शहरों-महानगरों का वासी होने के बाद गर्मी की छुट्टियां और नाना-मामा, दादा-दादी के यहां गांव में जाने के दिन अब लद से गए। शहरी होने की धुन में आदमी को अब शहर छोड़ना पसंद नहीं। शहर में अगर लड़के-लड़कियां हैं तो उन्हें अपना घर छोड़कर जाना पसंद नहीं। गर्मी में अगर घर छोड़ना भी चाहते हैं तो अपनों से दूर मनोरम और प्राकृतिक सौंदर्य वाले पहाड़ी इलाकों की ओर जाने की इच्छा बलवती होती है। नाना-मामा, दादा-चाचा के गांवों में प्रकृति के अनुकूल अपने घरों के सामने या छोटे से आंगन में खटिया डाल कर बैठे किसी मामा या चाचा को घेरे भांजे- भांजियां, भतीजे-भतीजियां या आसपास के बच्चे सियार, लोमड़ी, चंदा मामा, मोर-तीतर-बटेर, शेर, हिरण, हाथी और खरबूजे के किस्से सुनने को नहीं मिलते, न पहेलियां बुझाते, प्रश्न करते और समाधान सुझाते। मोबाइल ने लोगों का लेखन तो छीना ही, उनकी श्रवण कौशल दक्षता भी छीन ली और परस्पर विश्वास व आज्ञाकारिता को भी। अब कोई बुजुर्ग गांव में घर-आंगन के सामने चटक चांदनी में खटिया डाल बैठे हुए नहीं मिलते।

पारिवारिक मेलजोल और सामाजिक मेल-मिलाप के दिन सूने होते जा रहे हैं

अब देर रात किशोर और युवा तक स्वयं सजे-सजाए या अपने माता-पिता के साथ किसी भेलपुरी-पानीपुरी, चाट की थैला गाड़ी, बर्गर-पिज्जा, पाव-बड़ा, पास्ता- मैगी की दुकानों पर चटकारे लेते मिल जाएंगे। अवकाश के क्षणों में बड़े-बूढ़ों और हमउम्र के साथ समूह में बैठकर हंसी- मजाक कर आनंद लेने के दिन अब लद गए। सायंकाल के बाद घर-आंगन, गली-मोहल्लों की चौपालें सूनी हो गईं, जहां बैठकर आपस में किस्से सुनाते, मनोरंजन करते एक दूसरे के दुखड़े के समाधान बताते, सामाजिक कार्यों की रूपरेखा की योजना बनाती महिलाएं होतीं तो गीत, भजन, पारसियां गातीं। पारिवारिक मेलजोल और सामाजिक मेल-मिलाप के दिन सूने होते जा रहे हैं।

बच्चे हों, किशोर हों या युवा- सब आपसी सामाजिकता से दूर होकर दिखावटी-बनावटी दुनिया में संलिप्त होते जा रहे हैं और कुछ युवा पीढ़ी तो विभिन्न कट्टरतावादी क्रियाकलापों में बढ़ती, उलझती जा रही है। आज ये, कल वह, परसों वह, नरसों वह। कार्यक्रमों में इस तरह लपककर शामिल होते हैं, मानो इससे उसे कोई खजाना मिल जाएगा। इसके अलावा, उसे कहीं दूसरी ओर देखने की फुर्सत नहीं। चांदनी रात में न उनको सामाजिकता में घुलने की रुचि रही, न बड़े-बूढ़ों के पास बैठ कर उनसे बतियाने का समय। गर्मी की छुट्टियों में अपने नाना-मामा, दादा-चाची के यहां आमों के बगीचे या नदी किनारे आमों से लदे पेड़ों से हवा के हल्के झोंकों से गिर जाने वाले इक्के-दुक्के पीले-पीले पके आम वे देख नहीं पाते। जो आम एकदम पका वृक्ष से गिरता, तो उसे मालवी में ‘हाग’ कहते। वह खाने में खूब मीठा लगता। एकदम रस भरा। अब तो आमों के ‘डाल पक’ का इंतजार ही नहीं किया जाता। ‘डाल पक’ आम के स्वाद की बराबरी कृत्रिम रूप से पकाए आम नहीं कर सकते। ठेकेदार कच्चे ही तोड़कर रसायन से पकाकर बाजारों में भेजने लग गए।

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अरावली, विंध्याचल, मालवा के पठार जैसे गिरि-शृंखलाओं में बसे गांवों-कस्बों में पर्वत राज के वन प्रांतर से गर्मी में बिकने आए ग्रीष्म फल टीमरू, जिसका वानस्पतिक नाम ‘जैन्थोजायलम एलेटम’ है, जिसको पहाड़ी नीम, तिरमिरा जैसे नामों से भी पुकारा जाता है और जिसकी लकड़ी धार्मिक महत्त्व के काम भी ली जाती है, उसमें विटामिन सी, विटामिन ए, फोलिक एसिड और अन्य पोषक तत्त्व पाए जाते हैं, अब देखने को नहीं मिलते। किसी कस्बे की ठेलागाड़ी पर दिख भी जाएं तो उन्हें खरीदने वाले नहीं मिलते। इसके साथ एक ऐसा भी पीला फल है, जिसे मालवी में राण (रायन) और हिंदी में खिरनी, रेयान संस्कृत में क्षिरीणी आदि नामों से पुकारा जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम ‘मणिलकारा हेक्सेंड्रा’ है, अब दिखाई नहीं देता। जामुन और करोंदा तो फिर भी दिखाई दे देता है। बालम ककड़ी कम दिखाई देती है तो खीरा ज्यादा। कांचरीफल मालवी में, जिसे डोचरा कहते हैं, लुप्त-सा हो गया। उसका स्थान खरबूजे ने ले लिया।

ग्रीष्म में अब तो लोग तरबूज, खरबूजा, आम, लीची, पपीता, अंगूर जैसों को अपने घर लाने लगे हैं। ठंडी तासीर वाले धनिया-पुदीना को भी पूछ लेते हैं। अपनी हैसियत के मान से कोई गुलाब, लेमन ग्रास का उपयोग कर रहा है, तो कोई खसखस की मेवा मिश्रित ठंडाई तो कोई गन्ने का रस या नीबू की शिकंजी में ही सब्र कर रहा। जैसी सामर्थ्य वैसा ठंडा पेय। गर्मी में रास्तों से गुजरते राहगीरों को ठियों पर टाट या सूती लट्ठे से लिपटे मिट्टी के बने पानी के मटके दिखाई नहीं देते। इनका स्थान ठंडे पानी की केन, वाटर कूलर ने ले लिया। कहीं-कहीं मिट्टी की काली नांदें जरूर दिखाई पड़ जाती है। गर्मी के दिन जीतने हैं, प्राकृतिक नहीं तो कृत्रिमता से ही सही, भले ही वे हमारे शरीर-मन को खराब कर दे।

क्या फिर लौटेंगे वे सुकून भरे गर्मी के दिन? चांदनी रात की वह लुका-छीपी (छुपा-होरी) मन का रंजन कर देने वाली चौपालों की वह बतरस। भले ही गांव-गांव न रहे। वे खपरैल न रहे हों, पर वहां जाएं तो अपनों का साथ सुकून देता है। जैसे-जैसे सीमेंट के जंगल उगते गए, हृदयों से सहृदयता भी सिमटने लगी। अपना हित सर्वोपरि। किसी की कोई परवाह नहीं। इसलिए तनाव बढ़कर मानसिक सोच से स्व-क्षति तक हर आयु वर्ग पहुंच रहा है। इसलिए अपनों के बीच बैठने का समय तो देना होगा। अन्यथा सब कुछ होते भी आनंद उठा नहीं पाएंगे। स्थान परिवर्तन हमेशा बंधी-बंधाई भागम-भाग की जीवनशैली में परिवर्तन तो लाता है। सामर्थ्य के अनुसार जाकर, आजमाकर देखना चाहिए। सुकून पैदा की जाए तो सुकून मिलेगा।