मुकेश पोपली
हम मनुष्यों के पास अगर तीन वस्तुएं हैं, तब यह मानकर चलते हैं कि हम अमीर हैं। ये तीन वस्तुएं हैं, तन, मन और धन। हमारे गुरुजनों और ज्ञानियों ने अपने वचनों में हमेशा इस ओर इशारा किया है कि तन तो चौरासी लाख योनियों की यात्रा है और अगर हम मनुष्य के रूप में पृथ्वी पर हैं तो यह हमारे लिए गर्व की बात है। इस तन पर गर्व तो करना चाहिए, लेकिन इसके मोह में पड़ना ठीक नहीं।
इसी प्रकार, वे यह भी फरमाते हैं कि मन चंचल है और एक अबोध शिशु के समान है। मन को काबू में रखना मुश्किल अवश्य है, लेकिन असंभव नहीं। यों भी, वह मन ही क्या, जिस पर उसके स्वामी का नियंत्रण न हो। हम मन पर काबू न होने की मजबूरी को बहाने के तौर पर इस्तेमाल तो करते हैं, लेकिन हम खूब जानते हैं कि हमारा मन हमारे भीतर के किन स्रोतों से चल रहा होता है। हम क्या करें, क्या न करें, यह अपने विवेक से तय कर सकते हैं।
मन पर नियंत्रण न होने का हवाला देना कायदे से एक बहाना होता है
अब अगर हम मन पर नियंत्रण न होने का हवाला देते हैं, तो कायदे से यह एक बहाना होता है अपनी ग्रंथियों से छुटकारा हासिल न करने या कर पाने के लिए। अब रहा धन, तो कबीर ने साफ-साफ कहा है कि, ‘साईं इतना दीजिए, जा मे कुटुम समाय। मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए।’ पैसे, जमीन-जायदाद जैसी भौतिक वस्तुओं का घमंड रखने वालों का बुरा हाल होता ही है। हमारे ऋषिजनों ने यही बताया है। यह तो सही है कि हम मनुष्य नाम के जीव अत्यंत भाग्यशाली हैं, क्योंकि हमारे पास अन्य जीवों की अपेक्षा शरीर के एक हिस्से में दिमाग भी होता है। इस दिमाग के भरोसे हम अपने रहन-सहन, पढ़ाई-लिखाई को बेहतर बनाते हुए सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि क्षेत्रों में स्वयं को एक सक्षम व्यक्ति के रूप में स्थापित कर सकते हैं।
प्राचीन काल में ढलती उम्र वाले बुजुर्ग लोग अपने आपको सेवा कार्यों में झोंक देते थे। इनमें से कुछ भक्ति मार्ग पर चल पड़ते थे तो कुछ मोह-माया से दूर एकांतवास में भी रहने चले जाते थे। इस तरह के सभी लोग तन से कमजोर हों, ऐसा नहीं है। मगर यह एक समांतर सच है कि कद-काठी से मजबूत लोग भी तन को स्वस्थ रखने के लिए अपने आहार का पूरा ध्यान रखते थे। आधुनिक युवा वर्ग व्यायाम करने के लिए जिम जाने की बात बड़े घमंड के साथ बताता है, जबकि घर या कहीं भी दूसरे श्रम से वह जी चुराता है। तन को गतिमान बनाए रखने के लिए स्वस्थ पर्यावरण और शारीरिक मेहनत अति आवश्यक है। इसके साथ ही शुद्धता से परिपूर्ण भोजन भी।
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मन पर नियंत्रण करने का मतलब यह नहीं होता कि खुद अपनी सारी इच्छाओं के लिए सभ्य होना और उसे दबा देना आवश्यक है। सभ्य वही होगा जो अपने साथ-साथ अपने परिवार, समाज और देश के हितों के लिए निस्वार्थ भाव से कार्य करेगा। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि हम बिना किसी प्रतिफल की चाह में अपना जीवन कैसे व्यतीत करें। दरअसल, सभ्य व्यक्ति का सबसे महत्त्वपूर्ण लक्षण है उसका परोपकारी होना।
वर्तमान में प्रत्येक मनुष्य खुद को परोपकारी बताता है, लेकिन वास्तव में इस पृथ्वी पर बहुत कम लोग ही यह भावना रखते हैं। अक्सर लोग देखा-देखी पर आ जाते हैं और प्रसिद्धि की चाह में समाज को दिग्भ्रमित करते हैं। मन को नियंत्रित करने के लिए संकल्पों के साथ जीना चाहिए। अपने सामर्थ्य के अनुसार अपने मन को सही दिशा प्रदान करने के लिए अनुभवी व्यक्तियों से संपर्क और संवाद करना चाहिए। बस केवल स्वविवेक से काम लिया जाए, तो यह समझना आसान हो जाता है कि अगर कोई व्यक्ति सत्ता के ढांचे में महत्त्वपूर्ण पद पर बैठे व्यक्ति को सिर्फ खुश करने के लिए उससे प्रभावित दिखता हो, तो वह अपने आसपास के लिए एक जोखिम की तरह रहेगा।
धन संचय करना आवश्यक है, लेकिन साथ ही इसे प्राप्त करने के लिए गलत मार्ग पर चलने से बचना भी आवश्यक है। समाज में ऐसे भी अनेक धनाढ्य हैं जो समाज के उत्थान के लिए अस्पताल, विद्यालय और अनेक उपयोगी स्थलों का निर्माण कराते हैं। ऐसे लोग गरीबों को उनकी आवश्यकतानुसार भोजन, दवाइयां और अन्य सामग्री उपलब्ध कराते हैं। धन लोलुपता धोखाधड़ी को जन्म देती है और हम तरह-तरह के अपराधों में अनचाहे भी लिप्त होते चले जाते हैं।
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परिणामस्वरूप, एक दिन भेद खुल जाने के बाद वह धन हमारे लिए अभिशाप बन जाता है। वर्तमान में हम मानवता से दूर होते जा रहे हैं और पाखंडी आचरण में अपने आपको जकड़ते जा रहे हैं। हमारे पास चाहे जितना भी धन हो, अगर उसका सही उपयोग नहीं हो रहा है तो वह हमारे लिए बालू-मिट्टी के समान है, जिसे एक दिन हाथ से फिसल जाना है।
दरअसल, तन-मन-धन तीनों ही हमारे लिए उपयोगी हैं, लेकिन इन सबका समर्पण भाव से उपयोग हो तो श्रेष्ठ है, वरना ‘मैं’ में जीना एक दिन हमें सभ्य समाज से कोसों दूर कर देता है। दुर्भाग्य से हमारे समाज में ‘मैं’ की बीमारी से करोड़ों लोग ग्रसित हैं। हमारी ‘मैं’ की भावना हमें ही आहत करती है।
झूठे और खोखले दावे और भय दिखाकर समाज में स्वयं को प्रतिष्ठित करने के लिए किए गए कार्यों का फल अल्पकालीन ही होता है। समाज को समर्पित कार्य बिना ‘मैं’ के साथ किए जाएं तो पद, सम्मान, प्रतिष्ठा भले ही न मिले, लेकिन मन को जो शांति मिलती है, वह अतुलनीय है। अगर हम इसके बिना समाज में रहना सीख लें तो हमारे जीवन में निश्चित रूप से खुशियां ही खुशियां होंगी।