रेखा शाह आरबी

आजकल जैसा पारिवारिक-सामाजिक माहौल देखने को मिल रहा है, उससे ऐसा लग रहा है कि हम सब एक चेतनाशून्य समाज में रह रहे हैं। इसमें भाई को भाई से प्रेम नहीं है, बच्चों को अपने वृद्ध माता-पिता से आत्मीयता नहीं दिखाई देती है। उसकी जगह पर सिर्फ स्वार्थ देखने को मिल रहा है। लोगों को दूसरे के दुख और पीड़ा प्रभावित नहीं करते हैं।

ऐसा लगता है कि लोग भावना और संवेदना के स्तर पर निष्प्राण होते जा रहे हैं। शायद यही वजह है कि भाई का दुख भाई को भी प्रभावित नहीं करता है। लोग अपने मनोरंजन का साधन समझकर उन घटनाओं पर अट्टहास लगाते या कुटिल बुद्धि लगाते दिखते हैं, बिना इसकी परवाह किए कि अगले व्यक्ति को कितनी पीड़ा पहुंचेगी। कहीं-कहीं ऐसा भी देखने को मिलता है कि वृद्ध और अशक्त माता-पिता अपनी वृद्धावस्था के दुखों से ग्रसित रहते हैं और युवा पुत्र और पुत्रवधू उसी शहर में अपने सुखों में प्रसन्न रहते हैं।

पूरे प्राणी जगत में मनुष्य के पास ही यह शक्ति है कि वह अपनी भावना अपने आंसुओं के द्वारा व्यक्त करके सटीकता से अपने मन की बात किसी को बता सकता है। यह शक्ति प्रकृति ने यों ही नहीं मनुष्य को दी होगी, लेकिन अगर लोग पीड़ा को अपने अंतरतल पर महसूस करके द्रवित ही न हो सकें तो इसका क्या अर्थ? सहयोग और सहायता से समाज सुचारु रूप से चल पाता है और हमेशा से चलता आया है।

जन्म हो या मृत्यु, हमें समाज की जरूरत अनेक बार पड़ती है, अपने दुख में सहारे के लिए और सुख में अपनी खुशी बांटने के लिए, क्योंकि दोनों भावनाओं के आवेग संभालने के लिए हमें किसी अपने का पास होना जरूरी लगता है। हालत यह है कि अब किसी के दुख की हमारे जीवन में मात्र इतनी ही उपयोगिता और संवेदना रह गई है कि हम उसमें अपनी उदासीनता या फिर मनोरंजन तलाश कर सकें। कभी दूसरे के दुख से दुखी और दूसरे के सुख से सुखी होकर भावनाओं के सागर बहने लगते थे। समाज में यह सब आत्मीयता के आधार स्तंभ थे।

हाल के वर्षों में कई वाकयों ने ऐसा सोचने पर मजबूर कर दिया है। परिवार विघटन की नई-नई सूरत समाज के सामने देखने में आ रही है कि लोग अपने बसे-बसाए घर को, परिवार को और छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर आसानी से अपना सुख-स्वार्थ तलाश कर रहे हैं। हालांकि ऐसा सबने नहीं किया है, लेकिन इसकी स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है और यही चिंतन का विषय है।

परिवार ही वह संस्था है, जिस पर पूरे सामाजिक जीवन का ताना-बाना निर्भर है। परिवार मनुष्य के व्यक्तित्व में एक स्थायित्व की भावना देता है, जहां पर वह चाहे या न चाहे, उसके ऊपर समाज के दबाव काम करते हैं। इसे हम सरल भाषा में लोकलाज कहते हैं। अगर इस संस्था पर ही संकट आए तो यह चिंताजनक स्थिति है।

परिवार से अलग व्यक्ति के ऊपर न समाज के दबाव काम करते हैं और न ही गलत-सही पर कोई उसे रोकने वाला होता है। निरंकुश जीवन सदैव आसानी से विनाश की ओर अग्रसर हो जाता है, क्योंकि विपत्ति काल में न संभालने के लिए परिवार का मजबूत आधार होता है और न सही और गलत की परिभाषा तय करने वाला कोई व्यक्ति होता है।

परिवार और समाज का ताना-बाना एक दूसरे के सहयोग से परस्पर भावनात्मक सहारा देने के लिए बना था। किसी परिवार को संभालने और बसाने में स्त्री का सर्वस्व तो पुरुष का भी बहुत कुछ लगता है। दोनों के संयुक्त त्याग के कारण ही यह परिवार रूपी संस्था सुचारु रूप से चलती है, जहां से समाज को एक सभ्य नागरिक मिलता है। अगर सभी अपने-अपने सुख की तलाश करने लगें तो समाज में परिवार रूपी संस्था पर प्रश्न चिह्न लग जाएगा और फिर बात वहीं पर आकर रुक जाएगी कि लोग अपने स्वार्थ के कारण किसी का भी सम्मान नहीं करेंगे, भाई को भाई और बच्चे अपने वृद्ध माता-पिता को भार समझेंगे।

समाज को विघटन से बचने के लिए परिवार को विघटन से बचाना पड़ेगा। इसका एक ही उपाय और बचाव है। परिवार रूपी पवित्र संस्था किसी भी हाल में टूटने न पाए। बच्चों के मन में बचपन से ही परिवार के प्रति गहरी आस्था पैदा की जाए। पारिवारिक मूल्यों और नाते-रिश्तों का आदर करना सिखाया जाए, ताकि हर आयु वर्ग को एक सुरक्षित जीवन मिल सके।

उन्हें आर्थिक सुरक्षा, अच्छे संस्कार मिल सकें। उनका समुचित विकास हो सके, समाज को सभ्य नागरिक मिल सके। यह सब परिवार रूपी वृक्ष के साए में ही संभव है। यह वृक्ष तभी सही सलामत रह सकता है, जब हम उसकी सिंचाई स्नेह रूपी जल से करेंगे। हम अपने हृदय में सभी के लिए करुणा का संचार करेंगे।