हममें से ज्यादातर लोगों ने अक्सर यह महसूस किया होगा कि सब कुछ होने के बावजूद मन बड़ा अशांत है। मन के भीतर खुशी नहीं है। चित्त प्रसन्न नहीं है। आखिर क्या है प्रसन्नता के अभाव का कारण? इस पर गहनता से विचार किया जाए, तो सामने आएगा रेखा विज्ञान। रेखा विज्ञान ही सब क्लेशों का मूल है। रेखा विज्ञान यानी एक खुशी मिलते ही नई रेखा खींचना और खुद से यह कहना कि यह खुशी तो मिल चुकी, लेकिन मैं तब खुश होऊंगा जब इससे इतर दूसरी खुशी मिल जाए। बस यही रेखा खींचने का रेखा शास्त्र है।
इसे उदाहरण से समझा जा सकता है। छोटा बच्चा, कक्षा चार। उसके मन में भाव है कि एक बार परीक्षा खत्म हो जाए और छुट्टियां शुरू हो जाएं, तो खुशी ही खुशी है। वही बच्चा, कक्षा दस। उसकी सोच कि बोर्ड में अच्छे अंक आ जाएं तो सब आनंद। कुछ साल बाद उसकी सोच यह कि पढ़ाई पूरी हो और एक नौकरी मिल जाए तो खुशी। नौकरी लगते ही विवाह, संतान और उसके बाद संतान पढ़ ले तो खुशी। फिर मकान, प्रोन्नति, संपत्ति, वित्त प्रबंध, स्वास्थ्य ठीक रहे, तो खुशी मिलेगी का भाव। इन सबके बीच समझना यह है कि खुशी मिली नहीं, बस तलाशी जा रही है। हर व्यक्ति इसी अंतहीन चक्र में अपना जीवन जी रहा है। एक उपलब्धि मिलते ही उस उपलब्धि पर खुश होने के बजाय दूसरी उपलब्धि मिलने पर खुश होने का लक्ष्य बना रहा है, रेखा खींचे जा रहा है। बस, खुशी न मिलने का यही कारण है।
हरेक व्यक्ति वह हासिल करने में व्यस्त है जो उसके पास नहीं है। साथ ही, हर व्यक्ति वह बनने में व्यस्त है जो वह आंतरिक रूप से है ही नहीं। इसी कारण दुख है। जो मिला है, उसके लिए व्यक्ति में किसी तरह की कृतज्ञता का भाव नहीं है। एक इच्छा पूरी होते ही मनुष्य में अगली इच्छा जन्म ले लेती है। इन इच्छाओं का अंतहीन चक्र व्यक्ति को कभी भी खुश और संतुष्ट नहीं होने देता। यही दुखों और कष्टों का कारण है। ‘जो नहीं है’, उसकी इच्छा करके ‘जो है’ उसे खराब करने में व्यक्ति मानो आमादा है।
व्यक्ति कृत्रिम सुख या बाहरी खुशी की प्राप्ति के स्वप्न को जी रहा है। कृत्रिम खुशी क्षणिक है। कृत्रिम खुशी बाहरी संसाधनों, जैसे टीवी या सिनेमा देखने, मोबाइल की दुनिया से सोशल मीडिया पर पसंदगी का चटका, पर्यटन यात्राओं आदि से प्राप्त होती हैं। ये कुछ क्षणों तक सुख देती हैं, लेकिन उसके बाद व्यक्ति वापस दुखी हो जाता है। वास्तविक खुशी आंतरिक है जो दूसरों को सुख देकर मिलती है। हमने देखा होगा कि इंद्रधनुष बड़े ही सीमित समय के लिए दिखता है, यानी उसकी आयु बहुत छोटी होती है। अपनी सीमित आयु में भी इंद्रधनुष लोगों को खुशी देता है। मनुष्य को भी इंद्रधनुष की ही तरह अपनी सीमित आयु में अनेक व्यक्तियों को प्रसन्न करने का, उनके जीवन की मुस्कुराहट बनने का कार्य करना चाहिए। इसी में वास्तविक खुशी है।
भगवद्गीता के अनुसार, जो व्यक्ति बाह्य भोग-विलास में आसक्त नहीं होता और जिसका चित्त स्थिर रहता है, वह शाश्वत सुख को प्राप्त करता है। इससे स्पष्ट है कि चिर स्थायी खुशी अनासक्त रहने में, बाहरी भोग विलास के कुचक्र को त्यागने में और अपने मन को स्थिर रखने में है। अच्छी या बुरी- जो भी परिस्थिति हो, उसे स्वीकारते हुए अपना कार्य करते रहना व्यक्ति में खुशी का संचार करता है। कठोपनिषद् कहता है कि त्याग से शांति प्राप्त होती है और यही सच्चा सुख है। इससे स्पष्ट है कि बाहरी संसाधनों, संपत्ति आदि से बंधन ही दुख का मूल है। इसलिए अनासक्त भाव उचित है। ‘मेरा कुछ नहीं है’ का भाव रखना ही खुशी प्राप्ति का पहला सूत्र है।
डेनमार्क में खुश रहने की ‘ह्यूगे शैली’ अपनाई जाती है। ह्यूगे का अर्थ है छोटे-छोटे पलों में खुशी ढूंढ़ना। बड़ी घटनाओं और खुशियों के बजाय इस पल की खुशी का आनंद लेना ही ह्यूगे है। भारत तो इस तकनीक को सहस्रों वर्षों से जी रहा है। हमने मंदिरों में उद्घोष सुना होगा- ‘आज के आनंद की जय’। ये ह्यूगे शैली ही है। इस शैली में परिवारजन सुखपूर्वक साथ में अध्ययन करते हैं, चाय-काफी पीते हैं या संगीत सुनते हैं। वे खुश होने के लिए किसी बड़ी घटना का इंतजार नहीं करते। इसी तरह जापान में इकिगाई संस्कृति है। इकिगाई का अर्थ है जीने के कारण की खोज। ये जीने की प्रेरणा देता है। इकिगाई के चार सूत्र हैं- आपको किससे प्रेम है? आप किस चीज में कुशल हैं? आपकी क्या आवश्यकता है? आप किस चीज से आजीविका कमा सकते हैं? इन चार प्रश्नों का उत्तर शांति से देने पर जीवन का उद्देश्य मिलता है।
खुशी लेने में नहीं, देने में है। भारतीय शास्त्रों में यही बात वर्णित है। यही तत्त्व बोध है। मनुष्य को तत्त्व बोध तब होता है जब वह दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझकर उन्हें प्रसन्न करने का भाव रखे। जीवन में तत्त्व बोध बड़ी मुश्किल से प्राप्त होता है। जिन संसाधनों में व्यक्ति खुशी खोजता है, वे मृत्यु के बाद यहीं रह जाते हैं। व्यक्ति के साथ चलते हैं उसके सत्कर्म और अन्यों की दी गई खुशी। दूसरों को खुशी देना ही जीवन का उद्देश्य है। एक शोध के अनुसार, जो लोग खुशी बांटने में समय खर्च करते हैं और दूसरों के लिए कुछ करने की सोच रखते हैं, उनका जीवन काल अन्यों के मुकाबले लंबा और रोग विहीन होता है। अन्यों के जीवन की खुशी बनना ही जीवन है। करुणामय बनकर जीना ही जीवन है। वास्तविक आयु वही समय है जो व्यक्ति अन्य की खुशी और कुछ नया सीखने में देता है। बाहरी के बजाय अंतर्मन में खुशी तलाशना ही जीवन जीने का तरीका है।