एक बेहद शक्तिशाली शब्द है- ‘नहीं’। हर नई चीज और खोज की शुरुआत का पहला पड़ाव ही ‘न’ है। नई संभावनाओं की दुनिया खोलता है ये छोटा-सा हर्फ। दुनिया में जितनी क्रांतियां हुई हैं, बदलाव आए हैं, सब इस ‘नहीं’ की ही देन हैं। देश-दुनिया, समाज, विज्ञान, अंतरिक्ष, भूगोल, अर्थशास्त्र किसी भी क्षेत्र में कुछ भी नया तभी घटित हुआ, जब सधे और नपे-तुले मापदंडों को नकारा गया है। पर इसकी असली ताकत का अंदाजा तब लगता है जब इसका इस्तेमाल हम अपने लिए करते हैं। जब हम दूसरों को खुश करने से पहले खुद को प्राथमिकता देते हैं। आसान-सा मालूम पड़ने वाला ये शब्द रिश्तों और संबंधों में भूचाल लाता है और कई बार बिखराव भी। शायद इसीलिए इसका इस्तेमाल हम कभी संभलकर, कभी डरकर करते हैं। कितनी ही बार रिश्ते टूटने के डर से हम अपने पांव पीछे भी खींच लेते हैं। लेकिन मर्जी से या मजबूरी में एक न एक दिन इसका इस्तेमाल करता हर कोई है।
यह मनाही अपने साथ ‘क्यों’ का सवाल लेकर आती है
महिलाएं इसका इस्तेमाल जरा देर से करना सीखती हैं। पुरुषों की ‘नहीं’ को स्वीकार्यता जल्दी मिलती है। हमारे यहां इसकी शुरुआत भी बचपन से ही होती है। लड़कियों को शुरू से ही स्वीकार करना सिखाया जाता है। नकारना या असहमत होना उनके शब्दकोश में लिखा ही नहीं जाता। उनके कंधों पर एक नहीं दो परिवार और समाज को खींचने का जुआ रखा होता है। इसलिए जरूरी होता है कि वे चुपचाप सधी लीक पर चलती रहें। दरअसल, जब हम ‘न’ कहते हैं तो इसके मायने ये होते हैं कि क्यों न दायरे से बाहर निकल कर सोचा और किया जाए! यह मनाही अपने साथ ‘क्यों’ का सवाल लेकर आती है। हमारे यहां साल के सारे मुख्य त्योहारों, फिर चाहे वह मकर संक्रांति, होली, रक्षा-बंधन, दीवाली हो, हर त्योहार का आगमन ब्याही बेटियों को ‘सीधा-कोथली’ से होती है। यह बेटियों को यह आश्वासन होता है कि भले वे ब्याह दी गई हैं, पर घर में उनका दर्जा आज भी सबसे आगे ही है।
ससुराल वालों का बहू से हमेशा रहती है शिकायत
यही वह समय भी होता है, जिसकी ताक में ससुराल वाले रहते हैं कि कब बहू के मायके से कोई आए और उन्हें बताया जाए कि उनकी बेटी में कितनी कमियां हैं, कौन-कौन से काम वह ठीक से नहीं कर रही है। शादी के कुछ सालों बाद एक ऐसा समय भी आता है कि मायकेवालों के ससुराल आने से लड़कियों को डर लगने लगता है। तीज से दो-एक दिन पहले पड़ोस में रहने वाली दो महिलाओं के मायके से उनके सगे-संबंधी तीज के उपहार देकर गए। मौका तो खुशी का था, लेकिन अगले ही दिन दोनों बड़ी दुखी और उदास दिखीं। वजह थी कि भाई-भाभी के घर लौटने के बाद मां-बाप का फोन आया कि उन्हें उनसे ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं थी। वह कैसे घरवालों के काम करने से मना करने लगी हैं। घर संभालना उन्हीं की जिम्मेदारी है।
साथ ही हिदायत भी मिली कि अगली बार शिकायत का मौका दोबारा न मिले। ससुराल वाले बड़े खुश थे कि कैसे उन्होंने अपने खिलाफ उठने वाले विद्रोह को दबा दिया। इनमें एक महिला अध्यापिका है। परेशान करने वाली बात यह कि दूसरी गृहस्थ महिला ने लकीर खींच दी कि घर का सारा कामकाज और जिम्मेदारी संभालना अकेले उसके वश की बात नहीं। घर के बाकी लोग भी या तो सहयोग करें या फिर अपना काम खुद करें। रही मायकेवालों की बात, तो सलाह देने वाले लोग ससुराल वालों को अपने पास रख लें और सेवा का मेवा खाएं। उसने स्पष्ट ‘नहीं’ का हथियार आखिरकार हाथ में ले ही लिया। पढ़ी-लिखी महिला का शिक्षित होना ही उसकी बेड़ियां बन गया।
हमारे समाज में एक अदृश्य मानसिकता की बड़ी गहरी पैठ है कि लड़की से बहू बनने के तुरंत बाद उसे सर्वगुण संपन्न बनाने की कवायद शुरू हो जाती है। अब ससुराल का हर काम उसी के जिम्मे हो जाता है। घर के हर सदस्य की जरूरत और पसंद के हिसाब से उस एक शख्स को ही ढलना है। सिर्फ उतना ही सोचना और करना है, जितना उसे कहा जाए। नए रिश्तों की उमड़-घुमड़ में वह भी सब कुछ बड़े सहज भाव से अपनाकर उसमें ढलती चली जाती है।
समय गुजरने के साथ बच्चे-परिवार के साथ-साथ जिम्मेदारियों का दायरा भी फैलता है। अब शुरुआत होती है घुटन की, तनाव की। सबको सब कुछ समय पर करके देना उसकी नियति बन चुकी है। थकान, बीमारी में भी वह दिन-भर भागती है, क्योंकि वह ‘न’ नहीं कह सकती। इससे घर का संतुलन डांवाडोल होता है। अब दो ही विकल्प होते हैं कि या तो वह घुटकर-घुटकर सब कुछ समेटती रहे या फिर ‘न’ कह दे। ज्यादातर मामलों में हम पूरा दिन एक चिड़चिड़ाती, खटती और चौतरफा भागती-हांफती जान ही पाते हैं। यह समझना भूल है कि केवल घर में रहने वाली औरतें ही खटती हैं, कामकाजी महिलाओं की हालत भी बदतर हो चली है। अपनी पहचान ढूंढ़ने और सम्मान पाने की कवायद में घर से बाहर निकली औरत शाम को जब अपने बसेरे पर वापस लौटती है तो उसे घर पर सब कुछ उसी का इंतजार करता मिलता है।
जब मजबूर होकर ‘ना’ कहा जाता है, तब शोर मचना लाजिमी है, क्योंकि कभी मना नहीं करने वाला शख्स अचानक ‘ना’ कहता है तो इसे हजम करना वाकई मुश्किल काम है। मनोविज्ञान कहता है कि जो लोग साफ ‘ना’ कह देते हैं, वे ज्यादा सशक्त और मानसिक तौर पर मजबूत होते हैं, क्योंकि जो आप नहीं करना चाहते, उसे नकार देने के बाद मन ज्यादा शांत और खुश महसूस करता है।