत और बहुत तेज रफ्तार से क्यों चाहिए? जबकि सच यह है कि वास्तव में ऐसा संभव नहीं है कि इच्छा जाहिर की और किसी ‘जिन्न’ की तरह कोई प्रकट हुआ और उसने तुरंत इच्छा पूरी कर दी। मगर आजकल यह ‘जिन्न’ वाला काम कुछ बैंक वाले करने का दावा करने लगे हैं। व्यक्ति की हर छोटी-बड़ी आवश्यकताओं की उनके पास फेहरिस्त होती है और उसे वे ईएमआइ यानी मासिक किस्त में बांधकर लोगों के सामने पेश कर देते हैं। दुनिया जहान की किसी भी चीज की जरूरत हो तो बस उसकी किस्तें बंधवा ली जाए और चीज हमारे घर में होगी।
जरूरतें खत्म होती नहीं और उधार लेने का सिलसिला भी नहीं रुकता
मसलन, सोफा, टीवी, फ्रिज, माइक्रो वेव, मोबाइल आदि कुछ भी। घर तो किस्तों पर मिलता ही रहा है। फिर अपने-अपने दफ्तरों में रगड़ते रहा जाए खुद को और एक लंबे अरसे तक भरते रहा जाए किस्त-दर-किस्त अपने माथे पर बोझ की तरह पड़ चुके ऋण की। आश्चर्य तो तब होता है जब हमको यह पता चलता है कि हमारी आमदनी से ज्यादा हमारे उधार हैं और यह एक मायाजाल है, जिसमें हम बस दूसरों को दिखाने के चक्कर में फंसते चले जाते हैं। दूसरी ओर, आवश्यकताएं हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेती और न ही उधार लेने का सिलसिला ही कभी रुकता है।
एक तरफ होती है मासिक किस्त और दूसरी तरफ होता है क्रेडिट कार्ड का बिल। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि इसकी टोपी उसके सिर का कोई खेल हो गई है जिंदगी… ‘न सांस लेने की फुर्सत है न जीने का अहसास’, बस हाथ से रेत की तरह फिसलती जा रही है हम सबकी जिंदगी। कहने का मतलब यह है कि बाजारवाद से इतने घिरे हुए है हम कि अब जीवन पूरी तरह उन्हीं पर निर्भर हो गया है। बात सेहत की हो तो स्वास्थ्य बीमा, गाड़ी खरीद ली गई हो तो कार बीमा, घर खरीदा हो तो उसका बीमा और यहां तक कि हमारे मर जाने के बाद के लिए भी जीवन-बीमा। यह बात अब बहुतों की जुबान या दिमाग में है कि केवल जिंदगी के साथ ही नहीं, जिंदगी के बाद भी। जीवन बीमा का तो फिर भी समझ में आता है जो हमारे बाद परिवार के काम आता है, लेकिन बाकी जरूरतें क्या इतनी आवश्यक हैं कि उन्हें ईएमआइ यानी मासिक किस्तों पर लिया जाना चाहिए?
यह माना जा सकता है कि मासिक किस्तों की व्यवस्था में पैसा थोड़ा-थोड़ा कटता है तो चीजों का बोझ महसूस नहीं होता। वह भी तब, जब हमारे घर में दो आमदनियां हों, अन्यथा एक ही आमदनी पर तो मासिक किस्तों का यह बोझ भारी पड़ने लगता है, क्योंकि यह किसी एक वस्तु से संबंधित नहीं होती, बल्कि अनेक वस्तुओं से संबंधित होती है। वह भी एक साथ। इससे भी ज्यादा आश्चर्य तो तब होता है, जब दो-दो लोगों की आमदनी होते हुए भी लालच लोभ इतना अधिक बढ़ जाता है कि गैरजरूरी चीजों के लिए भी हम यानी मासिक किस्त और क्रेडिट कार्ड पर निर्भर होते चले जाते हैं और हमें पता भी नहीं चलता।
यह सोचने की जरूरत है कि बुरा वक्त कभी कहकर नहीं आता। कोरोना जैसी आपदा के बाद जब लाखों की संख्या में लोगों की नौकरियां चली गईं, तब उनका क्या हाल हुआ, यह तो वे ही जानते हैं। विदेश में तो और भी बुरा हाल है। हमारे वृद्ध जनों ने यों ही कर्ज को खराब नहीं बताया है। कर्ज ही वह कारण है, जिसकी वजह से हमारे किसान भाइयों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ रहा है। फिर एक हम हैं कि हमारी आंखें नहीं खुल रही हैं।
जबकि हमारे आसपास अक्सर ऐसी घटनाएं होती देखने-सुनने को मिल रही हैं कि कर्ज में डूबा कोई व्यक्ति नौकरी या रोजगार जाने के बाद मासिक किस्त या कर्ज चुकाने में सक्षम नहीं रहा और इससे उपजे दबाव और तनाव ने उसकी जिंदगी लील ली। कोई गंभीर बीमारी का शिकार होकर और ज्यादा बड़े मकड़जाल में फंस गया तो कोई वक्त के थपेड़ों को सह नहीं सका और किसी ने कभी अकेले तो कभी परिवार सहित जान दे दी। जिंदा भर रह सकने के लिए किसी से उधार लेना अलग बात है, मगर यह कितना त्रासद है कि बहुत मामूली सुविधाओं या दिखावे के सामान खरीदने के लिए हम कर्ज के जाल में फंस जाते हैं और होश तब आता है, जब हमारा गला कसने लगता है।
सच यह है कि कुछ निजी और अहम जरूरतों के अतिरिक्त कुछ अन्य ऐसी चीजें हैं, जिनके बिना रहा नहीं जा सकता। लेकिन समाज में हैसियत की बात, उसका दिखावा और दूसरों से प्रतियोगिता का सिलसिला कभी खत्म नहीं होता। ऐसे में अगर कोई दिखावे में विश्वास रखता है तो किस्त-दर-किस्त भरने के लिए उसे अपनी मेहनत की कमाई को यों ही खर्च करने में गुम होना पड़ेगा। अन्यथा सादा जीवन उच्च विचार का रास्ता हमेशा खुला है। कहा भी जाता है कि ‘जिसकी जरूरतें कम हैं, उसके हाथ में दम है’।