महात्मा बुद्ध के वचन हैं- अप्प दीपो भव। यानी अपना दीप स्वयं बनिए। ऐसे ही ‘नानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाणे सरबत दा भला’ वाक्यांश सिख दर्शन को उजागर करता है। इसमें सम्मिलित दो पंजाबी शब्द ‘चढ़दी कला’ का अर्थ खुद को विजयी करना, ऊपर उठना और ऊंचाई की ओर बढ़ना है।

यह सकारात्मकता, आशावाद, आत्मविश्वास से सराबोर होने और कठिनाइयों से ऊपर उठने की मानसिकता का प्रबल प्रतीक है। दूसरे शब्दों में इसे ‘उगता सूरज’ का पर्यायवाची कह सकते हैं। कहा जाता है कि जीवन में आने वाली कठिनाइयों के बावजूद, सकारात्मक और आशावादी दृष्टिकोण बनाए व अपनाए रखने से विजयी पताका लहलहा उठती है। यही नहीं, निहायत सामान्य शब्द जीवन के उतार-चढ़ाव को कबूल करने और उनसे उबरने की क्षमता को भी परिभाषित करते हैं।

ये आत्मविश्वास का संचार करते हैं और दिक्कतों का सामना करने के लिए मजबूत बनाने के साथ-साथ तमाम कठिनाइयों को दूर करने की हिम्मत बंधाते हैं। साथ-साथ दूसरों का समर्थन और मदद जुटाने व कष्टदायी दौर में उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होने की भावना को भी बढ़ावा देते हैं।

सच है कि हर इंसान के भीतर अद्वितीयता छिपी है। उसे पहचानने और फिर निखारने से जीवन में शिखर यात्रा के रास्ते खुलने लगते हैं। एक व्यक्ति ने माली से पूछा कि उसके बगीचे के पौधे इतने सुंदर क्यों उगते हैं? माली ने जवाब दिया, ‘मैं उन्हें बढ़ने से रोकने वाली बाधाओं को हटाता रहता हूं।’ ऐसे ही हर किसी को अपने निखार में आने वाली बाधाओं को दरकिनार कर आगे बढ़ना चाहिए। जैसे ‘मैं तुम्हें पसंद करता हूं’ और ‘मैं तुम्हें प्यार करता हूं’ में अंतर होता है।

गौतम बुद्ध यों समझाते थे कि अगर तुम फूल को पसंद करते हो, तो तुम उसे तोड़ कर रखना चाहोगे। लेकिन अगर उस फूल से प्रेम करते हो, तो तोड़ने के बजाय तुम रोज उसमें पानी डालोगे, ताकि वह और उसके आजू-बाजू दूसरे फूल खिलते रहें। ऐसी ही कोशिश हर किसी को खुद और दूसरों को निखारने में करनी चाहिए। हरेक जीवन में मुश्किलें तो होंगी ही। इसलिए किसी दूसरे के जीवन में मुश्किलें न खड़ी करने की हमेशा सभी को सच्ची कोशिश करनी चाहिए।

दरअसल, ताउम्र चले और कहीं नहीं पहुंचे की स्थिति तब होती है, जब चलने वाला जानता ही नहीं कि उसे जाना कहां है? बगैर लक्ष्य के चलते जाना या अपने लक्ष्यों-कार्यों को अधूरा छोड़ते जाना किसी को कहीं नहीं ले जाता। जबकि समय पर लक्ष्य निर्धारण करने और उसे पाने में जुटने भर से जीवन रोशन हो जाता है। यही असल खुशी का भी मार्ग प्रशस्त करता है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने तो आठवीं कक्षा में सहपाठियों से भरी कक्षा के बीच अध्यापक से कह दिया था कि वे बड़े होकर अमेरिका का राष्ट्रपति बनना चाहते हैं। उन्होंने केवल कहा ही नहीं, बल्कि अपना मकसद पाने में भी जुट गए।

नतीजतन, पचास साल से कम उम्र में ही वे अमेरिकी राष्ट्रपति बन गए। चूंकि योग्यताएं कर्म से पैदा होती हैं, इसीलिए ज्यादातर स्कूलों में प्राथमिक से लेकर माध्यमिक कक्षाओं तक छात्र- छात्राओं को भाषा, गणित, विज्ञान, सामाजिक शास्त्र आदि विषयों की पढ़ाई के साथ-साथ खेल, नृत्य, संगीत जैसी तमाम कला-विधाओं को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता है, ताकि बच्चे छोटी उम्र से ही अपनी रुचि अनुरूप लक्ष्य तय कर आगे बढ़ सकें।

हालांकि, फिल्मों के पुराने जमाने के जाने-माने खलनायक अजीत तो मानते थे कि ऊपर उठने का एकमात्र रास्ता साफ नीयत है। उनकी राय में अदाकारी में तो कम-ज्यादा भी चलेगा, लेकिन इंसान के तौर पर हरेक की फितरत हमेशा सौ फीसद और ज्यादा होनी चाहिए। हर क्षेत्र में वही लंबे समय तक कामयाब रहता है, जो इंसान भी बेहतर होता है। हम जिस प्रकार के विचारों का पोषण करेंगे, वैसे ही बन जाएंगे।

ओशो अक्सर बताते थे कि जब हमारा जन्म हमारी मर्जी से नहीं होता और मृत्यु भी हमारी मर्जी से नहीं होती, तो इस जन्म-मरण के बीच में होने वाला समूचा घटनाक्रम हमारी मर्जी से कैसे हो सकता है? बावजूद इसके हर किसी में इतनी ताकत होनी चाहिए कि अपनी मुश्किलों से अकेले जूझ सके। उसका सामना कर सके।

फारसी व सूफी कवि रूमी का मानना है, ‘खूबसूरत दिन खुद आपके पास नहीं आते। आपको उन तक पहुंचना होता है।’ बेशक जल्दी नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो कुछ भी खूबसूरत और महान है, उसे समय लगता है। बस अपने काम को निरंतर बेहतर करते रहना चाहिए। काम की गुणवत्ता बढ़ाने के साथ-साथ ज्यादा काम करने का मौका मिले, तो सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। जिम्मेदार मेहनती इंसान बाकी लोगों से श्रेष्ठ होने के अलावा ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

इसके अलावा, किसी के जीवन में सिर्फ अच्छे दिन नहीं आते, अपनी मेहनत से बुरे दिनों को भी अच्छे में बदला जा सकता है। यह भी सच है कि सबके दिन कभी न कभी जरूर बदलते हैं। व्यक्ति को धैर्य से प्रतीक्षा करना चाहिए।