लवली आनंद
हमारे जीवन में अलग-अलग परिस्थितियां आती रहती हैं। उस आधार पर मानवीय संवेदना के अलग-अलग रंग और उसकी अभिव्यक्तियां हैंं। कभी खुशी, कभी दुख तो कभी क्रोध..। ये सभी भाव या अभिव्यक्तियां मानव जीवन को बहुरंगी बनाते हैं, लेकिन यह केवल तभी होता है जब ये नियंत्रित भाव में होते हैं या उस संतुलित भाव में होते हैं, जितने की आवश्यकता होती है। यानी इसका संतुलित भाव में होना आवश्यक है। इन्हीं में से एक है क्रोध।
यह मानव के चित्त का वह उद्वेग है जो हमारी समझ के अनुसार अनुचित या हमारे मन के अनुकूल कार्य न होने की स्थिति में तीव्रता के साथ उत्पन्न होता है। भगवद्गीता में क्रोध को बहुत सुंदर तरीके से इस तरह व्याख्यायित किया गया है कि हमारी अभिलाषा जब पूरी नहीं होती है तो वही रजोगुण के कारण बदलकर क्रोध बन जाती है। इस अभिलाषा को अगर व्यापक स्तर पर देखा जाए तो इसकी जड़ में स्वीकार्यता है। मानव जीवन की अलग-अलग परिस्थितियों को लेकर हमारी स्वीकार्यता हमारे भावों के संतुलन का आधार है।
समग्र रूप में मानवीय जीवन एक बड़ी ही जटिल व्यवस्था, जिसे हम प्रकृति कहते हैं, उसका एक सूक्ष्म भाग है। जब हम यह समझ जाते हैं कि हमें उस जटिल व्यवस्था यानी प्रकृति के साथ तालमेल रखते हुए अपने जीवन का निर्वहन करना है तो हमारे लिए सब कुछ आसान हो जाता है। जबकि अगर हम उस जटिल व्यवस्था में स्वार्थ से प्रेरित होकर अतिक्रमण का प्रयास करते हुए यह चाह रखते हैं कि सब कुछ हमारे ही मनोनुकूल हो या नियंत्रण में हो, तो यह बड़ी मुश्किल पैदा करता है। यह हमारी स्वीकार्यता को कम करता है और हमारे अंदर अहंकार को पोषित करता है। इससे हमारे आंतरिक भाव या संवेदना में असंतुलन पैदा होता है। यही असंतुलन हमारे लिए जटिल समस्याएं पैदा करता है।
अगर मानव जीवन के विभिन्न भाव असंतुलन में होते हैं तो क्रोध के उत्पन्न होने की संभावना अत्यधिक होती है। वहीं अगर मानव जीवन के अलग-अलग भाव संतुलित होते हैं तो हमारे अंदर स्थिति को लेकर संतुलित प्रतिक्रिया देने, धैर्य और परिपक्वता जैसे गुण आ जाते हैं, जिससे हमें क्रोध पर नियंत्रण की क्षमता मिलती है।
इस संबंध में रवींद्रनाथ ठाकुर ने कहा है कि जो मन की पीड़ा को स्पष्ट रूप से नहीं कह सकता, उसी को क्रोध ज्यादा आता है। यहां पीड़ा की जड़ में भी अस्वीकार्यता है। जब हम अस्वीकार्यता के साथ खुद को असहाय या निर्बल समझते हैं और प्रतिक्रिया के तौर पर खुद को कुछ नहीं कर पाने की स्थिति में मान लेते हैं तो हम पीड़ा में होते हैं। निस्संदेह यहां मन की पीड़ा हमारे जीवन के असंतुलन के भाव को दर्शाता है। वही पीड़ा हमारे चित्त कोष में जमा होकर क्रोध पैदा करता है।
पुराणों में क्रोध को शरीर में वास करने वाले दुष्ट शत्रुओं में से एक माना गया है। यानी इसे वह अदृश्य और अज्ञात शत्रु बताया गया है, जिसके सृजनकर्ता हम व्यक्तिगत स्तर पर खुद होते हैं। इसलिए इसके शमन या नियंत्रण की जिम्मेदारी भी हमारी ही होती है। उतार-चढ़ाव जीवन का हिस्सा हैं, यह मान लेना सब कुछ सहज कर देता है।
परिस्थितियां हमारे अनुकूल या प्रतिकूल हो सकती हैं, इसकी समझ होना सब आसान कर देता है, लेकिन इसे भूल जाना हमारी मानवीय प्रवृत्ति है। अगर हमारे भाव पूरी तरह से इस बात पर निर्भर रहेंगे कि जीवन में सिर्फ हमारी ही उम्मीदों या इच्छाओं को पूरा होना चाहिए तो हम अपने भावों के असंतुलन की संभावना को बल दे रहे होते हैं। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम अपनी-अपनी आंतरिक प्रकृति की ओर मुड़ें और व्यक्तिगत तौर पर हम अपने आप को व्यवस्थित करें।
क्रोध पूरी तरह से मानव का व्यक्तिगत चुनाव होता है। जब हम परिस्थितियों को व्यवस्थित रूप से संभालना सीख जाते हैं तो हमें क्रोध कम या न के बराबर आता है। वहीं अगर हम परिस्थितियों को व्यवस्थित रूप से नहीं संभाल पाते हैं तो हम कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष रूप से परिस्थितियों के नियंत्रण में आ जाते हैं और फिर हमारे भाव असंतुलित और अनियंत्रित हो जाते हैं।
यह हमारी व्यक्तिगत जिम्मेदारी है कि हम अपने जीवन को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं। हम अपने जीवन को क्रोध की अग्नि में जलाकर भस्म कर देना चाहते हैं या क्रोध को नियंत्रण में रखकर जीवन की उच्चतम सीमा को छूना चाहते हैं। इस संबंध में कहा गया है कि क्रोध से मूर्खता उत्पन्न होती है, मूर्खता से सोचने-समझने की शक्ति खत्म हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर इंसान खुद नष्ट हो जाता है।
इसलिए अपने व्यक्तिगत स्तर की उच्चतम सीमा को छूने के लिए क्रोध को नियंत्रित करना आवश्यक हो जाता है। अन्यथा क्रोध के अधीन होकर अपने जीवन की छोटी-मोटी परिस्थितियों की परिधि में ही उलझे रहने की संभावना बढ़ जाती है और हम अपने सर्वश्रेष्ठ स्तर को छूने से चूक सकते हैं।