हम कितनी बार किसी जगह पर होते हुए भी वहां मौजूद नहीं होते हैं? कई बार हम दफ्तर से घर तो आ जाते हैं, लेकिन मानसिक रूप से अनुपस्थित रहते हैं। परिवार में होते हुए भी उनके साथ नहीं होते हैं। ऐसा भी होता कि कोई किताब पढ़ते हैं, शब्द आंखों के सामने से गुजरते जाते हैं और हम मर्म को समझे बिना पन्ने पलटते रहते हैं।

कितनी बार ऐसा होता है कि भोजन तो खत्म हो जाता है, लेकिन हमें याद ही नहीं रहता कि उसका स्वाद कैसा था। ऐसा भी होता है कि हम किसी से बात तो कर रहे होते हैं, लेकिन सच में सुन नहीं रहे होते हैं। खुशियों के पलों में भी हम पूरी तरह से शामिल नहीं हो पाते हैं। किसी हंसी-मजाक में हिस्सेदार होकर भी खुश नहीं होते हैं। इसी तरह रात को सोने के लिए बिस्तर पर तो चले जाते हैं और आंखें मूंद लेने के बावजूद सो नहीं पाते हैं। ये सब सामान्य स्थितियां तो नहीं हैं, लेकिन आखिर हम कहां गुम रहते हैं? यह एक ऐसा सवाल है, जिससे कभी न कभी और कोई न कोई जरूर सामना करता है।

बीती हुई घटनाएं और आने वाले कल की चिंता, वर्तमान को छीन रही हैं

अगर हम गौर करें तो इन स्थितियों के पीछे बड़ी वजह मन का भटकाव और वर्तमान से हमारा टूटता जुड़ाव है, जो अनावश्यक और अत्याधिक सोचने से होता है। हमारा दिमाग अक्सर दो दुनिया के बीच झूलता रहता है- एक वह, जहां हम सच में हैं और दूसरी वह, जहां हमारी चिंताएं हमें खींच ले जाती हैं। बीती हुई घटनाएं और आने वाले कल की चिंता, सब मिल कर हमारे वर्तमान को छीन लेती हैं। मनोवैज्ञानिक चिंता में घुलने या सोचने की तुलना दलदल से करते हैं, जो हमें अनिश्चितता और भय की ओर ले जाती है। हम अपने मन के भीतर गूंज रही धारणाओं और कल्पनाओं में ही उलझे रहते हैं। भीड़ भरा मस्तिष्क शांत चित के लिए कोई जगह नहीं छोड़ता है। हम प्राय: अपने भीतर ही गुम रहते हैं।

ज्यादातर लोग अनावश्यक सोचने की अवस्था में दिन का अधिकांश हिस्सा बिताते हैं। अनावश्यक किसी विषय पर सोचते रहना हमारा समय ही व्यर्थ करता है। जोसेफ नूयेन अपनी पुस्तक ‘डोंट बिलीव एवरीथिंग यू थिंक’ में जोर देकर कहते हैं कि हमारा सोचते रहना हमारी चिंता की सबसे बड़ी वजह है। दरअसल, हम चिंताओं में उलझकर शांति, प्रेम, संतुष्टि और आनंद जैसे कीमती रत्नों को धूमिल कर देते हैं, जबकि ये रत्न हमें स्वाभाविक रूप से मिले हैं। हम चिंता में डूबे रहते हैं, जो हमारी समस्याओं का समाधान नहीं करती है, बल्कि बढ़ाती है।

असली खुशी की खोज; जब लक्ष्य तय हो और सोच सकारात्मक हो, तब खुद से रोशनी लो, जीवन को दिशा दो

इस सच्चाई की पुष्टि कबीर के दोहे से की जा सकती है- ‘चिंता वाकी कीजिए, जो अनहोनी होय/अनहोनी होनी नहीं, होनी है सो होय।’ यानी, जो कभी होना ही नहीं, उसकी चिंता कैसी? और जो होना ही है, वह तो होकर ही रहेगा। यही जीवन का सत्य है। जिस पल हम सोचना कम करते हैं, उसी पल हमारी खुशी शुरू हो जाती है। असल में हम अपनी सोच की निर्मित दुनिया में जीते हैं, जहां हर भावना, हर अनुभव हमारे सोचने का प्रतिबिंब होते हैं। हम सिर्फ वही महसूस करते हैं, जो हम सोच रहे होते हैं।

सोच-विचार वास्तविकता नहीं है, लेकिन इन्हीं के जरिए हमारी वास्तविकताएं निर्मित होती हैं। अगर हम अपने सोचने के तरीके को बदल दें, तो वास्तविकता भी बदल जाती है। अगर हम किसी स्थिति को सकारात्मक रूप से देखें, तो वह हमें आशा और प्रेरणा दे सकती है। लेकिन वही स्थिति अगर नकारात्मक सोच के साथ देखी जाए, तो निराशा और भय उत्पन्न करती है।

आत्मचिंतन के दर्पण से होती है भीतर की यात्रा, देती है जीवन को अर्थ और दिशा

ये दुनिया एकदम शीशमहल की तरह है, जहां लाखों शीशे जड़े हैं। अगर हम खुश रहते हैं, तो शीशे में बनने वाली हरेक छवि मुस्कुराती दिखती है और सकारात्मक ऊर्जा देती है। इसके विपरीत, अगर हम उदास या चिंतित होते हैं, तो शीशे में बनने वाली प्रत्येक छवि मायूस करने वाली होती है और नकारात्मकता भी हमें चारों ओर से घेर लेती है। यह संदर्भ जीवन के उस सिद्धांत पर आधारित है, जिसे हम प्रतिध्वनि का नियम कह सकते हैं- हमारी सोच, भावनाएं और कर्म हमें उसी रूप में लौट कर मिलते हैं।

हमें सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, ताकि हमारा जीवन और परिवेश भी सकारात्मक और आनंदमय बन सके। वर्तमान वह एकमात्र समय है, जहां हम वास्तविकता को देख सकते हैं। इस संदर्भ में महात्मा बुद्ध ने कहा है ‘जो बीत गया उसके बारे में मत सोचो, जो आने वाला है उसकी चिंता मत करो, वर्तमान में जियो।’ हम वास्तविकता के नहीं, सोच-विचार के संसार में उलझे रहते हैं, जो चिंता, तनाव, कुंठा, क्रोध और आत्मशंका को बढ़ाती हैं। जीवन में दुख-दर्द और समस्याएं आती रहती हैं, जो स्वाभाविक हैं।

इनसे बचना संभव नहीं है, लेकिन इनसे मिलने वाले कष्ट से बचा जा सकता है, क्योंकि यह हमारी मानसिक और भावनात्मक प्रतिक्रिया पर निर्भर करता है। जब हम किसी दुखद परिस्थिति को स्वीकार कर लेते हैं, धैर्य और समझदारी से उसका सामना करते हैं, तो हम कष्ट को न्यूनतम कर सकते हैं। कायदे से देखें तो यह बहुत आसान तरीका है, क्योंकि सच सरल ही होता है।