राजेंद्र बज

सुख और दुख एक ही तराजू के दो पलड़े हैं। जिंदगी में दोनों का समान महत्त्व यों भी है कि एक की अनुभूति के अभाव में दूसरे की अनुभूति कदापि नहीं हो सकती, उसकी अहमियत समझ में नहीं आती। अब यह जो अनुकूलता या प्रतिकूलता है, इसका प्रभाव भी हमारे अंतरंग की अनुभूति पर ही निर्भर रहा करता है।

कई बार हम सुख के अनुभव पर अति उल्लसित हो जाते हैं और दुख के अवसर पर गहरे अवसाद में डूब जाया करते हैं। सुख में खुश होना और दुख में तड़पना या परेशान हो जाना सहज स्वाभाविक हो सकता है, लेकिन साथ ही यह भी समझने की जरूरत है कि सुख-दुख स्थायी नहीं होते, इसलिए अल्प समय तक आनंदित या प्रताड़ित करने के कारण बना करते हैं।

इसके अलावा, वक्त के साथ बदलते दौर में सुख-दुख का पैमाना भी बदलता रहता है। एक समय जीवन की जरूरतें सुख का अहसास होती थीं, आज उन्हें कोई अभाव का परिचायक मान ले सकता है। इसी तरह जो बात कभी दुख पहुंचाती रही होगी, बाद में लोग उसे भूल जाने या टाल कर आगे निकल कर या फिर एक कदम पीछे हट कर उसमें सुख की खोज का जरिया मान ले सकते हैं। यह थोड़ी जटिल स्थिति है, मगर अक्सर ऐसे उलझे हुए हालात उपस्थिति हो जा सकते हैं।

ऐसे में अगर हम तटस्थ भाव से जीवन की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच शांत मुद्रा अख्तियार करें, तो निश्चित ही विषयों के प्रति आसक्ति भाव कहीं दूर छूट जाता है। साथ ही अंतर्मन में असीम आनंद की दिव्य अनुभूति हुआ करती है। दरअसल, हमारी मन:स्थिति ही सुख और दुख का अनुभव करने में प्रबल रूप से सहायक होती है। हर किसी के सुख और दुख का मापदंड अलग-अलग हो सकता है।

कुछ लोग छोटी से छोटी उपलब्धि पर भी खुशियों के आनंद में डूब जाते हैं तो कई जरा-सी विपत्ति आने पर बुरी तरह से विचलित हो जाते हैं। हालांकि कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो खुशी और दुख से उपजे हालात का सामना संयम के साथ करते हैं, धीरज रखते हैं कि वक्त बदलेगा तो सुख और दुख का रूप भी बदलेगा। हमारे जीवन में समय-समय पर सुख और दुख के अनेक प्रसंग सामने आते हैं।

समता भाव की स्थिति में जटिल से जटिल परिस्थितियों का भी आसानी से सामना किया जा सकता है। प्रसन्नता या अवसाद के क्षणों में चित्त की स्थिरता अंतर्मन में आनंद की दिव्य अनुभूति से रूबरू कराती है। मगर ऐसे अनुभव से वही गुजर सकता है जिसका सांसारिक पदार्थों के प्रति आसक्ति भाव नहीं हो।

व्यवहार में देखा जाता है कि हमेशा प्रसन्न रहने वाले लोग छोटी-छोटी खुशियों में भी अपार खुशी का अनुभव किया करते हैं। इसी प्रकार दुखद समय में भी अपने मनोमस्तिष्क में असीम शांति का अनुभव किया जा सकता है। यों भी विभिन्न धर्म-दर्शन की शाश्वत मान्यताओं के अनुसार पर पदार्थों में सुख की खोज नहीं हो सकती।

सच यह है कि जीवन का असली आनंद तटस्थ भाव में रहने में ही सन्निहित रहता है। जो इस अनुभूति से दो-चार हो जाता है, फिर स्वाभाविक रूप से उसका माया, ममता, मोह और लोभ के प्रति आसक्ति भाव शून्यवत हो जाता है। ऐसे में कैसी भी स्थिति आने पर उनका चित्त कभी अस्थिर नहीं होता। मात्र ज्ञाता-दृष्टा भाव जागृत कर स्वयं को जटिल से जटिल परिस्थितियों में भी निस्पृह बनाए रखा जा सकता है।

व्यवहार में इसे अपने मन या विचार प्रक्रिया में संतुलन और धीरज कायम रखना कह सकते हैं। परिस्थितियां कभी भी एक समान नहीं रहतीं। हर किसी के जीवन में उतार-चढ़ाव का सिलसिला लगातार जारी रहता है। जिस प्रकार यह सत्य है कि संसार में जो आया है, उसे जाना ही है। ठीक उसी प्रकार सुख और दुख की प्रकृति कभी स्थायी नहीं होती। इसका आना-जाना जिंदगी भर लगा रहता है।

जो कमजोर हृदय के होते हैं, वे न तो खुशियों को बर्दाश्त कर पाते हैं, न ही दुख को। साफतौर पर कहा जाए तो वे परिस्थितियों के दास हो जाते हैं। मगर जो असाधारण मानुष होते हैं, वे विपरीत से विपरीत परिस्थितियों को भी अपने सकारात्मक सोच के आधार पर अनुकूलता में तब्दील कर देते हैं। इसके लिए किसी प्रकार की सिद्धि की आवश्यकता नहीं होती। दरअसल, मन की चंचलता को विराम देकर समतामूलक अवस्था को प्राप्त करते हुए परिस्थितियों का सामना करने से जीवन की धूप-छांव भी समान रूप से सुहानी लग सकती है।

भौतिक सुख-सुविधा का सुख-दुख से कतई कोई संबंध ही नहीं होता। जब तक अंतरंग में प्रसन्नता की अनुभूति न हो, बाह्य साधन-संसाधन की प्रचुरता भी मन को सुकून नहीं दे सकती। इसलिए हमारा हर संभव यह प्रयास रहना चाहिए कि वही करें, जिसके चलते मन में प्रसन्नता का संचार स्वाभाविक रूप से उछाल मारता रह सके।

अन्यथा दुनिया भर की दौलत हो, लेकिन मन का सुकून नहीं हो, तो दौलत का भला क्या मोल रह जाता है! संसार में आना और जाना खाली हाथ होता है। जीवन में अलग-अलग समय पर अलग-अलग अनुभूतियां हमें जिंदगी की धूप-छांव से परिचय कराती है। ऐसे में हम सम्यक भाव रखें, तभी सुकून की सांस ले सकते हैं।