इस निर्मम बाजारवाद के युग में, जहां धन की चमक ने मानवता को अपने आलिंगन में जकड़ लिया है, जीवन एक अंधी दौड़ बनकर रह गया है। हर सांस, हर कदम और हर स्वप्न अब लाभ-हानि के ठंडे तराजू पर तौला जाता है। संवेदना, करुणा और विशेष रूप से सृजनशीलता की मधुर लय कहीं रेगिस्तान की मृगतृष्णा-सी खो गई है। सृजनशीलता, जो कभी मानव हृदय की सनातन ज्योति थी, आज बाजार की बेड़ियों में जकड़ी है। मनुष्य, जो कभी अपनी सृजनात्मक शक्ति के लिए जाना जाता था, आज सक्षुध और अविश्राम का रोगी बनकर एक परिधि-पथ पर भटक रहा है। न तीव्रता में सुख है, न शिथिलता में शांति। इस विषमकाल में घायल मन आखिर किस द्वार पर दस्तक दे?
सृजनशीलता मानवता की आत्मा है। यह वह शक्ति है, जो हमें केवल जीवित प्राणी से अधिक बनाती है। हमें मानव बनाती है। कला, साहित्य, संगीत और विचारों का सृजन वह प्रकाश है, जो समाज को दिशा देता है। मगर बाजारवाद ने इस सृजनशीलता को एक यांत्रिक प्रक्रिया में बदल दिया है। कला, जो कभी हृदय को झंकृत करती थी, अब केवल बाजार की मांगों का उत्पाद बन गई है। जो सृजन तात्कालिक लाभ न दे, उसे उपेक्षा की धूल में दफन कर दिया जाता है। सृजनशील मन, जो समाज की नब्ज को थामता था, अब दुत्कारा जाता है। उसकी आवाज, जो कभी क्रांति का आलम लिए थी, अब भीड़ के शोर में खो जाती है।
बाजारवाद ने समाज को एक यांत्रिक मशीन में बदल दिया है
बाजारवाद ने समाज को एक यांत्रिक मशीन में बदल दिया है। रिश्ते, जो कभी प्रेम और विश्वास की डोर से बंधे थे, अब अतुकांत हो चले हैं- बिना लय, बिना अर्थ। केवल ‘अर्थ’ ही बचा है, वह कठोर धन का अर्थ, जो हर मूल्य को व्यर्थ कर देता है। लोग एक-दूसरे को उपयोगिता की कसौटी पर कसते हैं। ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ की उपभोक्तावादी संस्कृति ने मानवता को नष्ट कर दिया है। इस प्रक्रिया में सृजनशीलता सबसे अधिक घायल हुई है। कला, जो कभी समाज को दिशा दिखाती थी, अब केवल मनोरंजन का साधन बनकर रह गई है। साहित्य, जो कभी विचारों को जन्म देता था, अब बिक्री के आंकड़ों का गुलाम है। संगीत, जो कभी आत्मा को शांति देता था, अब केवल प्रचार पाने के चलन का हिस्सा है।
सामानों पर छूट के नाम पर दुकानदारों का मायाजाल, मनमाने दाम छापने की होड़
आज के समाज में सृजनशीलता का ह्रास स्पष्ट दिखाई देता है। जो सोशल मीडिया सृजन का मंच हो सकता था, उसने इसे और अधिक सीमित कर दिया। लोग अब सृजनशीलता को पसंदगी की चटके और शेयर की संख्या से मापते हैं। एक कविता की गहराई, चित्र की भावना, या कहानी का संदेश अब केवल उसकी ‘वायरल’ होने की क्षमता पर निर्भर करता है। यह बाजारवाद का वह जाल है, जो सृजनशीलता को न केवल सीमित करता है, बल्कि उसे एक खोखले उत्पाद में बदल देता है। सृजनशील व्यक्तियों को अब अपनी कला को बाजार की मांगों के अनुरूप ढालना पड़ता है, जिससे उनकी मौलिकता और स्वतंत्रता नष्ट हो रही है।
सृजनशीलता केवल कला या साहित्य तक सीमित नहीं
फिर भी, इस घने अंधेरे में एक आलोक बाकी है। जब यह अंधी दौड़ थकान में बदल जाएगी, जब मनुष्य का मन इस खोखलेपन से त्रस्त हो उठेगा, तब वह फिर सृजन की ओर लौटेगा। वह उन मधुर स्वरों की खोज में जाएगा, जो कभी उसके हृदय को स्पर्श करते थे। सृजनशीलता केवल कला या साहित्य तक सीमित नहीं है। एक शिक्षक, जो अपने विद्यार्थियों में जिज्ञासा जगाता है, एक वैज्ञानिक, जो नई खोज करता है, या एक सामान्य व्यक्ति, जो अपने छोटे-छोटे कार्यों में रचनात्मकता लाता है- ये सभी सृजनशीलता के प्रतीक हैं। लेकिन बाजारवाद ने इस व्यापक सृजनशीलता को भी प्रभावित किया है। शिक्षा अब डिग्रियों की दौड़ बन गई है, जहां रटने की प्रक्रिया ने सृजनात्मक चिंतन को दबा दिया है। विज्ञान, जो कभी मानवता की सेवा के लिए था, अब कारपोरेट हितों का गुलाम है। यहां तक कि सामाजिक कार्य, जो सृजनशील समाधानों की मांग करता है, अब केवल दिखावे का हिस्सा बन गया है।
इस संकट से उबरने का रास्ता सृजनशीलता में ही निहित है। हमें कला, साहित्य और संगीत जैसे माध्यमों को फिर से सृजन का साधन बनाना होगा। स्कूलों में बच्चों को रटने की बजाय सृजनात्मक चिंतन सिखाना होगा। समाज को उन सृजनशील आत्माओं को प्रोत्साहित करना होगा, जो बाजार की मांगों से परे जाकर कुछ नया, कुछ मौलिक रचते हैं। हमें यह समझना होगा कि सृजनशीलता ही वह शक्ति है, जो हमें इस यांत्रिकता से ऊपर उठाती है। जब हम किसी दुखियारे के आंसू पोंछते हैं, जब हम किसी के दर्द में हिस्सा बंटाते हैं, तब हम सृजनशीलता के साथ मानवता का फिर से सृजन करते हैं। सृजनशीलता वह पुल है, जो हृदय से हृदय को जोड़ता है। यह वह ज्योति है, जो बाजार की चमक के बीच भी बुझती नहीं।
आज का समाज एक मोड़ पर खड़ा है। एक ओर बाजार की चमक है, जो सृजनशीलता को दबाती है, तो दूसरी ओर वह सृजनशील शक्ति है, जो हमें हमारी जड़ों से जोड़ती है। हमें यह चुनना होगा कि हम किस पथ पर चलना चाहते हैं। क्या हम उस दौड़ में शामिल रहेंगे, जो हमें रिक्त करती है, या उस पथ को अपनाएंगे, जो हमें सृजन के माध्यम से पूर्णता देता है? यह प्रश्न केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामूहिक है। हमें इस यांत्रिकता से बाहर निकलना होगा। हमें फिर से उन सृजनात्मक स्वरों को गुनगुनाना होगा, जो हमें मानव बनाते हैं। यही वह पथ है, जो हमें इस निर्मम बाजारवाद के संकट से उबार सकता है। यही वह शक्ति है, जो हमें फिर से सृजनशील, संवेदनशील, और मानवीय बना सकती है। इस संकट को हमें एक अवसर में बदल लेना चाहिए और एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए, जहां सृजनशीलता न केवल जीवित रहे, बल्कि समाज की आत्मा बन जाए।