हरीश चंद्र पांडे
किसी ने कहा है कि इस भौतिक जगत में हमारे साथ कुछ भी नया होता है, तो वह अपने आप नहीं होता है। कुछ नवीन हो सके, इसके लिए कुछ कदम उठाने होते हैं, कोशिश करनी होती है। कुछ समय पहले एक पार्क में तीन-चार बच्चे खिलखिलाते हुए ताली बजा रहे थे और आपस में ही कुछ शब्दों के हेरफेर से नया सृजन कर रहे थे। किसी को भी मोहित होकर उन बच्चों को देखना और सुनना अच्छा लगता।
दो समय की रोटी का जुगाड़ कर सकने वाले माता-पिता के बच्चों की प्यारी-सी बातें बनाते समय जो उत्साह और उमंग दिख रहे थे, वे कभी भी कार और हवाई जहाज में सफर करने वाले बच्चों के चेहरे पर शायद न दिखें। साफ नजर आ रहा था कि ये जो बच्चे थे, वे कभी किसी की शानदार देखभाल में नहीं रहे, लेकिन उनके द्वारा बनाए गए कविता जैसे वाक्य और उनकी कल्पनाशीलता उनके भीतर छिपी प्रतिभा के संकेत दे रही थी। उन्हें सुघड़ और सुलझा हुआ मार्गदर्शन निखार और संवार सकता है। अगर मौका मिले तो शायद इनमें से ही कोई नया लेखक, कवि या दार्शनिक भी समाज को मिल सकता है।
मगर यह सब बस सोचने की बात है। आज सरकारें भी सिर्फ अशिक्षा को मिटाने की बातें करती रहती हैं। जमीनी स्तर पर बच्चों की परेशानी दूर की जाए, इससे शायद उन्हें कोई मतलब नहीं होता। पार्क में खेलते वे बच्चे मजदूरों के बच्चे थे। उनके वहां होने का एक और तकलीफदेह कारण था। कुछ अमीर लोग जो शीतल पेय की आधी पी गई बोतल या चिप्स और बिस्कुट छोड़ जाते हैं, उनको ये बच्चे उठा लेते हैं। यह जान-सुन कर किसी भी दिल और कान में पीड़ा और चुभन होने लगेगी।
व्यवस्था का खेल भी निराला है। एक के पास खूब है, तो उसने कचरे में फेंक दिया और दूसरे के पास निवाला भी नहीं। अगर किसी का मन इन ब्च्चों के लिए विचारमग्न हो, तब आज का अमीर, सुविधाभोगी और विलासितामय समाज एकाएक ही आखों के आगे घूम जा सकता है। अगर मान भी लिया जाए कि गरीब बच्चे अच्छा पढ़ लें, कुशल भी हो जाएं, तो ठसकेबाजी और आडंबर द्वारा उन्हें यह आभिजात्य वर्ग और दिखावे वाला समाज अपने दबाव से कुंठित कर देगा।
इन दिनों एक अलग ही तरह का गुरूर तथाकथित ‘श्रीमंत समाज’ में नजर आने लगा है। खूब सुविधाभोगी और दौलतमंद अभिभावक चाहते हैं कि उनका बच्चा घर से बाहर न निकले और हर वक्त बस्ते के बोझ में दबा रहे। वे यह कभी नहीं सोचते हैं कि बच्चों पर बस्ते का बोझ नहीं डाला जाए और टीवी-मोबाइल आदि से दूर रख कर उनके मन में भी कुछ सृजन करने की बात को बिठाया जाए। जब स्कूलों में चार दिन का भी अवकाश होता है तो भी बच्चों को अपनी तरह से जीवन जीने की छूट नहीं होती है। आज दादी और नानी की कहानियां, बुआ-मौसी की गपशप और गली-मुहल्ले आदि में घूमने-फिरने का आनंद ही समाप्त हो गया है।
अब अवकाश होने के साथ ही उन्हें परोक्ष कैदखाने में भेज दिया जाता है, जहां कुछ अटपटा-सा सिखा कर आडंबर वाली जीवनशैली से अवगत करा दिया जाता है। मिसाल के तौर पर एक बेहद महंगी पाठशाला के बच्चे एक टीवी चैनल पर कह रहे थे कि मोटी फीस चुका कर उन सबने ऐसा खाना बनाना सीखा है, जो ‘बिना आग के’ बनता है। सदियों से दूध-केला, दूध-बिस्कुट, भेलपुरी, फल की चाट आदि किसे नहीं पता। मगर अब इनको यह सिखाया जा रहा है। आज का समय बच्चों को खुद सोचने नहीं दे रहा है। उसको सब पका-पकाया मिल रहा है, इस तरह कोशिश हो रही है कि हर बच्चे के कच्चे मन को मार ही दिया जाए।
आज जीवन का अर्थ कुछ बदल-सा गया है। इसलिए घर के आंगन तो गायब ही हो गए हैं। एक-दूसरे मन को जोड़ते हुए नुक्कड़ और किसी मोड़ के पास बची जगह पर एक पौधा रोपने की अभिलाषा तक तो किसकी होती क है! नहीं तो एक समय वह भी था, जब घर की चारदिवारी से बाहर निकलकर बच्चे कई तरह के खेल-कूद किया करते थे और उनको देख-सुन कर मन भी प्रफुल्लित होता था।
मगर आज यह हाल है कि अब तो गांव भी शहरों की तरह होने लगे हैं। गांवों में भी मोटरगाड़ियां दौड़ने लगी हैं, कुओं के मीठे पानी की जगह बोतलबंद पानी ने अपनी पैठ बना ली है और छाछ-राबड़ी का स्थान ठंडे पेयों और तुरंता खाद्य पदार्थों ने ले लिया है। ऐसे में अपने संगी-साथी को पास बिठा कर शब्दों से नए-नए भाव सजाते हुए यह बालक मन को भा गए। अब इन बच्चों से एक शानदार जीवन का मिलन हो जाए तो कितना अच्छा हो!