हमारा देश शोर बाहुल्य है। यहां जो जितना शोर मचा सकता है उसे उतना ही बलशाली और प्रभावी व्यक्ति समझा जाता है। शोर की एक अलग संस्कृति धीरे-धीरे विकसित होती जा रही है। धार्मिक उत्सवों में चाहे वे किसी भी धर्म के हों, लाउडस्पीकर लगाकर और जगह-जगह चौराहों पर पंडाल लगाकर तेज संगीत या भाषण आदि घोर धार्मिक और समर्पित होने का प्रतीक माना जाने लगा है। कोई मेला, उत्सव या मांगलिक उत्सव ऐसा नहीं होता, जहां फिल्मी गीतों की तेज धुन और कानफोड़ू संगीत न हो। विवाह समारोह का आयोजन मिलने-जुलने और पारस्परिक संवाद के लिए भी होता है, लेकिन संगीत की तेज ध्वनि के चलते आपसी हालचाल पूछना भी मुश्किल हो जाता है। त्योहारों के दौरान ऊंची ध्वनि वाली भजन संध्या और राजनीतिक, सामाजिक आयोजन में शोर को शक्ति का प्रतीक माना जाता है।

हमारे यहां सामान्य मान्यता है कि जो जोर से बोलता है, उसकी बात सुनी जाती है। बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के चलते भी मशीनों का शोर, ऊंची-ऊंची बहुमंजिला इमारतों के निर्माण कार्य का शोर आसपास के निवासियों का जीवन बदहाल कर देता है। सड़क यातायात में वाहनों के हार्न का बेजा प्रयोग आम बात है। यातायात संकेत, जाम की स्थिति में अत्यधिक शोर के उदाहरण देखने को मिलते हैं। चुनावी रैलियों, भाषणों, जुलूसों और नारे लगाते समय काफी ध्वनि प्रदूषण होता है, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल इस दिशा में पहल करता हुआ दिखाई नहीं देता है। बल्कि बड़ी से बड़ी जनसभा करने की होड़ मची रहती है।

शोर से न केवल प्राइवेसी भंग होती है, बल्कि व्यवधान भी होता है

हमारे यहां शोर को शक्ति और प्रतिष्ठा से जोड़ा जाता है। ट्रेन, बस, माल में यहां तक कि अस्पताल में भी लोग मोबाइल पर जोर-जोर से बातें करते रहते हैं। इससे न केवल निजता भंग होती है, बल्कि आसपास के लोगों के लिए भी व्यवधान उत्पन्न होता है। कार्यालयों और स्कूलों, अस्पताल में भी लोग उच्च स्वर में मोबाइल पर बातें करते रहते हैं जो शिष्टाचार के विरुद्ध है। जबकि हकीकत यह है कि मोबाइल पर ऊंची आवाज में बोला जाए या फिर सामान्य स्वर में, बात दूसरी ओर उतनी ही तीव्रता के साथ पहुंचेगी, जितनी कि जरूरत है। विडंबना यह है कि इससे न केवल सेहत को होने वाले नुकसान, बल्कि हमारी आदत के बिगड़ने की फिक्र हमें नहीं होती। नतीजा यह होता है कि हमारी आदतों में घुली शोर की संस्कृति हमारे व्यक्तित्व तक को बुरी तरह प्रभावित करने लगता है।

दूसरी ओर, अत्यधिक शोर एकाग्रता को भंग करता है और उससे स्रायु संबंधी दिक्कतें भी होती हैं। आमतौर पर मध्यमवर्गीय परिवार में बैठकखाना या खाने के कक्ष इतने बड़े नहीं होते, इसलिए टीवी कार्यक्रमों या फिल्मों की पृष्ठभूमि में बजने वाले संगीत में अत्यधिक शोर का हंगामा मचता रहता है, फिर भले ही कोई घर में बीमार व्यक्ति हो या अध्ययनशील विद्यार्थी। ‘ध्वनि प्रदूषण- एक आधुनिक अभिशाप’ किताब के लेखक लिजा और लुईस हैगलर लिखते हैं कि पचासी डेसीबल से अधिक का शोर या ध्वनि प्रदूषण असहनीय है। लंबे समय तक अगर कोई इतनी उच्च ध्वनि के संपर्क में रहता है तो उसे स्थायी बहरापन दे सकता है। हृदय रोग, अनिंद्रा की समस्याएं हो सकती हैं। कई लोगों के कान में टिनिटस की बीमारी हो जाती है। यानी कानों में स्थायी रूप से सीटी बजना। यह भी लगातार अधिक शोर या ध्वनि प्रदूषण के कारण है।

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सामान्य और स्वस्थ मानव के लिए पैंतालीस डेसीबल से अधिक का शोर असहनीय और खतरनाक है। इससे अधिक का शोर मस्तिष्क पर प्रभाव डालता है और निर्णय क्षमता, उच्च रक्तचाप, माइग्रेन, गर्भवती के भ्रूण पर प्रभाव पड़ता है। इसलिए ध्वनि प्रदूषण से बचना चाहिए, लेकिन इस तरह के कोई प्रयास सामान्यत: जन जीवन में दिखाई नहीं देते। न नागरिक जागरूक हैं, न सरकारें और न समाज। विवाह समारोह में रात्रि दस बजे तक लाउडस्पीकर या डीजे आदि चलाने की आज्ञा है, लेकिन शहरों की सीमाओं के बाहर ग्रामीण अंचल में इसका कोई पालन नहीं होता दिखता है। उल्टे ऐसी खबरें आम हैं कि अगर किसी व्यक्ति ने ऊंची आवाज में लाउडस्पीकर या डीजे न बजाने का आग्रह किया, तो जश्न मनाने वाले लोगों ने उसके साथ हिंसक व्यवहार किया।

धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों पर तो प्रशासन और पुलिस भी हाथ डालने से कतराती हैं। ध्वनि प्रदूषण नियम के तहत सुबह छह से रात दस बजे तक का ही प्रतिबंध है। इसे सामान्य जीवन का हिस्सा मान अनदेखा कर दिया जाता है। लोगों में जागरूकता की भारी कमी है। विदेशों में आम नागरिक बहुत धीमे बात करते हैं। सफर के दौरान मात्र लिखित संदेश से काम चलाते हैं। शोर की संस्कृति वहां आमतौर पर नहीं दिखती है, लेकिन हमारे यहां बिना शोर मचाए न सरकारें सुनती हैं, न नौकरशाह और न जनमानस। कई देशों में अनावश्यक हार्न बजाने पर जुर्माने का प्रावधान है। लेकिन हमारे यहां लोग तरह तरह के कानफोड़ू हार्न लगाए बेखटके घूमते नजर आ जाएंगे। कई बार तो बिना किसी वजह के भी लोग गाड़ियों के हार्न बजाते हुए चलते हैं, ताकि उन्हें रास्ता साफ मिले। जबकि कई बार रास्ता खाली भी होता है। उन्हें यह अंदाजा भी नहीं होता कि उनके इस शौक की वजह से कैसी समस्या पैदा होती है।

दरअसल, सरकारी नीतियों के सख्त क्रियान्वयन की ही नहीं, सामाजिक जागरूकता अभियानों की भी महती जरूरत है। तकनीक और व्यक्तिगत जिम्मेदारियों के सम्मिलित प्रयासों से ही कुछ चेतना और बदलाव लाया जा सकता है। छोटे-छोटे बच्चे दिन भर वीडियो और कार्टून चैनल चलाकर बचपन से ही कान खराब कर रहे हैं। यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है।