संदीप पांडे ‘शिष्य’

आजकल पैदल चलते हुए अक्सर पुराने समय के वे प्याऊ बहुत याद आने लगे हैं। इन दिनों बस के इंतजार में बार-बार बीस रुपए की प्लास्टिक की बोतल का पानी गटकते हुए तो प्याऊ बहुत ही याद आता है। यह पता नहीं कि प्लास्टिक की बोतल में पानी कितने दिन पहले भरा गया होगा। आज से पचास साल पहले गांव के बाहर बस ठहराव की जगह पर प्याऊ मिल जाता था। ताजा जल भरा रहता था।

उसे पीकर गला ही नहीं, जिगर भी तर हो जाता था। एक समय था जब घनघोर गर्मी की विकट प्यास में सूरज की प्रचंड लपटों के बीच चलते राही अपनी जलती हुई आंखों से जो देखते थे, वह एक छोटा-सा ठिकाना होता था। आमतौर पर घास-फूस से बना होता था। कभी-कभार बरगद की छांव में बने गोल चबूतरे पर भी प्याऊ हर सौ दो सौ कदम पर होता ही था। प्याऊ का दूर से दर्शन भी मनमोहक होता था। गीले और माटी की खुशबू से भरे मटके देख चैन और सूखे कंठ में भी पानी आ जाता था।

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मगर अब वहां से वह सब गायब है। काले धारीदार कोरे मटके, गीली भुरभुरी मिट्टी, लंबी तार से बंधा हुआ डिब्बा… उसके छोर से गिरते झरने की भांति धार बनाता हुआ पानी जब जाता था हलक में तो लगता था कि अब जान वापस आ गई… अब आगे और पैदल चल सकते हैं। इतना ही नहीं, कितने ही प्याऊ ऐसे थे, जहां गुड़ की डली, भुना हुआ चना, मटर के दाने और कभी-कभार बताशा, नमकीन मुरमुरा भी एक कटोरे में रखा होता था।

कितनी बार सूखे बेर भी रखे होते थे। तब कोई लालची न था। जरूरत भर का चख लेते थे। चना-चबेना ऐसा था कि जिसे मुट्ठी भर चबाकर राहगीर और मजदूर की खूब हौसलाआफजाई हो जाती थी। मगर आज यह सब दृश्य तो गायब ही हैं और गायब हो रही है वह एक बूढ़ी मां भी, जो चंद सिक्के के लिए बैठी रहती थी। पानी पिलाती थी उस छोटी-सी झोपड़ी से, जिसे हम प्याऊ के नाम से जानते थे।

आज लोग आधुनिक रंग में रंगे अपनी प्लास्टिक की बोतलों में ठंडा पानी भरकर रखते हैं या फिर जब मन हुआ तब दुकान पर जाकर पैसा देकर खरीद लेते हैं। जबकि हमारे पूर्वजों के पास इस गर्मी से निपटने के लिए बुद्धिमान तरीके थे। गांव और देहात की मुख्य सड़कों पर पीने के पानी के मटके भरे रहते या छाया से भरी प्याऊ हुआ करता था, जिसका मतलब था दिन भर ठंडा पानी।

धीरे-धीरे घरों के ठीक अंदर पानी की पाइप लाइनें चलने के कारण ये प्याऊ अनुपयोगी हो गए और आखिर सजावटी टुकड़ों में ही सिमट कर रह गए और कुछ गायब हो गए। सबसे दुखद घटना तब हुई थी, जब आज से कुछ बरस पहले हमारे गांव वालों ने एक बड़े-से प्याऊ को ध्वस्त कर दिया। उस अनमोल तथा सार्वजनिक जगह को फर्जी कागज बनाकर एक दुकान बनने के लिए बेच दिया गया।

एक समय था जब राहगीर और मजदूर अपना पसीना सुखाने तथा थके हुए पैरों को आराम देने के लिए जीवनदायी प्याऊ की ओर देखते थे। प्याऊ के चारों तरफ कितनी शीतलता रहती थी! आज भी शहर में कुछ लोग अखबार की सुर्खी बनने के लिए कुछ दिन या कुछ घंटे का प्याऊ लगा रहे हैं, फिर उसे एकदम ही भूल जाते हैं। जबकि हमारे समय में प्याऊ में साफ जल तो होता ही था, आसपास रंग-रोगन भी होता रहता था।

आज हमारे नगर में ऐसे कुछ बचे हुए सार्वजनिक प्याऊ हैं, जो लोगों की प्यास बुझाने की बजाय बीमारियां दे रहे हैं। ज्यादातर प्याऊ केंद्रों पर पसरी गंदगी और कई वर्षों से टंकी की सफाई न होने से गंदा और दुर्गंधयुक्त पानी आता है। लोगों की भी लापरवाही कि जिन प्याऊ से उन्हें राहत और जीवन मिलता है, उनकी अनदेखी करने में उन्हें हिचक नहीं होती।

बिगड़ती हालत की वजह से वे प्याऊ लोगों की जितनी प्यास बुझाते हैं, उससे ज्यादा वे बीमारियों का प्रसार करते होंगे। मगर शायद सभी लोग इतने ही लापरवाह नहीं हैं। गिनती के ही सही, लोग सजग और संवेदनशील हैं। आज भी कुछ प्याऊ ऐसे मिल जाएंगे, जहां साफ पानी मिल जाता है और वहां की साफ-सफाई मन को भी राहत देती है।

एक बार शहर में एक जगह छोटे-से ठेले पर आधा दर्जन से अधिक मटके रखकर प्याऊ का शुभारंभ किया गया था, ताकि राहगीरों को शीतल पेयजल उपलब्ध हो सके। मटके रखने वाले ने बताया कि वे दो चाय की दुकानें चलाते हैं। गर्मी के मौसम में राहगीरों को शीतल पेयजल नहीं मिल पाता था। उन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति के हिसाब से एक ठेला लेकर उस पर आधा दर्जन से अधिक मटके रखा, लोगों या राहगीरों को ठंडा पानी मिल सके।

खुश होकर उन्होंने बताया कि मटके रखे जाने के बाद उनकी सिर्फ देखरेख और सुबह-शाम पानी भरने की जिम्मेदारी रहती है, लेकिन इससे सैकड़ों राहगीरों को तेज गर्मी में ठंडा पानी मिल जाता है। आते-जाते मजदूर और बाकी लोग जब इन मटकों से पानी पीकर तृप्त होते हैं, तब भी उनको देखकर अपने गांव का प्याऊ याद आता है, जिसकी हर पंद्रह दिन में सफाई की जाती थी। मटके रोज भरे जाते थे। प्याऊ के समीप नीम और गुलमोहर कितना सुकून देते थे!