सुरेश सेठ

मुस्कराना और ठठाकर हंस देना इतना अलभ्य हो गया है कि लगता है, क्या कभी लोग इस प्रकार हंसते या मुस्कराते भी थे! रियायती मदद की दुकानों के बाहर भूख से परेशान बेकार लोगों की भीड़ कैसे हंसे, जब खबर मिले कि अनुकंपा की राशि तो नकली लोगों में बंट गई! यहां तो दवाएं भी नकली हैं और कई बार निवेश भी नकली हो जाता है।

जब इस प्रकार आर्थिकी को झकझोर कर विकास दर का मुखौटा नोचा जाने लगता है तो आदमी ऐसे विकास पर रोए न तो क्या करे? इन लोगों के लिए ही शायद चार्ली चैप्लिन ने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि मुझे बारिश में घूमना बहुत अच्छा लगता है, क्योंकि इसमें मेरे चेहरे पर बहते हुए आंसू किसी को दिखाई नहीं देते।

लेकिन आजकल अपने यहां लोगों को क्या अच्छा लगता है? एक दिन में अच्छा लगने के अवसर खुशी से उछल पड़ने के मुकाम तलाश करने पर भी कहीं दिखाई नहीं देते। लोगों के तनावग्रस्त चेहरों से मुस्कराहट या हंसी लुप्त-सी हो गई है। खोई हुई मुस्कराहटों की तलाश इस युग में एक अजनबी कर्म हो गया है।

पहले लाल किले के प्राचीर से लेकर नेतागिरी के हर मंच से आम लोगों के लिए अच्छे दिन ला देने का वादा सुनते रहते थे तो दिल बल्लियों उछलने लगता और चेहरे मुस्कराहटों से भरपूर होते। लेकिन अब बालू की नींव पर खड़े किए जा रहे आलीशान भवन जैसे वादे सबको अजनबी लगते हैं।

महामारी का एक रूप देश से विदा लेता है और विषाणु केंचुल बदल लेता है। अब तो डेंगू भी इस रूप में आ गया है कि उसे असली दवा भी संभाल नहीं पाती। उधर परेशान लोगों की भीड़ में कोई राहत नहीं बांट पाता। मुस्कराहट लौटाने की तो बात छोड़िए, क्योंकि एक महामारी के पीछे दूसरी महामारी की आमद की खबरें कतार बांधे आगे सरकने की फिराक में रहती हैं।

अब इस सिलसिले में से आने वाले दिनों के लिए कोई मुस्कराहट कैसे तलाश लें। पहला विषाणु पूरी तरह से विदा नहीं हुआ था, लेकिन दूसरे विषाणु अधिक मारक मच्छरों के रूप में हमारी फटी जेबों की तलाशी लेने लगते हैं। आदमी खांसता है, छींकता है, बदन में हरारत महसूस करता है, तो इसमें से मुस्कराहट कैसे तलाश लें। यहां लौटना है तो अधिक मारक होकर डेंगू लौटता है, या उसका चिकुनगुनिया जैसा सहोदर।

अब इसमें क्या यह राहत महसूस कर लें कि यहां अस्पतालों या प्रयोगशालाओं की डेंगू जांच घोषित प्रमाणित कीमत पर हो रही है? उस पर अधिक फीस का तावान नहीं लगाया जा रहा? सेहत के नए स्वरूप में सही फीस या उचित कीमत पर जांच हो जाना या उपचार का बंदोबस्त हो जाना बड़ी राहत तो हो सकता है, मुस्कराने की गुंजाइश इससे नहीं मिल सकती।

यह विसंगति भी नहीं मुस्कराती कि सरकार उपचार और जांच की कीमत का नोटिस कुछ और चिपकाती है और हमारे हाथ में भुगतान के लिए बिल उससे कहीं बड़ी राशि का आता है। लेकिन यह तो घर-घर की, शहर-शहर की बात है। अब तो इस सरेआम जेबतराशी पर किसी को रोना भी नहीं आता। आंखें आंसू बहा-बहा कर सूख गई हैं। अब अपने आंसू भरे चेहरे को बरसती बरसात में छिपाने की भी जरूरत नहीं। मुस्कराहट की उम्मीद छोड़ ही दी जाए।

बात बरसात की होने लगी तो याद आता है, कभी आसमान में काले बादल घुमड़ कर आते थे, तो मन मयूर की तरह नाचने लगता था। नाचते मन के साथ बरबस ठहाके लगाने को जी चाहता। आसमान पर बादल घुमड़ कर ढोलक मंजीरे-सा वाद्ययंत्र बजाते और इधर हमारे मुस्कराते चेहरे बरबस अपनी हंसी से इसकी ताल देते।

लेकिन आज बादल घुमड़ते हैं तो साथ मन मयूर-सा कैसे नाचे? यहां तो बादलों ने ढोल-मंजीरे बजाने का नहीं, फटने का आदाब सीख लिया। बादल घुमड़ा, पर पर्यावरण से प्रदूषित आसमान ने उसकी ताब लेने से इनकार कर दिया। बादल फटा, झंझावात और तूफान में बादल पागल प्रवाह-सा साधारण लोगों की धरती पर मृत्युदूत बन बहने लगा। लोगों की जान और माल इसमें बहते जा रहे हैं और साथ ही बह गया इसका स्वागत अपनी खुशनुमा मुस्कराहटों से करने का इरादा।

यह इरादा न जाने कहां-कहां, कैसे-कैसे खो गया! सोचते थे पेट्रोल और डीजल की कीमतों ने तो बुलंदियों को छू लिया। जिंदगी की कोई और बुलंदी तो अपनी न हो सकी, अब इस बुलंदी को ही छू लें। लेकिन चिंतित हैं कि इन कीमतों से परेशान लोग कहीं यों अपनी जिंदगी की मुस्कराहट खो देने की कीमत अपने मतपत्रों के इनकार से न उगल दें। इसीलिए सरकार से उम्मीद रखें कि खुशी लौटाने के नाम पर इन कीमतों में कुछ कटौती हो जाएगी।

राज्य सरकारें भी उपने-अपने स्तर पर वैट घटा कर इसका अनुसरण करेंगी, लेकिन यह कटौती अगर हुई भी तो पूरी कहां होगी? सोचा गया था पूरी नहीं तो एक चौथाई राहत ही मिल जाएगी, लेकिन कहां? मांग और पूर्ति का असंतुलन और विदेशी दरवाजों पर आयात के लिए दस्तक देते देश के लोगों को एक-चौथाई मुस्कराहट भी तो नहीं मिल पाती। एक चौथाई मुस्कराहट की तलाश करते-करते कहीं एक-चौथा रूदन ही पल्ले न पड़ जाए। डरे-डरे से लोग और सहम जाते हैं!