कुछ समय पहले एक सुबह मित्र ने वाट्सएप पर एक ‘रील’ भेजी। उसमें गर्मी की एक सुबह-सवेरे गांव-देहात की कच्ची सड़कों पर बुजुर्ग दादा अपनी पोती को साइकिल पर स्कूल छोड़ने जा रहे थे। पोती साइकिल के पीछे कैरियर पर दादा के ऊपर छाता ताने चिपक कर खड़ी है। देख कर अंदाजा लग जाता है कि बेशक लोग समझें या न समझें, लेकिन बुजुर्गों का साथ अगली पीढ़ियों के लिए किस कदर अनमोल होता है। कहा भी जाता है कि दो ही चीजें इंसान को समझदार बनाती हैं- एक किताबें, जो आप पढ़ते हैं।

और दूसरे बुजुर्ग, जिनसे आप मिलते हैं। हर बुजुर्ग अपने पोते-पोतियों और नाती-नातिनों की देखभाल करके, उन्हें प्यार और स्नेह देकर तथा उन्हें अमूल्य जीवन कौशल सिखाते असीम सुख अनुभव करता है। घर-परिवारों में बुजुर्गों के होने भर के कितने ही फायदे हैं, बेशक वे खाली बैठे या लेटे ही क्यों न रहें! बच्चों को उनके हवाले छोड़ कर माता-पिता कहीं भी बेफिक्री से आ-जा सकते हैं, उनके रहते घर से निकलते वक्त ताले लगाने और आकर खोलने का झंझट भी नहीं रहता।

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जब बुजुर्ग होते हैं, तो उनकी अहमियत नजरअंदाज हो जाती है। लेकिन उनके बगैर अनेक छोटी- बड़ी दिक्कतों का रोज-रोज सामना करना पड़ता है। एक फिल्म ‘अतिथि तुम कब जाओगे’ में बखूबी दिखाया गया है कि गांव के एक बुजुर्ग का लंबे समय तक घर में ठहर जाना दंपति को अखरता है, जबकि उन्हें उसके जाने के बाद उसके रहने से होने वाली सहूलियतों का अहसास हो पाता है। किसी ने एक वाकया सुनाया। एक रेलगाड़ी जा रही थी। डिब्बे में एक अकेले बुजुर्ग ही सवार थे। अगले स्टेशन पर रेलगाड़ी रुकी, तो नौ-दस नौजवान लड़के उसमें सवार हो गए। हमउम्र लड़कों की टोली का लड़ना-झगड़ने और शरारतें करने को आदत के तौर पर ही देखा जाता है।

एक ने कहा कि ‘यारो, मस्ती सूझ रही है, कुछ मजा लिया जाए। मजाक- मजाक में ट्रेन की जंजीर खींचते हैं…’! अभी उसने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी कि दूसरे ने टोका- ‘जंजीर खींचते ही ट्रेन रुक जाएगी। टीटी आते ही हमारी शामत आ जाएगी। बेवजह जंजीर खींचने के जुर्म में चालान भरना पड़ेगा। खामख्वाह रुपए चुकाने पड़ेंगे, वरना जेल की हवा खानी पड़ेगी।’ तीसरा लड़के ने चेताया और सलाह दी, ‘शरारत से पहले देख लो कि हमारी जेबों में रुपए कितने हैं!’ सभी अपनी-अपनी जेबें टटोलने लगे। किसी की जेब में सौ निकले, तो किसी के दो सौ रुपए। कुल मिला कर बमुश्किल पंद्रह सौ रुपए हो गए।

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चुपचाप बैठा बुजुर्ग लड़कों की बातें गौर से सुन रहा था। इतने में, उसमें से एक लड़के के मन में तरकीब सूझी। वह बोला, ‘हम जंजीर भी खीचेंगे, मजा भी आएगा और नाम इस बूढ़े का लगा देंगे। इससे हमारे पैसे भी बच जाएंगे।’ खैर, लड़कों ने जंजीर खींच दी! ब्रेक लगने की आवाज के साथ ट्रेन के पहिए ठहर गए। दो-चार मिनट में टीटी आ गया। पूछने लगा, ‘भैया, जंजीर किसने खींची है?’ लड़के बूढ़े की ओर इशारा करते हुए बोले, ‘जी, उन्होंने..!’ टीटी ने बुजुर्ग की ओर रुख किया और पूछा, ‘आपने खींची है?’

बुजुर्ग के पास बचने का कोई चारा तो था नहीं, तो उसने बड़ी समझदारी से अपनी गलती कबूल करते-करते माना, ‘हां, जंजीर मैंने ही खींची है! मैं और करता भी क्या? मेरे पास पंद्रह सौ रुपए थे, तो इन लड़कों ने जोर-जबरदस्ती से छीन लिए। मैं जंजीर न खींचता, तो क्या करता। मेरे रुपए दिला दीजिए, आपकी बड़ी मेहरबानी होगी।’ टीटी ने रेल पुलिस को फोन करके बुला लिया। लड़कों की जेबों की तलाशी ली गई, तो पूरे पंद्रह सौ रुपए निकले। पुलिस ने रुपए बुजुर्ग को दिए और लड़कों को पकड़ कर ले चली। बुजुर्ग धीमे स्वरों में कहने लगा, ‘मैंने यों ही बाल सफेद नहीं किए।’

इस उद्धरण को बुजुर्गों के समय के हिसाब से विवेक के आधार पर परिस्थितियों का सामना करने के संदर्भ में समझा जा सकता है। युवाओं के बीच कई बार सामाजिक व्यवहार के मामले में जिस तरह की अपरिपक्वता देखी जाती है, उसमें इसे एक सीख देने वाले अध्याय के तौर पर देख सकते हैं।
सच यह है कि बुजुर्ग अपने अनुभवों से युवा पीढ़ी को सही और गलत का अंतर समझा सकते हैं और कठिन परिस्थितियों से निपटने के तरीके बता सकते हैं। ढलती उम्र में फल न भी दें पाएं, तो उनकी छांव भी बड़ी आरामदायक होती है। इसलिए हमेशा परिवार के बुजुर्गों की सेवा करने को ईश्वर तुल्य पूजा माना जाता है। यह तय है कि बुजुर्ग अपने अनुभव, ज्ञान और मार्गदर्शन से अगली पीढ़ियों को सिखा सकते हैं, परिवारों को मजबूत कर सकते हैं, पारिवारिक विवादों को घर की चारदीवारी में सुलझाने का दम रखते हैं।

बुजुर्ग परिवार के सदस्यों को एक साथ लाते हैं, एकता-सद्भाव बनाते हैं, सामाजिक मूल्यों को उभारने और मजबूत करने में मदद करते हैं। परिवार के रीति-रिवाजों को अगली पीढ़ी तक पहुंचाते हैं। अपनी मातृभाषा घर में बोलते हैं, जिससे अगली पीढ़ियां उनके साथ से ही काफी सीख जाती हैं। अपनी बातों में कहावतों को मिला कर, बच्चों के दिल-दिमाग में ऐसे घोल देते हैं कि वे ताउम्र भूल नहीं पाते। सच यह है कि हर बुजुर्ग समाज के लिए अमूल्य है। फिल्मी तर्ज पर इसे यों कह सकते हैं- ‘धूप हो, छाया हो.. दिन हो कि रात रहे, बुजुर्गों का साथ रहे..।’