सामाजिक जनजीवन में धन की शाश्वत महत्ता से कोई इनकार नहीं कर सकता। धन प्राप्ति के प्रति आसक्ति भाव आमतौर पर मानव मात्र को प्रबल क्षमता के प्रदर्शन के प्रति प्रेरित करता है। अनिवार्य, सुविधाजनक और विलासिता पूर्ण आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए धन में अंतर्निहित क्रयशक्ति का संचय आज के दौर की प्रथम आवश्यकता बन गई है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इस नाते पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए धन जीवन जीने का आधार है। मगर यह एक स्थापित तथ्य है कि आखिर मनुष्य के लिए कितनी मात्रा में धन का होना आवश्यक होता है? इसका खुलासा आज तक कहीं नहीं किया गया है। संसार में आना और जाना खाली हाथ हुआ करता है, यह दर्शन तो दुनिया के हर कोने में सुनने को मिल जाएगा। इसके बावजूद संग्रह वृत्ति से नाता मृत्युपर्यंत बना रहता है।
बाजार छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी वस्तुओं से पटे पड़े हैं
वर्तमान दौर में उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते धन की महत्ता और अधिक बढ़ी हुई नजर आती है। हर तरफ के सभी बाजार छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी वस्तुओं से पटे पड़े हैं। मनुष्य अपनी इच्छाओं को चाहते हुए भी पूर्ण करने में स्वयं को असमर्थ पा रहा है। एक अजीब तरह की प्रतियोगिता चल पड़ी है, जिसके सहभागी आप और हम बने हुए हैं। पत्र-पत्रिकाओं और विभिन्न चैनलों पर अनवरत रूप से आते हुए प्रचार जन-जन को आकर्षित कर रहे हैं। मानवीय आवश्यकताओं का कोई ओर-छोर नजर नहीं आता। एक आवश्यकता की पूर्ति अनेक आवश्यकताओं का सृजन कर रही है। हालांकि गौर किया जाए तो ऐसी बहुत सारी आवश्यकताएं गैरआवश्यक ही साबित होंगी। प्रत्येक घर परिवार में हर एक सदस्य की अभिलाषाओं में निरंतर विस्तार हो रहा है। सामाजिक परिवेश में एक अजीब-सी प्रतिस्पर्धा का वातावरण है, जिसमें उपभोग वृत्ति उत्तरोत्तर रूप से बढ़ती ही जा रही है।
घर-घर की कहानी है कि कोई कितना भी कमा ले, कम है
धन की भूख और उसे हासिल करने की होड़ इस कदर बढ़ गई है कि वह अब पेट भरने पर भी पूरी नहीं होती। घर-घर की कहानी यह है कि कोई कितना भी कमा ले, आखिर कम पड़ता है। और… और… और की चाहत लोगों को कहीं भी चैन नहीं लेने दे रही है। इन परिस्थितियों के बीच जीवन जीने के समुचित और वास्तविक आनंद से हर कोई वंचित हो रहा है। आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन के सार-तत्त्व को चिह्नित करते हुए कोई अपने आप को वास्तविक स्वरूप में स्वीकारने के लिए कतई तैयार नहीं है।
जीने को जैसे-तैसे सभी जी रहे हैं, लेकिन अपने वर्तमान जीवन से वास्तव में संतुष्ट आखिर कितने है? दरअसल, चाहत का अंतहीन सिलसिला हमें यंत्रवत रूप से चलायमान बनाए हुए हैं। इसमें हम अपनी जरूरतों को परिभाषित भी कर पाने में सक्षम नहीं रहे हैं। बाजार और सामने हो रही गतिविधियां हमारी जरूरतों को तय कर रही हैं। गैरजरूरी चीजों को हमारे लिए जरूरी बना रही हैं। अर्थशास्त्र में मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है और आर्थिक क्रियाएं ही अपने और अपने परिवार के जीवनयापन का आधार हुआ करती है। इस दृष्टि से मनुष्य के अनार्थिक होकर रह जाने का कोई अर्थ ही नहीं होता। यानी अनार्थिक हो जाना जीवन रण-संग्राम से मुंह मोड़ना है।
दृष्टांत छोटे दिए जाएं या बड़े, लेकिन एक बात अकाट्य रूप से कही जा सकती है कि जब आर्थिक जगत के महारथी भी अब तक अपना पेट नहीं भर पाए, तो भला आप और हम किस मुकाम पर आकर रुके हैं! सच यह है कि अंतहीन आवश्यकताओं को हमें ही एक सीमा पर आकर विराम देने की जरूरत है। अपने लिए जरूरी चीजों की पहचान करने की जरूरत है। जीवन में संतुष्टिपूर्वक सुकून पाने का एकमात्र आधार अपनी जरूरतों को निरंतर कम करते चले जाना है। धर्म ग्रंथों में सुखी जीवन के आधार का मार्ग प्रशस्त किया गया है। शास्त्रों के अनुसार अपनी इंद्रियों को वश में करते हुए हम सुकून भरे जीवन का आनंद ले सकते हैं। अगर हम जो हैं, उसमें संतुष्ट रहने का मंत्र आत्मसात कर ले, तो निश्चित ही अनावश्यक तनावों से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।
इसका अर्थ यह नहीं कि हम क्षमताओं के प्रति समर्पित न रहें, बल्कि आशय यह है कि हम प्रबल क्षमताओं के सकारात्मक हासिल का अनुक्रम जारी रखें। इससे अर्जित धन को परमार्थ में विनियोजित करते हुए अखंड आनंद की उस दिव्य अनुभूति से रूबरू हो, जो वास्तविक आनंद से हमें रूबरू कराती है। आध्यात्मिक दृष्टि से इहलोक तथा परलोक संवारने की दिशा में असीम आत्मीय आनंद की अनुभूति का यह कारक तत्त्व है। भारतीय दर्शन मानव मात्र के कल्याण की कामना करते हुए मनुष्य मात्र को परमार्थ के प्रति अभिप्रेरित करता रहा है। इन संदर्भों में बेहतर होगा अगर हम अपनी आवश्यकताओं को नियंत्रित करते हुए आत्मीय आनंद की दिव्य अनुभूति करने के प्रति तत्पर रहें।
दरअसल, आत्मिक आनंद में डूब कर ही जिंदगी का रसास्वादन किया जा सकता है। ऐसे आनंद की प्राप्ति के लिए धन का कोई महत्त्व कहीं से कहीं तक निकल कर नहीं आता। व्यवहार में देखा गया है कि जिनके पास धन की प्रचुरता होती है, वे भी अन्यान्य कारणों के चलते दुख का भी अनुभव किया करते हैं। लौकिक व्यवहार में यह भी देखा गया है कि जिनके पास खाने को है, उनके पास दांत नहीं है और जिनके पास दांत हैं, उनके पास खाने को नहीं है। जीवन में अनिवार्य तथा आरामदायक आवश्यकताओं की आपूर्ति में ही धन का महत्त्व निकल कर आता है, लेकिन जहां तक जीवन में संपूर्ण संतुष्टि का सवाल है, तो इसमें धन का कोई महत्त्व नहीं है।