लोक साहित्य का सृजक लोक ही है, इसीलिए उसमें लोक-जीवन की आत्म गाथा समाहित होती है। लोक साहित्य मानव जीवन जितना ही प्राचीन है। अपने जन्म के साथ ही मनुष्य ने कथाएं कहनी शुरू कर दी थीं- यथार्थपरक भी और काल्पनिक भी। इन कथाओं में उसके अपने अनुभवों की कथाएं हैं, साथ ही अपने तत्कालीन समय और समाज की घटनाओं और कथाओं का समावेश है। समय के साथ-साथ समाज में बदलाव की बयार चलती रहती है और समय के साथ कदम-ताल करते हुए लोक साहित्य में भी बदलाव होता रहा। लोक साहित्य समय के साथ यात्रा करता आया है। परिवर्तनों को स्वीकारता रहा है। इसमें वह समय भी है, जब सैलानी जादुई उड़नखटोले से भ्रमण करते नजर आते हैं, लेकिन समय के साथ-साथ जैसे-जैसे विकास होता गया, सैलानी उड़नखटोले की जगह हेलिकाप्टर, हवाईजहाज से सफर करने लगे।
लोक साहित्य की यह सबसे बड़ी खूबसूरती है कि वह परंपराओं का ध्यान रखते हुए भी रूढ़ियों को पकड़ कर एक जगह ठहरता नहीं। वह समय के साथ चलता है और समय के सच से साक्षात कराते हुए कभी-कभी समय से आगे चलता भी दिखता है। तभी कहा जाता है कि किसी संस्कृति के संबंध में गहराई से जानने के लिए वहां के लोक साहित्य को जानना जरूरी है, क्योंकि उसमें संस्कृति का सच्चा स्वरूप दृष्टिगोचर होता है।
लोक साहित्य में लोकगीत, लोककथा, लोकगाथा, लोकनाट्य आदि सभी रूप शामिल हैं। इनकी भाषा इतनी सहज-सरल-सरस होती है कि वे लोक-कंठों में बस जाती हैं। आज के आत्ममुग्ध और आत्म-प्रचार के समय में हम लोक साहित्य सृजकों के आत्म-प्रचार से दूर रहने की मन:स्थिति पर विस्मय ही कर सकते हैं। अपनी प्रसिद्धि, मान-सम्मान या अपने नाम के प्रचार की लालसा का भाव उनमें लेशमात्र भी नहीं था। अपनी रचनाओं में भी वे ऐसा संकेत करने से बचते रहे, जिससे कि उनकी पहचान की जा सके। अपने नाम के प्रचार के मोह से वे पूरी तरह मुक्त थे। उन्होंने लोक में जो देखा, जो अनुभव किया, उसे अभिव्यक्त करते हुए अपने लोक-दायित्व का निर्वहन किया। अपने मन के भावों को गीत, गाथा या कथा के माध्यम से अभिव्यक्त करने में ही उन्हें आत्मिक तृप्ति की अनुभूति होती थी। उनके मन के भाव इतने अनुभूत, यथार्थपरक, सच्चे और प्रभावोत्पादक होते थे कि उनके अंत:स्थल से निसृत बोल लोग आत्मसात कर लेते थे, उन्हें वे कंठस्थ हो जाते थे और अन्य लोगों को सुनाने में उन्हें आनंद का अनुभव होता था। इस श्रुति-परंपरा ने वर्षों से लोक साहित्य को लोगों के कंठों में बसाए रखा है। श्रुति-परंपरा के सहारे ही वे आज तक हमारे बीच जीवित हैं।
देशी-विदेशी, सभी भाषाओं का लोक साहित्य लोक से जुड़ाव रहा है। मनुष्य-समाज में लोक ही ऐसा वर्ग रहा है जो अभिजात्य संस्कारों, पांडित्य प्रदर्शन या दंभ से मुक्त रहकर परंपराओं को आत्मसात किए हुए लोकचित्त की बात करता है। मौखिक लोक साहित्य कंठों से कंठों की यात्रा करते हुए, श्रुति-परंपरा के माध्यम से अपना स्वरूप बनाता और सुधारता रहा है। धीरे-धीरे उसे लिखित स्वरूप भी मिलता रहा है। फिर भी लगभग सभी भाषाओं का अधिकांश लोक साहित्य आज भी लोक-कंठों में बसा हुआ है। उसका लिखित स्वरूप बहुत कम मात्रा में आ पाया है। अग्रज पीढ़ी के लेखकों ने लोक कथाओं के संग्रहण और संरक्षण के लिए प्रशंसनीय कार्य किया, लेकिन युवा पीढ़ी का इस ओर रुझान कम ही नजर आ रहा है, जबकि अभी भी लोक साहित्य पर काम करने की महती आवश्यकता है।
अगर इस अमूल्य धरोहर को लिखित रूप में संरक्षित करने का हम ईमानदार प्रयत्न नहीं करेंगे तो धीरे-धीरे यह लोक साहित्य लुप्त हो जाएगा। महिलाएं सदियों से लोक गीतों को संरक्षित करने का काम करती रही हैं। जन्म से मृत्यु तक के सभी संस्कारों में महिलाएं लोक गीत गाती हैं। इन लोक गीतों में समय के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आदि क्षेत्रों में आते बदलावों की झांकी भी हम देख सकते हैं, लेकिन खेद है कि आज की युवा पीढ़ी लोकगीतों से विमुख होने लगी है। उन पर सोशल मीडिया का प्रभाव बढ़ता जा रहा है और वे लोकगीतों की जगह फिल्मी गीतों-गजलों, उनकी पैरोडियों की ओर ज्यादा आकर्षित होने लगे हैं, जो लोकगीतों के संरक्षण के लिहाज से चिंताजनक है।
हरेक भाषा का लोक साहित्य आधुनिक साहित्य को सदैव से ऊर्जावान करता आया है। लोककथा की प्राचीन और समृद्ध परंपरा से संस्कार ग्रहण कर आधुनिक कहानी को नूतन आयाम दिए जा सकते हैं, क्योंकि लोककथा अपने कथ्य और कहनपन के बल पर श्रोता और पाठक को सम्मोहित किए रहती है और उसके मन में यह उत्सुकता बनाए रखती है कि आगे क्या होगा। सफल कहानी भी वही कहलाती है जो पाठक और श्रोता को अंत तक बांधे रखे, उसमें उत्सुकता बनाए रखे। लोककथा और लोक साहित्य की गरिमामय परंपरा को समझ कर, उसकी सामर्थ्य से ऊर्जा ग्रहण कर, सृजन को नई दृष्टि, नया शिल्प दिया जा सकता है। लोक साहित्य की सबल और समृद्ध परंपपरा से प्रेरणा लेकर हम आधुनिक साहित्य को ज्यादा आगे बढ़ा सकेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।