लंबे समय से शैक्षणिक जगत में एक सवाल आज भी अपना उत्तर खोजने में नाकामयाब रहा है कि आखिर शत-प्रतिशत बच्चों को विद्यालय में कैसे रोका जा सकता है। अगर एक बार बच्चा विद्यालय में प्रवेश कर चुका है तो पूरे वर्ष भर उसे कक्षा में कैसे रखना है। नियमित विद्यार्थियों का सरकारी स्कूलों में आनंदमयी शिक्षा न होने के अभाव में बच्चों का शैक्षणिक विकास ठप होता जा रहा है।

बीच में स्कूल छोड़ने के लिए आखिर किसकी जिम्मेदारी बनती है- सरकार में बैठे हुए नेताओं की, नौकरशाहों की, शिक्षा विभाग की या फिर गुरुजनों की? कोई सर्वस्वीकार्य या सहमत करने वाला जवाब नहीं आ पाता तो उसके बाद ठीकरा भोले-भाले अभिभावकों पर फूटता है। जिम्मेदारी किसी की भी हो और जिम्मेदार किसी को मान भी लिया जाए। अगर देश का भविष्य सुरक्षित हाथों में रखने की मंशा हो तो बीच में स्कूली पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों की संख्या कम की जा सकती हैं।

निजी क्षेत्र में प्रायमरी शिक्षा के प्रति रुझान में थोड़ा इजाफा हुआ है

राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 में हमेशा की तरह एक कालम यह भी है- बीच में पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों की संख्या कम करना और सभी स्तरों पर शिक्षा की सार्वभौमिक पहुंच सुनिश्चित करना। नई शिक्षा नीति का लक्ष्य रखा गया है। मगर अब तक के आंकड़े यही बताते हैं कि आजादी के बाद हम कभी भी नामांकित सभी बच्चों को शत-प्रतिशत, नियमित रूप से, पूरे वर्ष विद्यालय में बनाए रखने में कामयाब नहीं रहे। हम कभी बीच में स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या कम कर पाएंगे, उसके समांतर महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमारा प्रारंभिक शिक्षा के प्रति बहुत ज्यादा रुझान है या नहीं। प्रारंभिक शिक्षा के प्रति रुझान थोड़ा बहुत कहीं दिख रहा है तो वह है निजी क्षेत्र।

निजी क्षेत्र में स्कूली पढ़ाई बीच में छोड़ने वाले बच्चों की संख्या बहुत कम रही है। दूसरी ओर, बीच में पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों की समस्या केवल सरकारी स्कूलों में ही क्यों देखी जाती है, इस पर कभी गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया गया। होना तो यह चाहिए की राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अंतर्गत हमें इस पर विचार करने के लिए एक-एक विद्यालय को इकाई मानकर कार्ययोजना बनानी चाहिए। हम ‘प्रवेशोउत्सव’ के माध्यम से बच्चों का स्कूल में नामांकन करते हैं।

संबंधित विद्यालय प्रशासन की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि प्राथमिक शिक्षा में उस क्षेत्र के लगभग सभी बच्चों के नामांकन में उल्लेखनीय प्रगति करते हुए उन बच्चों की स्कूलों में बने रहने संबंधी कार्य योजना बनाई जाए। इसके विपरीत होता यह है कि हम बार-बार निजी क्षेत्र को कोसते रहते हैं। जबकि निजी क्षेत्र में जो बच्चे अध्ययनरत हैं, उन्हें वहां अध्ययन करने पर सवाल उठाने की जरूरत नहीं है।

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चिंता का विषय यह होना चाहिए कि सरकारी विद्यालयों में नामांकन के बावजूद बच्चों में वहां पढ़ाई के प्रति स्थिरता कैसे रहे, उन्हें बीच में स्कूल छोड़ने से कैसे रोका जा सके। अगर हमें आगे बढ़ना है तो बेहतर भविष्य के लिए विद्यार्थियों का ‘ड्रापआउट’ कम करना होगा। अक्सर यह कहा जाता है कि इस पर ठोस राष्ट्रीय प्रयास किया जाएगा, लेकिन अगर इस पर गंभीरता से विचार किया जाए तो यह पक्ष सामने आता है कि बिखरे हुए प्रयासों से विद्यार्थियों के बीच में स्कूल छोड़ने को नहीं रोका जा सकेगा। उनकी पढ़ाई बीच में छूटना रुकेगा तो ठोस इच्छाशक्ति और क्षेत्र विशेष के विद्यालय की कार्य योजना से। संबंधित विद्यालय की कार्य योजना की सफलता के लिए नियमित रूप से उसकी निगरानी की जानी चाहिए।

दरअसल, इस समस्या की जद में आए ज्यादातर विद्यालय इस परेशानी से जूझ रहे हैं। इसलिए संबंधित विद्यालयों को जिला प्रशासन, शिक्षा विभाग की ओर से मदद की जानी चाहिए। विद्यालय के प्रधान को नोटिस देकर बात समाप्त नहीं किया जाना चाहिए। स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या की निगरानी कक्षा एक से ही अलग-अलग कक्षाओं की होनी चाहिए। हम इसे राष्ट्रीय समस्या या प्राकृतिक आपदाओं के माध्यम से पूरे प्रदेश या जिले की समस्या मानकर ‘ड्रापआउट’ में एकरूपता ले आते हैं।

यहां स्पष्ट करने की जरूरत है कि ‘ड्रापआउट’ एकरूपता की समस्या नहीं है। हमें विचार करना चाहिए कि पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों की समस्या एक जिले की भी एक जैसी नहीं होती, बल्कि एक विद्यालय को इकाई मानकर स्कूल बीच में छोड़ने वाले बच्चों की संख्या को कम किया जा सकता है। जबकि हम ऐसे बच्चों की संख्या को कम करने के बजाय अध्यापकों की कमी, संसाधनों का अभाव आदि की समस्या पर जोर ज्यादा देते हैं।

इस संबंध में देखें तो जितने भी अध्यापक या शिक्षा प्रशासन के लोग हैं, उन्हें नियमित रूप से विद्यालय में आनंदमय वातावरण बनाना चाहिए। अगर कोई विद्यार्थी दस-बीस दिन से नहीं आ रहा है तो उसकी समस्या की पहचान कर, उस पर गंभीरता से विचार करने और फिर से उसको विद्यालय आने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। यह कोई ऐसी समस्या नहीं है कि अगर एक बार बच्चा कुछ दिन स्कूल नहीं आता है तो वह आएगा ही नहीं। अगर हम उनके अभिभावकों से संपर्क में रहेंगे तो कोई रास्ता जरूर निकलेगा। इस काम के लिए विद्यालय से बाहर अभिभावक, शिक्षाविद और शिक्षक मिलकर प्रयास करेंगे तो स्कूली पढ़ाई को बीच में छोड़ने वाले बच्चों की संख्या कम करने में सफलता हासिल की जा सकती हैं।