राजेंद्र मोहन शर्मा
अर्जुन का रथ जब कौरवों और पांडवों के बीच सारथी कृष्ण ने ले जाकर रोका, उस समय अर्जुन का द्वंद्व चरम पर था। जब हमारे इर्दगिर्द शंकाओं के अनंत शूल-मोह के धागों से उलझ कर लहराते हैं, तब हम भी भारी द्वंद्व से घिर जाते हैं। यही द्वंद्व ढलती रात है। तनिक भी धैर्य का आसरा है अगर तो प्राची की उषा झांकती दिखाई दे जाएगी, लेकिन इसके लिए रात के बीतने और काले-पीले सपनों से बाहर आकर प्रतीक्षा के द्वार तो खटकाने ही होंगे।
दिन-रात किसी को कोसने की जगह अपने होठों की उस लाली को महसूस करने की जरूरत है जो झलकाती है प्यार और मांगती है किसी की दुआ। जरा-सा सहजता का बाना पहनते ही गौर पीत सुवर्ण मुंह से हटा कर अवगुंठन खड़ी दिखाई पड़ती है भोर की अरुणिमा। यही है वह माधुरी जो रूप का शृंगार कर अभिसारिका-सी पुकार रही है हर किसी अर्जुन को विवेक के रथ पर आरूढ़ होकर वरण करने को। मगर जब भय से मन आक्रांत हो, आकुल-व्याकुल हो मोह, लोभ का करुण प्रलाप चल रहा हो, तब कहां किसी को पीत पर्दे में दिखाई देती हैं अरुण किरणें।
मन के गगन में और जीवन के उपवन में ऊषा मनुहार करके उतरने को अकुला रही है, पर उसे कायदे से जगह तो दिया जाए। मलय का मंथर पवन अविराम गंध पराग लेकर बावरा खोजता फिर रहा है नाभि की कस्तूरी को। हम हैं कि बावले से होकर ढूंढ़ते फिर रहे हैं न जाने कौन से पुलकित प्यार को।
प्रकृति की यही कृति मनोहर है, जो हमारे साए से लिपटी है और यही प्यार का आधार बनाती है। यों भी प्रेम के भावों को जीवंत महसूस करने के लिए हमेशा प्रकृति के जीवन को ही उद्धरण के रूप में जाना-समझा गया है। प्रकृति जीवन देती है, तो यह भी उतना ही सच है कि उस जीवन को महसूस प्रेम के भाव के सहारे ही किया जा सकता है।
जब प्रकृति के किसी दृश्य को निहारते हुए हम मुग्ध होते हैं, तो वह प्रेम का ही एक रूपक होता है। प्रकृति हमारे भीतर उतरती है और हम नदी या हवा की तरह प्रकृति की संवेदनाओं को जीते हैं। पर हमारा समय तो लौकिक तुच्छताओं से सड़ा जा रहा है। व्यक्त व्यवहार को छोड़ कर अव्यक्त के पीछे भाग रहे हैं। मूर्त और साक्षात के जीवन के बजाय हम अमूर्तन के पीछे खुद को झोंक देते हैं, बिना इसका आकलन किए कि इससे हम कितना और क्या हासिल कर पाते हैं।
हमारे इर्दगिर्द ब्रह्म बेला का अलौकिक प्रेम का संचारण कर रहा है, उसे अंत:स्थल की अनंत गहराइयों से गूंथने और अनुभूत करके देखने की जरूरत है। हमारे निकट सटकर चल रही माया अनूठी सहचरी है। यह कबीर को ठगने का दुस्साहस कर सकती है तो हम क्या हैं!
फूल से मकरंद लेकर घूमती वह मधुकरी है।
प्रभात में खड़ी बाहर सुघड़ प्राची की सुहागिन-सी लुभाती है सभी को, लेकिन भीतर ही जगमगाता हृदय का खुला हुआ आंगन। किसी का सामर्थ्य छोड़ पाना उसी अंश को और अंशी को क्या! हमें समझना होगा जीव का परमात्मा से योग क्या है और मधुर वियोग क्या है। दरअसल, यह अनुराग और विराग का संगम है, जो श्वेत श्यामल है। प्रेम है लौकिक।
इसी मार्ग से बढ़ कर अलौकिक जानने की विधा ही निर्द्वंद्व है। द्वंद्व ‘संसृति’ में भरा है। प्रेम क्या है? श्रेय क्या है? कठिन है समझना। जो श्रेय भरा होता है, वह प्रेय नहीं लगता और प्रेयपूर्ण लगता है, वही श्रेयस्कर कहां हुआ जाता है! दूर तक जब फैलती है नजर तब कम से कम दिखता है, लेकिन जब दृढ़ता से दम साधकर लक्ष्य पर ही देखने पर संकल्प आपूरित हो, तब इष्ट अपना दिखता ही है, फिर वह चाहे कितना ही दूर हो। रूप का शृंगार बाहर है हृदय अभिराम भीतर है।
देखने की दृष्टि केवल जानना है। किसे, जो अगोचर है। गोचर तो सभी देख रहे हैं। कृष्ण ने गीता का विवेचन किया था युद्ध के ही द्वंद्व स्थल पर। ज्ञान की यह समीक्षा पांडवों ने शत्रु दल के समक्ष खड़े होकर सुनी। शत्रु भी सहम कर सुनते रहे। जब-जब भीतर या बाहर हो कोई भी द्वंद्व तो भागिए मत, द्वंद्व तो चलता रहेगा। हम करें सामना निर्द्वंद्व होकर। साधना उसकी करें हम प्यार ही में द्वंद्व खोकर।
मानसिक विकार सिवाय दुख और अंधकार के कहीं भी नहीं ले जाता है। जिस दिन कर्म कामना से मुक्त होता है, परलोक की कामना से भी, स्वर्ग की कामना से भी जिस दिन कर्म शुद्ध होता है, जिसमें कोई चाह की जरा भी अशुद्धि नहीं होती, उस दिन ही कर्म निष्काम है और निर्द्वंद्व योग बन जाता है।
ऐसा कर्म स्वयं में मुक्ति है। वैसे कर्म के लिए किसी मोक्ष की आगे कोई जरूरत ही कहां शेष रह जाती है। वैसे भी कर्म का कोई मोक्ष या भविष्य तो होता नहीं है। इसीलिए समझिए कि कर्म ‘अभी और यहीं’ में ही मुक्ति निहित है। कृष्ण के संदेश की बुनियाद में वह बात छिपी है। क्या कर्म हो सकता है बिना कामना के? क्या बिना चाह के हम कुछ कर सकते हैं? तो फिर प्रेरणा कहां से उपलब्ध होगी? वह स्रोत कहां से आएगा? वह शक्ति कहां से आएगी, जो हमें खींचे और कर्म में संयुक्त करे?
वास्तव में जिस जगत में हम जीते हैं और जिन कर्मों के जाल से हम अब तक परिचित रहे हैं, उसमें शायद ही एकाध ऐसा कर्म हो, जो बिना कामना के हो। अगर कभी ऐसा कोई कर्म भी दिखाई पड़ता हो, जो बिना इरादा के मालूम होता है, जिसमें आगे कोई लक्ष्य, जिसमें आगे कोई पाने की आकांक्षा नहीं होती, उसमें भी थोड़ा भीतर खोजेंगे, वहां भी कुछ हित आकांक्षा तो मिल ही जाएगी। तो बस इतना समझ लिया जाए कि कर्म ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ किया गया कर्म ही निर्द्वंद्व होने की पहचान है।