राजेंद्र मोहन

हमारे भीतर स्थायित्व की लालसा अदम्य है। हम हर वक्त इस फिक्र में घुले रहते हैं कि सुख, सुविधा, हैसियत, जवानी और लोकप्रियता सब कुछ स्थायी रूप से बना रहे। हालांकि हम सब जानते हैं कि जीवन चलायमान है। यह अपने आप चलता रहता है। स्थायित्व उसका कार्य नहीं। स्थायित्व हमारी खोज नहीं, हमारी चाहना है। हममें से कोई स्थायी पते की तलाश में है तो कोई स्थायी नौकरी की।

कोई उम्र को थामे रखना चाहता है, कोई किसी के हाथों को। किसी के लिए बंधन स्थायी है, किसी के लिए स्वतंत्रता। पर सदैव न फूल झरते रह सकते हैं, न डालियों पर टंगे रह सकते हैं। ‘सदैव’ की तरह लिखा दिखता समय भी सदैव नहीं रह सकता। फिर भी कभी हम चाहते हैं कि रात न हो और कभी कामना करते हैं कि कोई रात बीते नहीं। हममें से बहुतेरे लोग स्थायित्व के लिए सब कुछ दांव पर लगा देना चाहते हैं, लेकिन यह कभी तय नहीं हो पाता कि स्थायित्व आखिर है क्या!

जिस तरह बांसुरी के भीतर से गुजरी हवा संगीत बन जाती है, वैसे अपने भीतर ऐसा खालीपन जरूर रखना चाहिए जो जीवन में प्रविष्ट धूसर रंगों में घुल कर आह्लादित हो जाए। स्थायी तो खालीपन भी नहीं है और भरपूर भरेपन का स्थायी होना तो नामुमकिन है। पर हां, अनकहा दुख मन की देह पर पाषाण से भी भारी जरूर होता है। हममें से अधिकतर लोगों ने बैर कमाया है जगत में और उसे गांठ से बांधे रखते हैं। अगर घृणा और द्वेष की राह त्याग कर हम कुछ प्रेम में निवेश करेंगे पथ के आलोक में तो रास्ता सुगम हो सकता है।

अब क्या हम पल-पल, पग-पग संबंधों की बलि दे देकर अपने स्वार्थ का स्थायित्व तलाश रहे हैं? हालांकि जब उम्मीदें टूट जाती हैं सारी, छीन लिए जाते हैं या छिन जाते हैं सभी सहारे, तब दुनिया बदरंग लगती है। ऐसा लगता है कि हमारे अरमान छले गए। जहां आग लगी हो बस्ती-बस्ती, नफरत फैली हो गली-गली में, सब रिश्ते-नाते बिखर रहे हों, तो यह सवाल मन में उभरता है कि जग में कैसी हवा चली है।

अब इस हवा के स्थायित्व की कामना विफल प्रेम की साधना है। अब प्रेम पंथ कौन बुहारे। जब कुंद हुई अब धार प्रेम की, तब धरी हो शीश पर पाप की गठरी, मर्यादाएं तार-तार हों, डूब रही हो कश्ती जीवन की, भ्रष्ट आचरण हुआ सभी का, तब मुश्किल होता है इस जग में जीना। संबंधों की साख बचाने के लिए यहां गरल पीना पड़ता है।

दरअसल, गरल पीने वाला ही अमरनाथ होता है। अमृत छकने वाले तो आजकल मदांध होकर विषवमन करने में जीवन धन्य मान रहे हैं। याद रखने की जरूरत है कि अगर हम क्रोध खरीदते हैं तो हमें वात रोग या ‘एसिडिटी’ मुफ्त में मिलेगी ही। अगर हम ईर्ष्या खरीदते हैं, तो सिरदर्द मुफ्त में मिलना पक्का है। हमने नफरत को सींचा है तो मुफ्त ‘अल्सर’ या गंभीर घाव के लिए भी तैयार रहना चाहिए। हम तनाव को पालते हैं तो रक्तचाप साथ आएगा ही।

ठीक इसके बरक्स अगर हम बातचीत से विश्वास खरीदते हैं, तो दोस्ती मुफ्त में प्राप्त हो जाती है। अगर हम व्यायाम खरीदते हैं, तो अच्छा स्वास्थ्य मुफ्त में मिल जाता है। अगर हम शांति खरीदने के लिए बोलते हैं तो हमें समृद्धि उपहार में प्राप्त हो जाती है। इसके अलावा, अगर हम ईमानदारी खरीदते हैं, तो अच्छी नींद मुफ्त में प्राप्त हो जाती है। कहीं लिखा हुआ पढ़ा था कि आपके पास संवेदना और भावुकता है तो आप अपना विकास खुद ही कर लेंगे।

बुद्ध भी कहते थे- ‘अप्प दीपो भव’। यानी अपना दीपक खुद बनो। जे कृष्णमूर्ति भी संपूर्णता में अपने आपको समझने या आत्मनिरीक्षण या चुनाव रहित निर्विकल्प जागरण का निर्देश देते हैं। स्थायित्व बोध की वस्तु है। कह सकते हैं कि मेरा कोई परंपरागत गुरु नहीं है, लेकिन मेरे अ Kaसंख्य गुरु हैं। मैं महर्षि दत्तात्रेय की तरह असंख्य गुरुओं की प्रदक्षिणा करता हूं। एक वृक्ष पर प्रहार करने पर भी मीठे फल प्रदान करने को देखकर अगर आत्मदान की प्रेरणा मिलती है तो वृक्ष गुरु हो गया।

कालिदास की नवनवोन्मेषशालिनी कल्पना शक्ति स्थायित्व की अनूठी मिसाल है। इसके लिए उन्हें कठोर मेहनत करनी पड़ी थी और तभी जीवन का ताप श्लोकबद्ध हुआ था। एक गंधवती उषा को पाना अद्भुत कला है और इस कला का पारखी ही स्थायित्व का रसपान कर सकता है। सर्जनात्मकता उत्कर्ष प्रदान करती है। हम जीवन की स्थितियों से भी प्रतिक्रियाशील होते हैं, लेकिन उसे एक सुसंगत प्रारूप में विन्यस्त करना जिसे आता है, वही शिल्पी है स्थायित्व का। वही है इस जग जीवन का शिल्पी-जय, जिसकी वाणी में जीवन के स्वर हों। ऐसे ही जन-मन के मांस पिंड पर मुद्रित होता सत्य अमर है।