पावनी

एक समय ऐसा था जब बच्चे अपने विद्यालय से घर को लौट रहे होते थे, तब रास्ते में आम, इमली, कटहल, लुकाट, नीम के पेड़ों पर झूले लगे मिल जाते थे। वह किसी का घर हो या पेड़ हो, मगर दो मिनट आनंद से झूले पर खेल कर घर लौटना होता था। करौंदे की झाड़ी अगर सड़क पर पहुंच के लायक हों तो दो-तीन करौंदे खा लिए जाते थे। कोई पेड़ का मालिक अगर देख भी लेता तो कभी कुछ नहीं कहता था। आजकल सबसे पहले ऐसी जगहों पर मौजूद कुत्ता ऐसे भौंकता है कि किसी के घर के सूखे पत्ते को भी हाथ लगाने की कल्पना तक नहीं कर सकते हैं।

ऐसे माहौल में कुछ दिन पहले एक सुबह फल खरीदते समय वाजिब दाम में मिल रहे खूशबूदार आम थोड़ी ज्यादा मात्रा में खरीद लिए गए। लेकिन साथ के थैले में पहले ही आलू और टमाटर भी रखे हुए थे। इस असुविधा को देख कर पास में खड़े फल वाले ने टाट का एक छोटा-सा थैला झाड़कर दे दिया और बोला कि इधर दीजिएगा… आलू-टमाटर इसमें सहेज देता हूं और आप अपने थैले में आम रख लीजिए।

मीठे शब्दों के दो वाक्य हैं इंसानियत के प्रमाणपत्र

जिस दौर में बाहर से लेकर घर तक में किसी की मीठी बोली को लोग तरस जाएं, उस दौर में अपनेपन से सराबोर मधुर, सुकून भरी बोली मानो दिल को तरंगित करने वाला था। एक साधारण-सा फल वाला, जिससे कोई जान-पहचान तक नहीं थी, उसने देखा और अपनी ओर से बढ़ कर समस्या का हल कर दिया। उसका यह व्यवहार उसकी इंसानियत का प्रमाणपत्र था। किसी आधुनिक चमकते व्यावसायिक परिसरों या माल में दुकानदारों से क्या यह उम्मीद की जा सकती है?

वह शब्द कितना अच्छा और आत्मीय लगता है जो हमें अपना मानकर कहा गया होता है। वह एक वाक्य, जिसमें एकदम सरलता का मद्धम उजास होता है, जो पांडित्य का आडंबर झोंक कर नहीं बोला गया होता है, वह मानवीयता का जीवंत अहसास दे जाता है। ऐसा लगता है कि इस जगत का हर बंधन दो मधुर बोलों से ही तो बना और बुना होता है। अगर यह बोली न हो, तो सामाजिक जिंदगी में खुशियां कतई नहीं हो सकती।

दरअसल, हमारे शब्द हमारी अभिव्यक्ति, सोच और हमारे विचार या अंदाज की फोटो कापी ही है, अपने दिमाग को बेकार और बेमानी तर्क, बेमतलब के आरोप-प्रत्यारोप का अभ्यस्त बनाने वालों को हम लोग हर दिन सुनते रहते हैं। उनसे हम न कभी मिले, न पास बैठ कर गपशप की, पर उनके आचरण, चाल-चलन, चरित्र, दिनचर्या को हम सटीक परिभाषित कर सकते हैं।
कितनी बार हम लोग एक सरल बोली से ही सम्मोहित हो जाते हैं।

शब्द जब अद्भुत, अद्वितीय, अलौकिक, सारस्वत, दिव्य, पारलौकिक, असाधारण, अपूर्व, अनुपम, चमत्कारी होते भी हैं तो भी वे बस पल दो पल को ही प्रभावित, रोमांचित करते हैं। लेकिन जो दिल से दिल की बात करे, वही जुबान जीवनदायिनी और शुभ है। यहां भटकाने वाली और चाशनी में डुबोकर फंसाने वाली भाषा को भी समझना होगा।

पुष्कर के पावन तीर्थ में हर साल लाखों सैलानी आते हैं। ‘पधारो म्हारे देस’- इस ध्येय वाक्य के साथ राजस्थान का पर्यटन विभाग काम कर रहा है। लेकिन ‘पर्यटक गाइड’ के नाम पर कुछ लोग ऐसी जल्दबाजी में होते हैं कि रेलवे स्टेशन और बस अड्डे पर ही सैलानी को अपनी स्वागत करती, लचछेदार भाषा से बुद्धू बना देते हैं।

एक बार अजमेर में मधुर और भावुक बोलकर पर्यटक गाइड ने एक दिन का जरूरत से अधिक मेहनताना वसूल कर केवल ‘ढाई दिन का झोपड़ा दिखाया’ तो पर्यटक को बहुत दुख हुआ। कहा-सुनी शुरू हो गई तो सोशल मीडिया पर बहुत सारे लोगों ने देखी-सुनी। तब सब सामने नजर आ रहा था कि मधुर और मोहक बोली में पर्यटक को लुभा लेने वाला गाइड अब उस कहा-सुनी में अपनी अलग, मगर बेहद खराब लहजे की भाषा-बोली की झलक पेश कर रहा था।

एक सभ्य और सुसंस्कृत इतिहास वाले देश के नागरिक से कम से कम यह उम्मीद तो की ही जाती है कि वे भारतवर्ष की छवि खराब करने में अपना योगदान नहीं देंगे, ताकि हमारा राष्ट्र विश्व में सरस भाषा के लिए अपनी अनुपम और अमिट पहचान बना सके। जब समाज का हर वर्ग, चाहे वह अमीर हो या गरीब, दुकानदार हो या व्यापारी, अपनी बोलने की शैली और कहने के अंदाज को सुधारने लिए विचार करे और इसके लिए नियमित रूप से कुछ न कुछ समय निकाले।

तब जुबान से कुछ कहने-सुनने को भी औषधि माना जाने लगेगा। अंतरिक्ष, चिकित्सा, विज्ञान, आधुनिकता और तकनीकी तरक्की एक तरफ है, पर भाषा के नजरिए के साथ समाज को उन्नति के शिखर पर पहुंचाने की भावना हम निजी तौर पर रखें। तभी हम अपने आपको एक मृदुभाषी, सरस, सुमधुर सच्चा भारतीय सिद्ध करके दिखा सकते हैं।