मानव सभ्यता में शुरू से ही नदियों का महत्त्व रहा है। नदियों का जल मूल प्राकृतिक संसाधन और मानव जीवन के लिए बेहद आवश्यक है। चारों ओर सूखी रेत, गंदगी का जमाव, जल प्रवाह में कमी, विकास के नाम पर अतार्किक हस्तक्षेप, औद्योगिक कचरे का निष्कासन, गंदे पानी का निकास आदि गंगा के लिए बुरे संकेत हैं। किसी-किसी स्थान पर पानी इतना कम हो चुका है कि लोग आसानी से चल कर भी नदी पार कर लेते हैं।
डाल्फिन नदियों की स्वच्छता का प्रतीक होती हैं
कहीं-कहीं तो गंगा की गहराई अब दस फुट भी नहीं रही है, जबकि मछलियों और डाल्फिनों को गंगा में रहने के लिए कम से कम बारह से अठारह फुट गहरे पानी की आवश्यकता होती है। किसी भी नदी में डाल्फिन उस नदी की स्वच्छता का प्रतीक होती है और यह अब गंगा नदी में कम होती जा रही है। पर क्या वास्तव में हम चिंतित हैं गंगा को बचाने के लिए, जिसके आचमन मात्र से हम खुद को शुद्ध मान लेते हैं।
चिंता करना, उसके बारे में बातें करना, उस पर तमाम सरकारी परियोजनाएं बनाना अलग बात है और ईमानदार प्रयास अलग बात है। भारत में गंगा समेत अन्य नदियों को प्रदूषण से मुक्त बनाने के लिए राष्ट्रीय नदी संरक्षण और ‘रिवर फ्रंट डेवलपमेंट’ जैसी योजनाएं चलाई जा रही हैं। गंगा नदी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से देश की तिरपन करोड़ से अधिक आबादी को प्रभावित करती है। इसलिए विभिन्न सरकारों द्वारा गंगा को स्वच्छ बनाने के लिए कई बड़ी और महत्त्वाकांक्षी योजनाओं की शुरुआत की गई। अब ‘नमामि गंगे’ परियोजना को भी शुरू हुए दस वर्ष पूरे हो चुके हैं। इसलिए देशवासियों को यह जानने का अधिकार है कि ऐसी परियोजनाओं का परिणाम क्या है। इस तरह की परियोजनाएं जितने दिखावे और शोर के साथ शुरू होती हैं, उनका क्रियान्वयन न तो उतना आसान होता है और न ही उतनी गति पकड़ पाता है।
गंगा या अन्य नदियों के किनारे सुंदर घाट बनाकर, सुंदर तरीके से उनकी आरती करने और देखने की व्यवस्था करना एक धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम हो सकता है, जिसका अब अपना व्यावसायिक महत्त्व भी है, पर यह नदियों की स्वच्छता और अविरलता को लेकर कितनी अलख जगा सकेगा, यह सोचने वाली बात है। गंगा समेत सभी बड़ी नदियों की सहायक नदियों को भी पुनर्जीवित करना और उन्हें साफ रखने के महत्त्व को समझना होगा। हजारों करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद गंगा के स्वच्छ होने और अविरल बहने वाली बातें अभी दूर की कौड़ी हैं। जिस वाराणसी के घाट और वहां मृत्यु होने पर मोक्ष प्राप्ति की बात कही जाती है, उसी वाराणसी में गंगा थकी हुई-सी चलती है। ऐसे में यमुना नदी की बात करना तो बेमानी है। इस नदी का अधिकांश हिस्सा स्नान करने लायक भी नहीं है।
नदियां अपने-अपने क्षेत्रों की लोक कथाओं, लोक संस्कृतियों, रचनाओं का प्रेरणा सूत्र होती हैं। इन नदियों ने अनेक दार्शनिकों को अपनी ओर आकर्षित किया है। एक नदी में जीवन और मृत्यु, सृजन और विनाश का चक्र निरंतर चलता रहता है। जब किसी भी नदी को बचाने और संवारने के लिए किसी भी परियोजना को लागू किया जाता है तो नदी के साथ-साथ उसका मानव समाज के साथ संबंधों को समझने की भी कोशिश करना आवश्यक है। जलवायु परिवर्तन से जुड़ी एक रपट में कहा गया है कि गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र सहित दक्षिण एशिया की प्रमुख नदी घाटियों पर जलवायु परिवर्तन का खतरनाक प्रभाव दिखाई दे रहा है। मानवजनित गतिविधियों और जलवायु के स्वरूप में बदलाव होने के कारण उसके आसपास के इलाकों के लगभग एक अरब लोगों के लिए गंभीर नतीजों की चेतावनी दी गई है। रपट बताती है कि तीन नदियों गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र पर, नदी बेसिन प्रबंधन के लिए लचीले नजरिए को अपनाने की तत्काल आवश्यकता है।
नदियों का खत्म होते जाना न केवल खेती योग्य उर्वरा भूमि को खत्म करेगा, बल्कि नदी किनारे बसी सभ्यताओं के सांस्कृतिक नुकसान का भी कारण बनेगा। देश की तमाम नदियों में आक्सीजन का स्तर खतरनाक रूप से कम हो चला है, जिसके कारण जैव विविधता को बनाए रखना लगभग असंभव हो गया है। अगर इनको बचाना है तो सबसे पहले अपने लक्ष्य को परिभाषित करना होगा, पर्यावरणीय सेवाओं, जैव विविधता, आर्थिक सेवाओं को बनाए रखना होगा। नदियों से हमें मिलने वाली सामाजिक, धार्मिक सेवाओं को भी ध्यान रखना होगा। यह समझना भी आवश्यक है कि हम अपनी आस्था और मान्यताओं के अनुसार शवों, मूर्तियों और फूलों को नदियों में विशेष रूप से गंगा जैसी धार्मिक महत्त्व वाली नदियों में विसर्जित करते हैं, जिनसे नदियों का जल प्रदूषित होता है।
हमारे देश में नदियों ही नहीं, झीलों और तालाबों जैसे अन्य जलस्रोतों की स्थिति भी अत्यंत दयनीय है। बढ़ते शहरीकरण, नदी किनारे स्थित उद्योगों के प्रदूषण और अपरिष्कृत कचरे को नदियों में डालने से प्रदूषण का स्तर बढ़ता जा रहा है। तेजी से हो रही जनसंख्या वृद्धि ने घरेलू, औद्योगिक और कृषि के क्षेत्र में नदियों के जल की मांग बढ़ा दी है, जिसके कारण नदियों से अधिकाधिक जल निकाला जाने लगा है। यह जानी हुई बात है कि इससे इनका आयतन घटता जाता है और गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। नदियों को स्वच्छ बनाने के लिए सरकार द्वारा भले ही कितने ही कदम उठाए जाएं, लेकिन अगर हम स्वयं जागरूक नहीं होंगे और अपने स्तर पर उन्हें स्वच्छ रखने में कोई पहल नहीं करेंगे तब तक ये नदियां कभी भी पूरी तरह से स्वच्छ नहीं हो पाएंगी। अगर नदियां मर गईं तो पृथ्वी पर जीवन का निर्वाह करना मुश्किल हो जाएगा।