राकेश सोहम्
सुबह में कहां कोई संगीत होता है? वह तो अलसाए अंधेरे में लिपटी, चुपचाप होती है। सुबह देर तक सोने वाली अधुनातन पीढ़ी यही मानती है। बिस्तर पर पड़े रहने के आदी बहुत सारे लोगों का मानना है कि सुबह भ्रमण के लिए वही लोग निकलते हैं जो किसी बीमारी से ग्रस्त हैं। अनिद्रा के शिकार लोग भी सुबह का संकेत मिलते ही बिस्तर छोड़कर भाग निकलते हैं।
पालतू कुत्ते को सुबह घुमाने की मजबूरी लोगों को देर तक सोने नहीं देती। सेवानिवृत्त फुरसतिया लोग सुबह की खाली सड़कों पर और पार्क में वक्त काटने निकलते हैं। दरअसल, ऐसी सोच सुबह देर तक सोने वालों को आत्म तुष्टि देती है। आधुनिक पीढ़ी प्रतिस्पर्धात्मक जीवन जी रही है। ऐसे लोग पिछले दिन की असफलता के साथ सुबह देर तक अवसाद में पड़े रहते हैं।
उन्हें सुबह मनहूस दिखाई देती है। मजबूरी में सुबह जल्दी उठ जाएं तो दिन इतना लंबा लगने लगता है कि काटना मुश्किल हो जाता है। वे जम्हाई लेते बुझे-बुझे से कहते फिरते हैं कि आज का दिन ही बर्बाद हो गया। अक्सर देर रात सोने के मानवीय स्वभाव, अनैतिक चिंतन और बेमतलबी उलझन का इल्जाम बेचारी सुबह झेलती है। लोगों का वश चले तो सुबह को होने ही न दें। दिन की शुरुआत दोपहर से होने लगे। कुछ आलसी लोग ‘जब जागे तभी सवेरा’ का मतलब इन्हीं अर्थों में लेते हैं।
ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो सुबह उठते हैं और बीते दिवस की सारी चिंताओं का बोझ लेकर भ्रमण के लिए निकलते हैं। ये लोग प्रकृति के संगीत को नहीं सुन पाते! अनेक ऐसे शहर में हैं, जहां रिहाइशी क्षेत्रों के आसपास हरियाली का अभाव है। खुले मैदानों की कमी है। विकसित उद्यान या पार्क नहीं हैं। सवाल उठता है कि ऐसी स्थिति में लोग प्रात: भ्रमण के लिए कहां जाएं? एक सतासी वर्षीय सेवानिवृत्त प्रोफेसर ऐसी ही एक बस्ती में पत्नी के साथ अकेले रहते हैं।
इस उम्र में भी वे पूरी तरह स्वास्थ्य, चैतन्य और स्फूर्ति से भरे हुए हैं। आज भी दोपहिया वाहन और कार पूरी मुस्तैदी से चलाते हैं। उन्हें याद नहीं पड़ता कि कब वे सुबह भ्रमण के लिए नहीं गए। शहर में अपने घर पर हैं तो प्रात: भ्रमण की चूक नहीं होती। ठंड, गर्मी, बरसात- कोई भी मौसम उनके घूमने में आड़े नहीं आता। ठंड में आवश्यक गर्म कपड़े पहनकर और बरसात में छाता लेकर निकलते हैं।
इस तरह के लोग किसी को अपने आसपास भी मिल सकते हैं, जो नित्य सुबह चार बजे बिस्तर छोड़ देते हैं। पड़ोस के वे बुजुर्ग सुबह एक गिलास गुनगुना पानी पीते हैं। ताजा होने के बाद एक प्याला नींबू चाय पीते हैं और प्रात: भ्रमण के लिए निकल जाते हैं। उनके घर के आसपास न पार्क है, न हरियाली और न कोई मैदान। शहर के खाली रास्ते के किनारे-किनारे दूर तक पैदल निकल जाते हैं। वे इस दौरान मोबाइल के उपयोग से बचते हैं। न कोई संगीत, प्रवचन या भजन सुनते हैं और न ही किसी से बातचीत करते हैं। एक साक्षी भाव मन में रखते हैं।
आसपास जो है, उसे ऊपर बैठी परम सत्ता की अनुपम कृति मानने का अपना सुख है और आत्मसात कर लेना शांति की राह। जो है, जैसा है, अपना है। इस जीवन का हिस्सा है। चीजें, वस्तुएं, प्राकृतिक हों या फिर भौतिक, उसमें तिरोहित हो जाना जीवन को संपूर्णता में जीने का जरिया है। गौर से सुना जाए तो सुबह की नीरवता में भोर का संगीत सुनाई देने लगता है।
शुद्ध हवा के झोंके महसूस हो सकते हैं। पंछियों की आवाज अंदर उतरने लगती है। अपनी ही पदचाप हमें चेतावनी देती है। सूर्य की नरम किरणें रात के खुमार को धकेल देती हैं। ऐसे में जब लौटा जाए, तो मन आनंद की ऊर्जा से भरपूर रहता है। एक चाय का प्याला हाथ में लेकर अखबार या कोई पसंदीदा किताब पढ़ने का अपना सुख है। मोबाइल पर संदेशों का आदान-प्रदान सरोकारी होने का सूचक है। मन आया तो लिखने बैठ गए।
किसी भी व्यक्ति की ऐसी दिनचर्या प्रेरणादायक होती है। लंबा और स्वस्थ जीवन जीने की मिसाल है। हिंदी फिल्म ‘बूंद जो बन गई मोती’ में एक खूबसूरत गीत है, जो सुबह की खामोशी में प्रकृति के संगीत को महसूस कराता है- ‘हरी भरी वसुंधरा पर नीला नीला ये गगन, कि जिसपे बादलों की पालकी उड़ा रहा पवन। दिशाएं देखो रंग भरी, दिशाएं देखो रंग भरी चमक रहीं उमंग भरी। ये किसने फूल फूल से किया शृंगार है, ये कौन चित्रकार है…।’ यह उस दौर का गीत है, जब भरपूर प्राकृतिक नजारे हमारे आसपास थे।
आज शहरी इलाकों से प्रकृति लगभग पलायन कर चुकी है। आसपास बनावटी प्रकृति ने डेरा जमा लिया है। आधुनिकता, विज्ञान और विकास के भय से वह शहरों से दूर चली गई है। ऐसे में इस तरह के विचारों से संतोष मिलता है कि हमारे चारों ओर जो कुछ है, वह प्रकृति है। आसपास ही क्यों, हम स्वयं प्रकृति हैं। अगर हम अपने अंदर झांक सकें तो प्रकृति को ही पाएंगे। मानव इस विराट प्रकृति का हिस्सा है। बस सुबह के संगीत को महसूस करें। इसका आनंद अप्रतिम है।