चंदन कुमार चौधरी
सार्वजनिक जीवन में कई बार दो लोगों या पक्षों के बीच चल रही खींचतान किसी को विचित्र लग सकती है, मगर आमतौर पर ऐसी घटनाएं अपने आसपास हम अक्सर देखते हैं। बात जब किसी मजदूर की आती है, तब लगता है कि प्लंबर, बिजली मिस्त्री, कारपेंटर जैसे काम करने वाले लोग हमसे अधिक रुपए ऐंठ लेते हैं। आधे घंटे, एक घंटे जैसे कम वक्त के काम के लिए भी काफी पैसे ले लेते हैं।
कुछ समय पहले एक मजदूर ने दृढ़ स्वर में कहा कि पंद्रह सौ रुपए पर बात हुई थी और मैं पंद्रह सौ रुपए ही लूंगा। लेकिन काम कराने वाला उतनी रकम देने को तैयार नहीं था। मेहनताना मांगने वाला एक प्लंबर मिस्त्री था और काम करवाने वाला मकान मालिक। मकान मालिक का कहना था कि तुमने सिर्फ एक घंटा में ही यह काम कर दिया तो फिर इतनी रकम क्यों कर दूं, जबकि प्लंबर मिस्त्री का कहना था कि वह इतना ही रुपया लेगा, क्योंकि बात काम पूरा करने की थी। समय कितना लगेगा, उसे लेकर नहीं। उसने कहा कि काम आधे घंटे में होता है और पूरे दिन में भी न हो। काम ठीक न हो तब शिकायत करना चाहिए या पैसे काटने के बारे में बात करनी चाहिए। अगर काम ठीक है तो जितने रुपए देने की बात थी, उतना देना होगा!
मगर जब हम मालिक के भाव में सोच रहे होते हैं, तब भूल जाते हैं कि हम कई ऐसी चीजों को नजरअंदाज कर देते हैं, जिन्हें हमें जरूर देखना चाहिए। प्लंबर, बिजली या कारपेंटर का काम करने वाले लोगों का कहना होता है कि यह उनका हुनर है और वे अपने हुनर की कीमत लेते हैं। शारीरिक श्रम होता है, वह अलग। फिर वे नौकरी नहीं करते हैं।
दिहाड़ी मजदूर की तरह हैं, जिसे हमेशा काम भी नहीं मिलता। किसी ने फोन किया, तो उसकी समस्या का समाधान करने के लिए तुरंत हाजिर। इसके बावजूद कोई व्यक्ति निर्धारित और उचित रकम से ज्यादा पैसा मांगे तो इसे गलत कहा जाएगा। हम नौकरी करते हैं। हमारे पास समय नहीं है। ऐसे में अगर समय पर हमारी समस्या का समाधान हो जाता है तो यह बड़ी बात होती है।
लेकिन मेहनताना देने वाले ऐसे नहीं सोचते। उन्हें लगता है कि किसी तरह मेरा काम हो गया, अब इसकी क्या कीमत। जितना कम में निपट सके, निपटा लो। यही व्यक्ति जब किसी कार्यालय में काम करता है तो उसकी सोच उसी कारपेंटर, प्लंबर और बिजली मिस्त्री की तरह की होती है। वह सोचता है कि उसे कार्यालय में अधिक से अधिक सुविधा मिले। उसे उसके काम का ठीक से मेहनताना मिले। समय पर वेतन मिल जाए और उसमें बढ़ोतरी भी होती रहे। अपने साथ जब गलत होता है तो ऐसे लोग काफी कुढ़ते हैं, लेकिन वही दूसरों के साथ अन्याय करने से बाज नहीं आते। यह विचित्र है।
जिन परिस्थितियों में बिजली मिस्त्री, प्लंबर और बढ़ई या इस तरह का पेशा करने वाले काम करते हैं, वह सहज नहीं होता है। कई बार उन्हें कड़ाके की ठंड में, कड़ी धूप में दिन भर खड़े रह कर और जान जोखिम में डाल कर काम करना पड़ता है। इस तरह के काम करने वाले लोगों को शायद ही कभी चाय-पानी पीने के लिए पूछा जाता। अपवादों को छोड़ दें तो लोग उन्हें अपने बाथरूम का इस्तेमाल करने से आमतौर पर मना कर देते हैं।
इस तरह के अघोषित भेदभाव और अमानवीय व्यवहारों से बचने की जरूरत है। ऐसे समय में अपने घरों में काम करवाने वाले भूल जाते हैं कि इन्हीं लोगों की बदौलत उनका घर आज ठीक हुआ है। ऐसे लोग अपने कार्यालय में क्या इस तरह के व्यवहार की कभी उम्मीद कर सकते हैं?
अक्सर ऐसी खबरें आती हैं, जिसमें बताया जाता है कि घरेलू सहायकों के साथ दुर्व्यवहार और कई बार हिंसक बर्ताव भी किया जाता है। हालांकि ऐसी घटनाएं भी चिंतित करती हैं कि किसी घरेलू सहायक ने जघन्य अपराध को अंजाम दिया। आखिर समाज किस कुंठा में जी रहा है? हमें समझना होगा कि इन्हें पिंजरे में बंद नहीं करना है, बल्कि आजाद करना है।
जब आज दुनिया विज्ञान की ऊंचाइयों पर पहुंच गई है, तब इस तरह का भेदभाव क्यों हो रहा है? हम किसी को प्रताड़ित करके किसी तरह की सुखानुभूति का अनुभव करते हैं। हम क्यों भूल जाते हैं कि हम भी तो मजदूर ही हैं? हम भी कहीं काम कर रहे हैं तो हमें पैसा मिलता है। फर्क यह है कि वह ‘लेबर चौक’ का मजदूर है जो रोज मजदूरी ढूंढ़ता है और हमें इस तरह मजदूरी नहीं ढूंढ़नी पड़ती है।
कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि जब हम इस वर्ग के लोगों के साथ ठीक से व्यवहार करते हैं तो वे भी हमसे अच्छा व्यवहार करते हैं। कई बार वे कम पैसे पर भी मान जाते हैं। आखिर समाज अपनी श्रेष्ठता का भाव कब त्यागेगा? कब ऐसा सोचना बंद करेगा कि हम अधिकारी हैं और वे छोटे लोग हैं? जब हम ऐसा करना बंद कर देंगे तो समाज कितना अच्छा बन जाएगा, उसकी बस कल्पना ही की जा सकती है। जरूरत है सोच बदलने की, ताकि समाज में बदलाव आ सके। हम इंसान के साथ इंसान की तरह व्यवहार कर सकें।