ट्विंकल तोमर सिंह
जीवन की रेलगाड़ी इतनी तेज भागती है कि हम खिड़की से बाहर दिखते दृश्यों को देखने में अति व्यस्त रहते हैं। इसे ‘व्यस्त रहना’ कहना भी ठीक नहीं होगा। इसे किसी मेले की ‘चहल-पहल में खो जाना’ कहना उचित होगा। बाहर दिखते दृश्य मन के तंतु से जुड़े होते हैं। हम जो सोचना चाहते हैं, वह नहीं सोचते, जो हमारा वातावरण हमें सोचने पर मजबूर कर देता है, हम वह सोचते हैं। जैसे कि मन किसी एक अदृश्य डोर के जरिए किन्हीं अज्ञात शक्तियों के हाथ पतंग बना उड़ रहा हो। लगता है ये उड़ान अपनी है, पर जो चाहे ढील दे दे, जो चाहे डोर खींच ले।
कोई आया और भली-बुरी बात कह गया। हम बैठ गए परत-दर-परत उधेड़ने। या तो सोचने लगे कि उसने ऐसा क्यों कहा, या पछताने लगे कि उसे ये जवाब क्यों न दिया। कोई आया प्रेम प्रकट कर गया। हम खो गए ‘आक्सिटोसिन’ (प्रेम हार्मोन) की एक खुराक लेकर। जैसे लगता है कि कोई सुखद लोक में ले जाने वाली दवा हो। बैंक से संदेश आया कि आपकी महीने की किस्त बाकी है, हम सोचने लगे महीने के खर्चों को व्यवस्थित करने में।
उसे व्यवस्थित करने में कोई बुराई नहीं है, पर जो मन अस्त-व्यस्त हो चला, उसका क्या? सोशल मीडिया पर जिससे कोई मतलब नहीं, वह बिना संदर्भ के भी कोई बात लिख रहा है और हमारा खून खौल रहा है। हमारे आसपास के लोगों के द्वारा पीछे की गई चुगलियां खमीर की तरह मन में फूल रही हैं। कार्यस्थल पर कही गई या अनकही बात, सबको लेकर हम बचाव की मुद्रा में हैं, मन में मनन चल रहा है कि जाने अगला क्या सोच रहा होगा। मन हमारा, मन का हर सुख हमारा, पर लगाम दूसरों के हाथों में? ऐसा क्यों?
हम घर सजाते हैं, शरीर सजाते हैं, जीवन भी कुछ हद तक सजाने की कोशिश करते हैं, बस नहीं सजा पाते तो अपना मन। सब कुछ वहां अस्त-व्यस्त पड़ा है। क्यों नहीं मन की अलमारी में सभी विचारों को व्यवस्थित तरीके से अलग-अलग खानों में रख पाते? क्यों दूसरों को अधिकार है कि वे आकर हमारे मन की अलमारी को उलट-पुलट जाएं? जो यादें बेकार की हैं, जो केवल जगह घेरे बैठीं हैं, उन्हें निकाल कर फेंक क्यों नहीं देते? होना तो यही चाहिए था कि सबसे पहले हम अपना मन सजाते। सारी गंदगी बाहर निकाल फेंकते और बाहर से फेंके गए किसी भी कूड़े को अंदर न आने देते।
कभी गौर करके देखिएगा कि बच्चे हमारी तरह दुख से बोझिल क्यों नहीं होते। दरअसल, उनका मन सुंदर होता है। उनके मन में कोई भी कोलाहल, कोई हलचल, कोई अव्यवस्था नहीं है। वे प्रतिदिन सुबह उठते हैं, दिन भर खेलते-कूदते हैं, न सुख को मन में संजोते हैं, न दुख की पोटली बांध कर रखते हैं। रोज का हिसाब रोज चुकता कर रात को गहरी नींद सोकर सब कुछ भूल-भाल कर दूसरे दिन उठते हैं, फिर अपने कार्य में लग जाते हैं।
ऐसा नहीं कि उनके पास दुख के कारण कम हैं, या बुद्धि कम है। एक शिशु को अपनी मां के दूर जाने पर जितना अधिक दुख होता है, उतना ही दुख किसी कारोबारी को पैसे के नुकसान से होता है। दुख की तीव्रता मायने रखती है, दुख का कारण नहीं। व्यवसायी अवसाद में चला जाता है, शिशु नहीं। फर्क है।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिकों ने ‘खुशी’ को लेकर एक शोध किया कि आखिर लोगों के खुश रहने में इतना अंतर क्यों है, हर व्यक्ति के लिए ‘खुशी’ का एक निर्धारित बिंदु होता है। शोध के मुताबिक, जीवन में पचास फीसद खुशियों के कारण आनुवंशिक होते हैं। बच्चे माता-पिता से उनके मन का एक हिस्सा भी ले आते हैं, इसीलिए मां को सलाह दी जाती है कि गर्भावस्था में खूब खुश रहना चाहिए।
वहीं दस फीसद खुशियों में परिस्थितियों की भूमिका होती है। शेष चालीस फीसद खुशियों के लिए हम खुद उत्तरदायी होते हैं। यानी अपनी खुशियों का एक बड़ा हिस्सा हम खुद नियंत्रित करते हैं। इसमें हमारा चीजों को देखने, सीखने का दृष्टिकोण बहुत भूमिका निभाता है।
मन में हर प्रकार के विचार चलेंगे कि उन पर अंकुश नहीं लगा सकते। हम मन को कुछ अच्छा सोचने के लिए ईंधन दे सकते हैं। किसी अच्छी पुस्तक को साथी बनाया जा सकता है। यह विरोधी लोगों द्वारा दी गई नकारात्मकता से लड़ने में साथ निभाएगी। शांत रहने की आदत से मन अपने आप व्यवस्थित होने लगेगा। किसी एक अच्छे कार्य से जुड़ जाने पर मन में हल्कापन आएगा। शौक, संगीत, ध्यान जैसे और भी तरीके हैं।
मगर सब कुछ करने के बाद भी अगर बार-बार बिना किसी कारण किसी का खयाल आ रहा है, तो माना जाता है कि वह आपको बहुत शिद्दत से याद कर रहा है। अब ऐसे में अगर बिना आमंत्रण कोई अतिथि मन में घुसा आ रहा है तो ये मामला थोड़ा अलग है। ऐसे में यह गीत गुनगुना चाहिए- ‘खयालों में किसी के इस तरह आया नहीं करते’।