प्रदीप उपाध्याय

कृतज्ञता को मानवीय गुण मानते हुए हम कई बार व्यक्ति के कृतघ्न व्यवहार पर सोचने के लिए विवश हो जाते हैं। एक परिचित के घर पर आम का बहुत पुराना पेड़ था। पड़ोसियों के साथ ही आसपास के लोग भी उस पेड़ के कच्चे-पके आमों का रसास्वादन करते थे। जब पेड़ बहुत पुराना हो गया और उसके फलों में कमी आने लगी तो पड़ोसी ने पेड़ की जड़ों से अपने मकान की नींव कमजोर होने की बात कहकर और आसपास की रिहाइश के लोगों ने सूखे पत्तों के कचरे पर आपत्ति की और आखिर पेड़ काटना पड़ा।

एक अन्य उदाहरण है, जिसमें मोहल्ले में खासा प्रभाव रखने वाले एक बुजुर्ग व्यक्ति से मिलने चुनाव में खड़े हुए प्रत्याशी उनके पास पहुंचे। उन्होंने और उनके साथ आए लोगों ने बुजुर्ग व्यक्ति के चरणस्पर्श किए और उनसे आशीर्वाद मांगा और कहा कि मोहल्ले में उनके पक्ष में माहौल बनाने में मदद करें। बुजुर्ग ने उस प्रत्याशी की बहुत सहायता की और अपने प्रभाव से उसके पक्ष में माहौल भी बनाया। चुनाव संपन्न हो जाने और परिणाम उस प्रत्याशी के पक्ष में आने के बाद उसने फिर कभी उन बुजुर्ग या उस मोहल्ले की ओर मुड़ कर नहीं देखा।

इस तरह के और मामले सबको अपने आसपास दिख जाएंगे। इस सब पर यही विचार मन में आता है कि हम इतने स्वार्थी क्यों होते जा रहे हैं। हमारी मानसिकता ऐसी क्यों होती जा रही है कि जब तक हमें हमारे अनुकूल चीजें मिलती रहती हैं, जब तक हमारे अनुकूल बातें होती रहती हैं, जब तक हमें किसी की सहायता की चाहत होती है, तभी तक संबंधों में मिठास बनी रहती है, व्यवहार बना रहता है। चाहे प्रकृति से संबंध की बात हो या व्यक्तिगत रिश्तों की। जहां हमारा मतलब पूरा हुआ नहीं कि हम सारे रिश्ते-नाते तोड़कर मुंह फेर कर चल देते हैं। कृतज्ञता का भाव सिमट जाता है, मिटता हुआ लगता है और फौरन कृतघ्न स्वभाव का परिचय होने लगता है।

एक पेड़ जब तक फलों से लदा रहता है, एक पौधा जब तक सुगंधित फूलों से आच्छादित रहता है, तब तक हम उसकी साज-संभाल बहुत अच्छे से करते हैं। हमें वे बहुत लुभाते हैं, आकर्षित करते हैं। तब शायद पेड़-पौधे भी महसूस करते होंगे कि मानव मात्र में कितना कृतज्ञता का भाव है। वही पेड़ पौधे अगर फल-फूल विहीन होकर पतझड़ का शिकार हो जाएं और आंगन में बिखरे पत्ते कचरा जमा होने लगे, तब वातावरण में शुद्धता बिखेरने वाले पेड़-पौधे की उपयोगिता भूलकर हम उन्हें कोसने लगते हैं।

पड़ोसी के घर में गिरते फल तो उन्हें आकर्षित कर सकते हैं, भगवान की पूजा में अर्पित करने, किसी के गले का हार बनाने या किसी के जूड़े की वेणी बनाने के लिए चाहे गए फूल हमें याचक बना सकते हैं, लेकिन झड़ते सूखे फल, फूल, पत्ते विवाद का विषय हो जाते हैं। फूलों की महक तो हमें आकर्षित कर लेती है, लेकिन सूखे हुए फूल हमारे पैरों तले रौंदे जाते हैं।

क्या वहां हमें पसीजना नहीं चाहिए? हमारा कृतज्ञता का भाव कितनी शीघ्रता से तिरोहित होकर कृतघ्नता के भाव में परिवर्तित हो जाता है। दूध देती गाय हमें पूजनीय लगती है, मगर वही जब दूध देना बंद कर देती है, पुरानी होने लगती है, बीमार और कमजोर हो जाती है तो हमारे लिए उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है। या तो उसे सड़क पर खुला छोड़ कर आवारा पशु का तमगा लगवा देते हैं या फिर किसी कसाई के हाथ में देकर बूचड़खाने का रास्ता दिखा दिया जाता है।

इन बातों से ऐसा लगता है और सोचने पर विवश होना पड़ता है कि जब हमारे भाव, हमारी भावनाएं, हमारी संवेदनशीलता परिवर्तित होती दिखती है। प्रश्न भी उपस्थित होते हैं कि जीवन में हमारे कृतज्ञता के भाव कहीं स्वार्थ से ही तो जुड़े हुए नहीं हैं! क्या यह मानव स्वभाव मान लिया जाए कि जब-तक कोई आपका प्रिय पात्र है, तभी तक वह हमारा दुलारा है? जहां उसने पात्रता खोई, हम उससे दूर हो गए! जहां हमें किसी से काम निकलवाना हो तब तक हम कृतज्ञता का भाव दर्शाते रहेंगे और जहां हमारा काम पूरा हुआ नहीं, हम कृतघ्न होकर मुंह फेर लेंगे।

रिश्ते-नाते, संबंध क्या मतलब आधारित रहते हैं? हमें अपने ऊपर किए गए उपकार के लिए एहसानमंद होना चाहिए। उपकार का प्रतिकार एक बार धन्यवाद के रूप में कृतज्ञता ज्ञापित कर समाप्त नहीं हो जाता। वैसे यह बात उपकार करने वाले पर भी लागू होती है कि उसे हर बार अपने द्वारा किए गए उपकार को सामने वाले पर बातों के जरिए, दूसरों के माध्यम से या फिर बात-बात पर जताना नहीं चाहिए।

ठीक इसी तरह किए गए उपकार को विस्मृत कर व्यक्ति को कृतघ्न व्यवहार भी नहीं करना चाहिए। इंसान का व्यवहार चाहे वैयक्तिक स्तर पर हो या सार्वजनिक स्तर पर. उसे परिवार, समाज और प्रकृति के प्रति सदैव कृतज्ञता का भाव अपने दिलो-दिमाग में रखना चाहिए।