अनीता जगदीश सोलंकी

आज के बदलते परिवेश में आधुनिकतावाद की होड़ में इंसान भले ही बहुत आगे निकल गया है, लेकिन रिश्ते और रिश्तों में बंधा जीवन कहीं पीछे छूट रहा है। सब जानते और पहचानते हुए भी इंसान अपनी वर्तमान परिस्थितियों से अक्सर मुंह फेर लेता है और एक अजीब-से अनदेखीपन में लोगों की जिंदगी खप रही है। यों देखें तो हर तरफ चकाचौंध से भरी जिंदगी में सब बहुत आकर्षक और सहज दिखाई देता है, लेकिन हकीकत में जरा करीब होकर देखा जाए तब स्थिति इसके एकदम उलट दिखती है।

यह जीवन दो-ढाई दशक पहले तक कई मायनों में बहुत ही सादगी भरा और दिखावे से कोसों दूर और वास्तविकता के बहुत पास होता था। तब मनुष्यता के जितने गुण सोचे और तय किए गए हैं, वे सब आसपास के परिवेश के दिख जाते थे। लेकिन आज सरलता और सहजता से दूर दिखावे और स्वार्थ से भरा हुआ जीवन ही ज्यादातर लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र है। इसमें वयस्क या बुजुर्गों की तो दूर, हमने बच्चों तक को नहीं छोड़ा है।

उनको भी शीशे की तरह इस पल-पल बदलते स्वार्थ और व्यवहार के अनुकूल ढाल दिया है। हालांकि इसका खमियाजा भी हमें ही भुगतना पड़ रहा है। एक स्वस्थ माहौल की जमीन, जो किशोरावस्था से युवावस्था की दहलीज पर खड़े बच्चों को मिलनी चाहिए थी, वह परवरिश, जिसमें पूर्वजों से विरासत में मिले संस्कार और पुरातन से नवीनीकरण में तब्दील परंपराओं की जो धरोहर उन्हें सौंपी जानी चाहिए थी, उसके स्थान पर हम अपनी भावी पीढ़ी को दम तोड़ती संवेदनाएं, संकीर्णता में लिप्त सोच, विचारों में नकारात्मकता के भाव सौंप रहे हैं और खुद से विरक्त कर रहे हैं।

समाज के उच्च और निम्न वर्ग में पहले और आज में इतना फर्क नहीं दिखाई पड़ता, जितना उच्च और निम्न मध्यवर्ग की जीवनशैली और तौर-तरीकों को देख कर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितनी तेजी से बहुत कुछ बदल रहा है। हर व्यक्ति के भीतर एक दूसरे से ज्यादा चमक दिखाने की होड़-सी लगी है और इसमें आगे निकल जाने की प्रतिस्पर्धा में हमारे बच्चे भी साथ खड़े हैं। सबसे धनी और संपन्न बनने की चाह में हमने इस सरल जिंदगी को गुमराह करके इतना जटिल बना दिया है कि अब इसमें जीवन के तत्त्वों को खोजना पड़ता है। एक-एक पल अब किसी न किसी कारण से तनावपूर्ण और कठिनाइयों से भर गया लगता है।

आज हम अपनी जरूरतें अपने ही भीतर दफन करते जाते हैं तो कहीं गैरजरूरी बातों और चीजों को जीवन की जरूरत के रूप में अपना लेते हैं। वास्तविक जरूरतों को तवज्जो न देकर समाज में सबसे सर्वश्रेष्ठ और वैभव संपन्न बनने की चाह में न चुकता होने वाले अनचाहे असीमित कर्ज के बोझ तले दब जाने वाले लोगों को देख कर लगता है कि इस भूख की आखिरी मंजिल कहां होगी।

इस तरह जिंदगी के कुदरती रंग को खोते हुए बेमानी होड़ में शामिल होकर हम शायद यह ध्यान रखना भूल गए हैं कि इसके नतीजे भविष्य में बड़े दर्दनाक हो सकते हैं। यह वर्तमान में भी आसपास ही दिखने लगे हैं, जब अक्सर लोग इंसानी मूल्यों और संवेदनाओं के ऊपर अपने दिखावे की प्रवृत्ति को तरजीह देते दिखते हैं। या तो अपने ऐश्वर्य का प्रदर्शन उन्हें प्यारा होता है या फिर वे आभासी दुनिया के सुख को ही सच मान लेते हैं। जबकि इससे भावनाओं और संवेदनाओं की जमीन खोखली होती जाती है। सवाल है कि क्या ऐसे लोग खुद भी अपने साथ संवेदनहीन व्यवहार पसंद करेंगे?

हालात ऐसे हैं कि इस फैशनपरस्त दौर में सामान महंगा मिलता है, मगर जान की कीमत बहुत सस्ती है। पैसों पर रिश्ते बनते और बिगड़ते हैं… चंद टुकड़ों पर यहां बिक जाता है ईमान..! जीने की चाह तो सबकी है, फिर भी जाने ये कैसी मजबूरी है। हालांकि ऐसा कतई नहीं है कि हम अपनी अनचाही आवश्यकताओं पर अंकुश नहीं लगा सकते हैं। बस जरूरत है खुद को समझने और जीवनशैली को सरल और सहज बनाने की, ताकि आने वाले समय में हम बच्चों को एक बेहतर नजरिए के साथ एक स्वस्थ जीवनशैली दे सकें, उन्हें बेहतर इंसान बनने में मदद कर सकें।

माना जा सकता है कि बदलते दौर के साथ हमारा बदलना भी जरूरी है, लेकिन तनाव और अवसाद के साथ एक संवेदनहीन दुनिया में इस तरह से तो बिल्कुल नहीं बदलना चाहिए। पहले और आज के इंसान की वास्तविक जरूरतें सिर्फ मुट्ठी भर रही हैं, फिर इंसान चाहे कितना भी धनवान और साधन संपन्न हो जाए। हमें समझना होगा और बिगड़ती जीवन शैली को सुधारना होगा, तभी हम अपने बच्चों को घर और बाहर एक स्वस्थ और सुरक्षित माहौल और जीवन दे पाएंगे।

वर्तमान में शिक्षा के साथ-साथ बच्चों में उच्च मानवीय मूल्यों से लैस स्वस्थ सोच, सरल और सौम्य स्वभाव का विकास बेहद जरूरी है। आज बच्चों के उग्र होते स्वभाव को सहज बनाने के लिए उन्हें प्रकृति से जोड़ कर भी उनकी कमजोर होती जड़ों को मजबूत बनाया जा सकता है। सोचने और मिल कर आगे बढ़ने के साथ-साथ समाज में पनपती संकुचित विचारधारा को बदल डालने और एक बेहतर समाज का निर्माण करने की जरूरत है।