आम बातचीत में एक अदना वाक्य पता नहीं कब से सूत्रवाक्यों की सूची में शीर्ष स्थान पर आसीन है कि ‘पैसे से सुख नहीं खरीदा जा सकता’। इस वाक्य की सर्वव्यापकता इतनी प्रबल है कि गांव की गलियों से लेकर शहर के सभागारों तक, हर कोने में इसकी गूंज सुनाई देती है। अगर इसे महज जीवन-दर्शन मानकर अनदेखा कर दिया जाए, तो वह यथार्थ अनछुआ छूट जाता है जो इसे गढ़ने वालों की मंशा में छिपा है। यह वाक्यांश जीवन जीने के सलीके से बढ़कर एक चमचमाता चश्मा है, जिसे सदियों से वंचित वर्ग की आंखों पर चढ़ाया जाता रहा है।

इस चश्मे की ऐसी जादुई खूबी कि इसे पहन गरीबी अभिशाप की जगह उच्चतर जीवन-पद्धति दिखा देती है। मगर गौर से देखा जाए तो पैसे और सुख का वाक्यांश दरअसल दर्शन से अधिक एक रणनीति नजर आएगा। संवेदनाओं को स्थगित करने की कुनीति, जो कहती है कि भौतिक समृद्धि की चाह वास्तव में दुखों का कारण है, न कि समाधान।

मुस्कुराते बच्चों के साथ तस्वीर साझा करना बड़ा काम

इस विचारधारा का सबसे अधिक प्रचार-प्रसार उस वर्ग द्वारा किया गया है जो ऐश्वर्य के शिखर पर बैठा है। आज के डिजिटल युग में यह और भी सुसंगठित रूप ले चुका है। सोशल मीडिया पर एक अरबपति पर्यटन ब्लाग लेखक अफ्रीका के किसी दूरस्थ गांव में मुस्कुराते बच्चों के साथ तस्वीर साझा करता है और तस्वीर के साथ लिखता है: ‘देखिए, खुशी पैसों की मोहताज नहीं’। उस लेखक के कैमरे की कीमत शायद उस गांव के पूरे साल के बजट से अधिक हो।

कोई प्रसिद्ध फोटोग्राफर, भारत या बांग्लादेश की गलियों में खेलने वाले नंगे पांव बच्चों की तस्वीर खींचता है और लिखता है: ‘सच्चा सुख सादगी में मिलता है’, पर वह यह नहीं दर्शाता कि उन बच्चों की मुस्कान के पीछे कितनी भूख, कितनी अधूरी नींद और कितनी बीमारियां छिपी हैं। वे बच्चे इलाज, शिक्षा और सुरक्षा से वंचित हैं। उनकी मुस्कान विकल्पहीनता का प्रतीक है।

ऐसे दृश्य उपहास के साथ सूक्ष्म हिंसा भी दर्शाते हैं, जिसके बूते गरीबी को सौंदर्यशास्त्र में बदल दिया जाता है। जब कोई अमीर व्यक्ति गरीब की मुस्कान को आदर्श बनाकर यह कहता है कि ‘खुशी साधनों में नहीं होती’, तो वह दरअसल अपनी संपन्नता की नैतिक जवाबदेही से बचता है। वह उस असमानता को प्राकृतिक सिद्ध करने की कोशिश करता है, जो वास्तव में मानव निर्मित है। इसी मानसिकता का प्रसार मुख्यधारा की फिल्मों और विज्ञापनों में भी होता है।

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एक विज्ञापन में दादा अपने पोते के लिए चाकलेट नहीं खरीद पाता और उसकी जगह पेड़ से आम तोड़ लाता है। दर्शक भाव विह्वल हो जाते हैं, मानो सादगी और प्रेम ने पूंजी की आवश्यकता को पराजित कर दिया हो। पर सच्चाई यह है कि वह आम ‘विकल्प’ नहीं था, वह ‘अभाव’ का प्रतीक था। यह दृश्य अनजाने में उस गरीबी को गौरवशाली बना देता है, जिससे असंख्य लोग हर दिन जूझते हैं।

ऐसे ही आदर्शों की नींव पर हमारी शिक्षा प्रणाली टिकी हुई है। बच्चों को सिखाया जाता है कि ‘जो अधिक चाहता है, वह दुखी रहता है।’ स्कूल की किताबों में एक भाई ईमानदार गरीब होता है और दूसरा लालची अमीर। गरीब भाई को आखिर ‘सच्चा सुख’ मिल जाता है। ऐसे उदाहरणों से यह भाव धीरे-धीरे रोप दिया जाता है कि गरीबी एक नैतिक श्रेष्ठता है। परिणामस्वरूप, गरीब वर्ग अपनी दयनीय स्थिति को आत्मगौरव में बदलने लगता है, जबकि व्यवस्था अपने पापों को पुण्य में परिवर्तित कर देती है।

वास्तविक दुनिया में यह ‘साधुता का सिद्धांत’ तब टूटता है, जब आंकड़े सामने आते हैं। विश्व बैंक के अनुसार, हर साल लाखों लोग केवल इसीलिए मरते हैं, क्योंकि उन्हें समय पर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं होतीं। यूनिसेफ की रपट बताती है कि जिन बच्चों को शिक्षा नहीं मिलती, वे सामाजिक गतिशीलता के दायरे से बाहर रह जाते हैं। अगर पैसा सुख नहीं देता, तो फिर अमीर अपने बच्चों को लाखों रुपए की फीस वाले स्कूलों में क्यों भेजते हैं?

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अगर धन निरर्थक है, तो स्वास्थ्य बीमा और निजी अस्पतालों की दौड़ क्यों? वह व्यक्ति जो रोज बारह घंटे मेहनत करता है और फिर भी अपने बच्चे के लिए दूध नहीं खरीद पाता, उसके लिए यह कथन कि ‘पैसे से सुख नहीं खरीदा जा सकता’, एक ताना लगता है। यह कहावत उस व्यवस्था का हिस्सा बन जाती है जो असमानता को आदर्श के रूप में प्रस्तुत करती है। अन्याय की सड़ांध ढंकने के लिए बुनी गई कुतर्क की मोटी चटाई।

गरीब की चेतना को पूरी शिद्दत से यह घुट्टी पिलाई जाती है कि उनका संघर्ष दरअसल कोई दोष नहीं, जीवन की सुंदरता है। यही वह बिंदु है जहां दर्शन, शोषण में परिवर्तित हो जाता है। हमें यह पहचानना होगा कि सुख की बुनियाद केवल भीतर नहीं होती, वह बाहर की दुनिया से भी आकार लेती है। रोटी, इलाज, शिक्षा और सम्मान से। बिना इन आधारों के ‘सुख’ का कोई भी दावा केवल एक भ्रम है, जिसे बार-बार इसलिए भी दोहराया जाता है, ताकि व्यवस्था बदलने का कोई स्वप्न जन्म ही न ले।

पैसे और सुख के कथन की व्याख्या इस तरह होनी चाहिए कि अत्यधिक धन का अंधाधुंध संचय एक सीमा के बाद हमारे सुख में कोई विशेष वृद्धि नहीं करता। कभी-कभी मानसिक शांति को भी क्षीण करता है। इसका यह आशय कतई नहीं कि गरीब लोगों को अपनी मूलभूत आवश्यकताओं या आर्थिक सुरक्षा के अभाव में भी संतोष करना चाहिए। मसला यह नहीं कि पैसा सब कुछ है या नहीं, यह कि क्या किसी इंसान को सम्मानपूर्वक जीने के लिए जरूरी साधनों से वंचित रखना नैतिक है? सुख का अधिकार हर व्यक्ति को है और उसके लिए न्यूनतम आर्थिक स्थिरता एक अनिवार्य शर्त है।