शिशिर शुक्ला

जीवन प्रकृति प्रदत्त एक ऐसा उपहार है, जिसके मूल्य की कल्पना कर पाना भी नितांत असंभव कार्य है। मगर इसी जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण, जीने का ढंग और अपेक्षाओं के दायरे हमें परस्पर पृथक कर देते हैं। जन्म लेने के पल से ही हम इच्छाओं, आकांक्षाओं और विषयों के ऐसे संजाल में जकड़ जाते हैं, जिससे बहिर्गमन सामान्यत: मरणोपरांत ही संभव हो पता है। जीवन दरअसल सुख, सुविधा, शांति और आनंद की खोज का दूसरा नाम है। हम अनवरत कुछ नया प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहते हैं।

‘काश कुछ और प्राप्त हो जाए’, यह विचार हमारे अंतर्मन में जब एक बार स्थान बना लेता है तो फिर इससे मुक्ति पाना आसान नहीं रह जाता। प्रत्येक उपलब्धि हमें प्रसन्नता से कहीं अधिक उद्विग्नता की ओर धकेल देती है। यह उद्विग्नता होती है- कुछ और नया हासिल करने की, कुछ और ऊंचा उठने की और तुलना के पैमाने पर एक कदम और आगे बढ़ने की। सच यह है कि उपलब्धि जनित उद्विग्नता उस प्रसन्नता के भाव को नष्ट कर देती है, जिसे हमें जी भरकर जीना चाहिए था।

‘काश थोड़ा और…’ के स्थान पर ‘इतना ही पर्याप्त है…’ जैसा भाव

इंद्रियों की लालसाएं किसी सीमा में नहीं बंधी होतीं, क्योंकि उन्होंने सीमा या नियंत्रण शब्द का कभी अर्थ ही नहीं समझा है। इस आपाधापी में हम जीवन के वास्तविक कोष को विस्मृत कर बैठते हैं। यह वास्तविक कोष है- संतोष। संतोष एक ऐसी आंतरिक निधि है, जो हमें असीम सुख और आत्मिक शांति प्रदान करती है। एक श्लोक है- ‘संतोष: परमं सुखम’, यानी संतोष ही परम सुख है। संतोष के कोष का अर्जन भी सहज-सरल नहीं है। इसके लिए हमें अपने आप को अनुशासन की डोर से बांधना पड़ सकता है। ‘काश थोड़ा और…’ के स्थान पर ‘इतना ही पर्याप्त है…’ जैसा भाव जिस क्षण हमारे भीतर फूटने लगेगा, संतोष के अमूल्य कोष पर हमारा अधिकार सिद्ध हो जाएगा।

अल्प को ही पर्याप्त की दृष्टि से देखना, छोटी-छोटी उपलब्धियों में असीम सुख की अनुभूति, जीवन की प्रत्येक अवस्था में स्वयं को कृतज्ञता के भाव से सराबोर रखना और लालसाओं को आत्मानुशासन में बांध देना- ये कुछ ऐसी गतिविधियां हैं, जिनके माध्यम से हम संतोष का कोष प्राप्त करने के लिए प्रेरित हो सकते हैं। एक अन्य विशेष बात यह है कि आत्मानुशासन इच्छाओं पर नियंत्रण से आता है, न कि इच्छाओं के दमन से। दमन तात्कालिक प्रक्रिया है, जबकि नियंत्रण दीर्घकालिक। हम दमन को ही नियंत्रण समझने की भूल कर बैठते हैं जो हमारे लिए घातक सिद्ध होती है। नियंत्रण के माध्यम से आत्मानुशासन विकसित होता है और इसके बाद एक अवस्था ऐसी आती है, जब हम संतोष का कोष प्राप्त कर लेते हैं।

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संतोष के गुण को आत्मसात करने के बाद हमें अनेक ऐसे लाभ स्वत: मिल जाते हैं, जो हमारे जीवन को एक नवीन दिशा देते हुए उसमें आमूलचूल परिवर्तन कर देते हैं। संतोष हमारे चित्त को शांति और स्थिरता प्रदान करता है। बाहरी उथल-पुथल और परिस्थितियां ऐसी दशा में हमें जरा भी प्रभावित नहीं कर पाती हैं। संतोष का अमूल्य कोष प्राप्त होने के बाद हम भौतिक लालसाओं से दूर हो जाते हैं।

प्रतिस्पर्धा और तुलना के लिए हमारे मन-मस्तिष्क में कोई स्थान शेष नहीं रह जाता और ऐसी दशा में हमारा अंतर्मन हर एक क्षण प्रसन्नता के भाव से भरा रहता है। पर्याप्त का भाव मन में व्याप्त हो जाने पर मस्तिष्क चिंता, तनाव एवं अवसाद जैसे विकारों से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाता है।

ऐसी स्थिति में जीवन के प्रति एक संतुलित एवं सकारात्मक दृष्टिकोण धीरे-धीरे विकसित होने लगता है। एक बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि संतोष का अर्थ निष्क्रियता के भाव को पकड़ना कदापि नहीं है, बल्कि संतोष का आशय है- प्रत्येक अनावश्यक वस्तु को छोड़ते हुए न्यूनतम आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं का सहारा लेकर जीवन जीने का प्रयास करना। ऐसा तभी संभव है जब हम बाहरी विषयों में संलिप्त न होते हुए स्वयं के अंदर आनंद एवं शांति को खोजने का प्रयास करेंगे।

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एक बार अगर हम इस साधना में सफल हो गए तो फिर हम निश्चित रूप से संतोष और संयम का महत्त्व समझने लगेंगे। संतोष के खजाने को प्राप्त करने के लिए हमें एक सहज एवं सरल जीवनशैली का पालन करना होगा, जिसमें अनावश्यक इच्छाओं और विचारों के लिए कोई भी स्थान न हो। एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमें अपने जीवन को तुलना के पैमाने से हर हाल में हटाना होगा, क्योंकि तुलना सदैव बेचैनी को जन्म देती है।

किसी भी अगले व्यक्ति के पास क्या है या क्या नहीं है, हमें हर हालत में इन प्रश्नों से दूर जाना होगा। अपने जीवन को संयम के ढांचे में ढालकर हम संतोष का कोष प्राप्त कर सकते हैं। हमें प्रत्येक दिन और प्रति क्षण उन संसाधनों और उपलब्धियों के बारे में सोचना चाहिए, जो हमारे पास हैं। उन विषयों की ओर मन को भटकने से रोकना होगा जो हमारे पास नहीं हैं। प्रकृति के प्रति कृतज्ञता और आभार का भाव रखना हमें संतोष रूपी कोष की प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है।

अनंत इच्छाओं को सीमाओं में बांधने का प्रयास करना, सादगी एवं स्वाभाविकता का लिबास ओढ़कर जीवन जीना एवं सदैव नियंत्रण की डोर को पकड़े रहना हमें संतोष के भाव की ओर गति करने के लिए बल प्रदान करता है।

यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे जीवन पर पूर्ण अधिकार सिर्फ हमारा है। इसलिए उसे तुलना और दूसरी अन्य कसौटियों पर आंकने से कोई लाभ नहीं होने वाला। संतोष का कोष कोई भौतिक खजाना नहीं है, बल्कि यह वह दिव्य कोष है, जो जीवन को समृद्धि, शांति एवं पूर्णता प्रदान करता है। यह कोष जितना बढ़ता जाता है, जीवन उतना ही हल्का, सहज और आनंदमय होता जाता है। आधुनिक जीवन की आपाधापी में संतोष ही वह संजीवनी है, जो व्यक्ति को मानसिक, सामाजिक और आत्मिक स्तर पर स्थिरता देती है।