जब किसी के सिर पर दुखों का पहाड़ गिरता है, तो सब कहते हैं कि हमारे ही हिस्से इतने दुख क्यों! दुखों का पूरा पहाड़ एकदम से क्यों गिरा? मगर जब सुखों की बरसात होती है, तब हम नहीं सोचते कि इतनी बरसात क्यों! सापेक्षता का सिद्धांत इस तरह से काम करता है। हम सुखों की गणना करना भूल जाते हैं और दुखों को गिनाते नहीं थकते। क्या सूर्य ऐसा करता है कि वह एक समय पर एक ही किरण धरती पर भेजेगा? सूरज जब निकलता है तो वह अपनी पूरी आभा और सारी किरणों के साथ पूरी दुनिया को रोशन करता है।
इसी तरह सुख-दुख या दुनिया की किसी भी वस्तु, स्थिति, पात्र-परिस्थिति का है। हमारे सामने जब भी आती है, पूरी थाली आती है। अब अगर हम केवल दाल-भात या केवल कढ़ी-खिचड़ी या साग-रोटी या सलाद ही खाना चाहते हैं, तो वह हमारी मर्जी है। दुखों का एक-एक पत्थर उस पहाड़ से लुढ़कते हुए नहीं गिरेगा, न ही सुखों की बरसात में एक-एक बूंद जमीन पर गिरेगी। पत्थर लुढ़कने को पहाड़ का गिरना नहीं कहा जा सकता, न बूंदाबांदी को पूरी बारिश।
अगर हमने जान लिया कि हमारे हिस्से अच्छी-बुरी हर चीज समग्रता से ही आती है, तो हमारे लिए चीजों-व्यक्तियों को स्वीकारना ज्यादा आसान हो जाएगा। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि हमारे पास कुछ भी आता है, तो वह उसके गुणों-अवगुणों के साथ आता है और हमें उसे उसी तरह स्वीकारना भी होता है। जब हमारे सामने थाली परोसी जाती है, तो उसमें सूखी सब्जी भी होती है और साग भी। थोड़ा सलाद भी होता है और थोड़ा भात भी। एक कटोरी दाल होती है, तो एक कटोरी खीर भी। रोटी होती है तो पूरी भी। तभी उसे संपूर्ण थाली कहा जाता है।
हम अपने सुख-दुख की गणना करने के बजाय अगर अपने अवसरों, जीवन से मिले उपहारों की गणना करें, तो सब बहुत आसान हो जाएगा। किसी रिश्ते ने बहुत चोट पहुंचाई, इसीलिए हम उस रिश्ते से उबर पाए। इसीलिए हम अपना ध्यान उससे हटा किन्हीं दूसरी चीजों पर लगा पाए। अगर जीवन में केवल प्यार ही मिलता रहता, तो इतनी मिठास से भी हम उकता जाते। जीवन का थोड़ा कसैलापन भी उसके स्वाद को बढ़ाता है। रात का अंधेरा दिन के उजाले को अधिक उजला बनाता है।
इसके विपरीत, आंखों को चौंधियाती दिन की रोशनी रात की स्याही को और स्याह बनाती है। कुछ बुरा होता है, तभी तो हम कुछ अच्छा होने को अनुभूत कर पाते हैं। हम अपने मित्रों से उतना नहीं सीखते, जितना हम अपने शत्रुओं से सीखते हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो मित्र हमारे लिए कुशन या तकिए की तरह होते हैं, जिनके सहारे हम आराम कर पाते हैं। दुश्मन जब हमारा जीना दुश्वार करते हैं, तब हम अधिक काम करने के लिए उद्यत होते हैं।
हम सबने रेल-बस यात्रा की है। रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड पर लिखा होता है कि यात्रीगण अपने सामान की रक्षा स्वयं करें। इससे हम में अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करने का बोध जगता है। इसी तरह हमारे जीवन का भी है। कोई और हमारी सहायता जरूर कर सकता है, पर सावधानी तो हमको ही बरतनी होगी। किसी पर इल्जाम तो लगाया जा सकता है कि उसने हमारे समय की चोरी की।
दरअसल, हम सचेत नहीं थे, इसलिए हमारे जीवन से किसी ने बड़ी मुस्तैदी से समय चुरा लिया। एक बार समय खो जाने के बाद हाथ मलते रहने के अलावा कुछ नहीं रहता। हम इतना भर कह सकते हैं कि हमारे हाथ से समय चला गया। यात्रा के किसी मोड़ पर उसके खतरनाक होने की सूचना का फलक भी लगा होता है। हमें समय-समय पर आगाह किया जाता रहेगा, लेकिन सावधान तो हम खुद ही रहना होगा।
‘दुर्घटना से देर भली’ का संदेश भी हमारी सुरक्षा के लिए ही है। धीरे चलें, आंख-कान खुले रख कर चलते रहें। इस यात्रा में कोई खतरनाक मोड़ आ गया, कहीं खाई आ गई, तो उसी वक्त संभल जाएं। किन्हीं गड्ढों में से आहिस्ता से गुजर जाएं और जब खुली सड़क मिले, तो सरपट दौड़ लगा लिया जाए। कहीं भी सुस्ताने से काम नहीं चलेगा, वरना कछुए के मुकाबले दौड़ में हम खरगोश की तरह पिछड़ जाएंगे। उसी तरह खराब रास्ता होने पर तेज गति काम नहीं आएगी।
कब अपनी रफ्तार तेज करनी है और कब धीरे, यह हमको ही समझना होगा। हंस कर-रोकर, खीझ कर-झुंझला कर चाहे जैसे भी हो, हमें अपनी यात्रा पूरी तो करनी ही है, तभी मंजिल मिलेगी। तय हमको करना है कि हम अपने रास्ते में आने वाली हरियाली और फलों-फूलों से लदे पेड़-पौधों को देखते हैं या राह में मिलने वाले धूल-कंकड़, शोर-शराबे से घबराते हैं।
जो पसंद नहीं, उसे अपने सिर पर हावी न होने दिया जाए और जो अच्छा लगता है, उसमें भी बह नहीं जाया जाए। मानक समय में तय होने वाली दूरी को उसी रफ्तार में तय किया जाए। जब यात्रा पूरी हो, तो अपने अनुभवों को दूसरों से बांटना चाहिए। इसमें अच्छा-बुरा सब मिलेगा। किसी का रास्ता पहले ऊबड़-खाबड़ हो सकता है, किसी का बाद में।
हमारे समांतर कोई समतल सड़क से जा रहा हो, तो कोफ्त करने की जरूरत नहीं है। हम नहीं जानते हैं कि इससे पहले उसने अपने रास्ते में कितने कंकड़-पत्थर बीने होंगे या आगे उसकी राह में क्या होगा। जो जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार कर लिया जाए और ‘बढ़े चलो’ का मंत्र अपना लिया जाए।