हम मेज पर सामने रखी किसी पुरानी तस्वीर के सामने से रोज गुजरते हैं, लेकिन उसे निहारते कितना हैं? घर के कोने में लगी तस्वीरें किसी श्रृंखला में नहीं होतीं, लेकिन स्मृतियों की एक श्रृंखला होती है, जिसे उसी क्रम में हम स्पर्श करते हैं जो उन तस्वीरों से जुड़ी होती है। स्मृतियों को स्पर्श करना ईश्वर को स्पर्श करने जैसा कुछ है।

‘ईश्वर’ इतना स्थूल भी नहीं कि उसे तुरंत छूकर देख लिया जाए। बिना स्पर्श के कोई विश्वास जरूर भीतर रहता है। कुछ बुनियादी अनुभव बिना स्पर्श के ही जीवन के संकेत देते हैं। कभी-कभी दूर से दिखने वाले असुंदर कठोर यथार्थ को भी सुंदर और मर्मस्पर्शी बनाती है अंतरानुभूति। स्मृतियों से संवाद भीतर का मसला है, लेकिन व्यक्ति बाहर भी भाष्य करता है बिना स्मृतियों के अक्सर।

व्यक्ति ज्ञान की बातें करता है अक्सर बिना मांगे, लेकिन जब हम अपनी अल्पज्ञता की बात करते हैं तो ज्ञान विमुखता की बात नहीं करते। ज्ञान का अपना आनंद होता है, जैसे पर्यटन का होता है। हमें कहीं पहुंचना होता है तो पर्यटक की तरह भटकते हुए नहीं चलते, न विश्व के भूगोल को याद करते हैं। अपने आप को मापने और नापने दोनों के लिए कभी-कभी सड़क के किनारे सुनसान दुपहरी में घने पेड़ के नीचे बैठ लेना चाहिए।

एक अलग आचार-विचार और व्यवहार जीवन में उस क्षण उतरेगा। या तो स्मृतियां ताजा होंगी या नई बनेंगी। जो भी होगा, केवल सुखद होगा। अगर उसका कोई अन्य विकल्प मौजूद न हो। अगर हम किसी दुर्लभ सच्चाई की खोज में निकले हैं तो वह केवल हमारे भीतर ही है बंटी हुई, बिखरी हुई, बिसरी हुई भी।

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दरअसल, हम सबसे सीधा रास्ता और सबसे सुविधाजनक साधन का चुनाव करते हैं। इसलिए बहुत कुछ नहीं देख पाते। किसी गांव के घर का टूटता दरवाजा, एक लंबा जीवन जी चुकने के बाद धीमे-धीमे खंडहर में बदलता हुआ घर भी असुंदर से सुंदर लगता है, स्मृतियों में। बिखरता हुआ जीवन, घर के बाहर दिखाए दृश्य से भिन्न नहीं होता, लेकिन हम उसे सतही देखकर आगे निकल जाते हैं… बहुत आगे। कभी-कभी इतना आगे कि हम भूल जाते हैं कि कभी वह हमारा अंत:स्थल था।

नई जगहें, नया प्रभाव आकर्षक होता है, लेकिन वह बसता पुरानी नींव पर ही है। नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के मस्तक पर बनी रेखाओं में घुमावदार नजर आती है। हमें सोचना होगा कि अपने समय का नेपथ्य क्या है। कहने का अर्थ यह कि हमारी स्मृतियां तात्कालिकता से परे रहकर भी कुछ ग्रहण कर पाती हैं। हम केवल जीवन की चमत्कारिक घटना में जीना चाहते हैं। हम किसी मौन के द्वीप पर कभी नहीं लौटते।

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सच यह है कि हम कभी इस बात की कल्पना नहीं करना चाहते कि कभी हमारी ‘वह’ जगह खाली भी हो सकती है। कभी यह भी कि कोई बच्चा बड़ों के बीच खुद को पाकर कितना अजनबी महसूस कर सकता है। हम भूल जाते हैं ऐसी बातें। जबकि हमें याद रखना होता है कि हर बीतने वाला महज एक क्षण था, जिसका अस्तित्व नष्ट हो जाना है। सवाल है कि हम कहानियों के रूपक की तरह हमेशा चमत्कारिक किरदार ही क्यों जीना चाहते हैं। ऐसे किरदार दरअसल में समय की रेखाओं से लदे रहते हैं, लेकिन किस्सों में अगर रहस्य है, तभी वे बांधे रखते हैं। एक उड़ते हुए पंछी की हर एक मुद्रा को एक जैसे रूप में सहेज पाना बहुत मुश्किल है।

हर मुद्रा नई, अलग, किसी अलग से रहस्य को भेदने के यत्न-सी। उड़ते हुए उसकी अलग-अलग भाव भंगिमाएं होती है। हर घटना पिछली घटना से नई है। मनुष्य एक पीड़ित विडंबना में अपनी नियति गढ़ता है। वह छोटे-छोटे ठिठुरते सुखों में अपनी स्वतंत्रता तलाशता है, समय की सीमाओं के लगातार अतिक्रमण के बावजूद। वह अपने भीतर कुछ पाता है (भले ही तलाश पूरी न होने की हद तक नहीं)। वह इस भ्रम में जीता है कि जो अब हो रहा, पहले कभी न हुआ।

हमारा यथार्थ जब तक उथला और सतही बना रहेगा, हम भटकते रहेंगे। हमारी तलाश कभी खत्म नहीं होगी। कोई प्रवाह हमें कुंठित करेगा, कोई संकुचित जीवन एकांगी होकर अवमूल्यित होगा। ऐसे में अभ्यस्त होना होगा अंधेरे के उजालों से स्मृतियों के संवाद में। हमें यह भी देखना है कि भावनाओं के किस जलाशय में हम अपनी प्यास बुझा पाते हैं। वह काल्पनिक न हो, सतही यथार्थ तो कतई नहीं।

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दरअसल, हम सबने अपनी-अपनी वैकल्पिक दुनिया रच ली छोटे-छोटे घोंसलों में, लेकिन घोंसले बनाकर हम भूल गए कि कब, कहां, क्यों रचा था यह संसार। जीवन जीने की आशा रखने वाला व्यक्ति मरुस्थल को भी थोड़ा सराहनीय बना सकता है। कभी-कभी घर से निर्वासित होने की स्थिति व्यक्ति को कुछ सराहनीय कार्य करने के अवसर भी देती है।

संदेहों की सघनता से मुक्ति का एक मार्ग यह भी है कि अपने विपरीत घेरे में चले जाना, उसे जीना। सबसे मूल बात है कि भीतर का संशय ही उन्माद है। हमने कभी अंधेरे की आदत नहीं बनाई। अंधेरे में खड़े होकर उजाले को निहारने का सुख नहीं लिया, लेकिन एक लेखक बिना बिजली के अच्छा लेखन कर सकता है, क्योंकि वह सृजनशील है।

कोई भी सृजनशील व्यक्ति एक ही सांचे में लगातार बने नहीं रह सकता। उसके भीतर की दुनिया उसके स्वराघात बदलती रहती है। अंधेरे और उजालों का सेतु वह बुनता है। हमारा भविष्य किसी काल्पनिक यूटोपिया में स्थिर नहीं है, वह मनुष्य के उस अवशेष का हिस्सा है जो व्यक्ति मृत्यु के बाद छोड़ जाता है।