सृष्टि के सृजन काल से ही सामाजिक-सह-पारिवारिक परिधि में संबंधों की एक विरासतीय मान्यता रही है। भारतीय परिवेश में दादा-दादी, नाना-नानी, माता-पिता, चाचा-चाची, पति-पत्नी, भाई-बहन, मौसा, फूफा, मामा जैसे संबंधों की एक लंबी शृंखला रही है। इन संबंधों की आत्मीयता और गतिशीलता हमारे सामाजिक और पारिवारिक परिवेश को असीम ऊर्जा से भरपूर रखती हैं।

खासकर शादी विवाह या अन्य अनुष्ठानों में परिवार के सदस्यों की सक्रिय भागीदारी की विशिष्ट छवि होती है। इसके अतिरिक्त समाज में मित्रता की एक ऐसी प्रभावशाली कड़ी निर्मित हुई है, जिसकी महत्ता और पहचान आज भी जीवन पथ पर अग्रसर है। बचपन, युवावस्था और प्रौढ़ावस्था में हुई मित्रता के विभिन्न आयाम हैं, जो अनेक पड़ावों से गुजरते हुए पूरी जिंदगी तक निभाई जाती है। चूंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इसलिए वह अकेले जीवन की गाड़ी नहीं खींच सकता। जीवन यात्रा में सबकी भेंट असंख्य लोगों से होती है, लेकिन हर व्यक्ति मित्र का स्थान नहीं ले पाता है।

जीवन को सुखमय बनाने के लिए अनेक सुविधाओं और सुख-साधनों की आवश्यकता होती है, लेकिन मित्रता रूपी साधन जीवन में हस्तगत हो जाए तो समस्त अनुकूल साधन अपने आप उपलब्ध हो जाते हैं। यह भी सच है कि एक सच्चा दोस्त मिलना सौभाग्य की बात है। मित्रता की कसौटी पर वही खरा सिद्ध हो सकता है, जिसे हम पसंद करें, जिसके सान्निध्य से हम प्रफुल्लित रहें, जिसका सम्मान करें और जो हमारे दुख-सुख में हमदर्द बना रहे।

मनोविज्ञान के सूत्र यह भी प्रमाणित करते हैं कि व्यक्ति अपने मन की जो बातें परिवार के मुख्य सदस्यों से साझा नहीं कर सकते, उसे वे अपने जिगरी दोस्त के साथ अवश्य कहते-सुनते हैं। हालांकि इस स्थिति को प्राप्त करने में मित्र को एक दीर्घकाल के थपेड़ों से गुजरना भी पड़ता है।

एक समारोह में ढेर सारे आमंत्रित लोगों के भोज के दौरान जब कुछ रिश्तेदारों ने हाथ बंटाने की इच्छा जाहिर की तो मेजबान ने अपने भाई और उसके सात-आठ मित्रों के आयोजन का मोर्चा संभाले होने की बात कह कर मना कर दिया। यह सच भी था। उस मित्र मंडली में शामिल युवा अत्यंत सलीके से पूरी व्यवस्था को मूर्त रूप दे रहे थे।

आए आगंतुकों को बिठाना, खिलाना और विदा करने की समस्त औपचारिकताओं में वह समूह पूरी निष्ठा और तन्मयता से लीन था। चूंकि ऐसे आयोजन में इस तरह की अनोखी सहभागिता ग्रामीण इलाकों में दिख जाती है, मगर शहरों में बहुत कम देखने को मिलती है। बाद में जानकारी मिली कि उन मित्र मंडली के किसी भी सदस्य के घर किसी भी आयोजन या बीमारी या अन्य किसी गंभीर घटना में ये सभी मित्रगण परस्पर सहायता और सेवा के लिए तुरंत दौड़ पड़ते हैं।

निश्चय ही यह आज के समय में दुर्लभ है, लेकिन विचारणीय यह भी है कि हम अपने किसी मित्र के सुख-दुख की घड़ी में सहायक क्यों नहीं हो सकते। वर्तमान भौतिक जीवन में किसी के काम आना जटिल कार्य है, लेकिन जब हम संकट में होते हैं तो तुरंत हमारी दूसरों से अपेक्षा होती है कि अन्य कोई मेरे काम आए।

प्रकृति का शाश्वत नियम है कि जो हम बोते हैं, उसी का फल हमें मिलता है। कभी-कभी ऐसा भी देखने-सुनने को मिलता है कि बचपन या नौकरी में साथ रहे किसी मित्र के गंभीर रूप से बीमार होने पर उनके खास रहे मित्र उनकी खोज-खबर नहीं लेते। पूर्व की पीढ़ी के दौर में आमतौर पर ऐसी स्थिति में मित्र का अपने बीमार सखा के घर जाकर उसका कुशल क्षेम पूछना, घंटों उसके सिरहाने बैठकर उसका सिर सहलाना, हिम्मत देना और यथाशक्ति चिकित्सा कार्य में सहयोग करना उनके फर्ज के रूप में माना जाता था और पीड़ित जल्द स्वस्थ हो जाते थे।

लेकिन अब तो यह सब दुपहरी के सपने जैसा हो गया है। अधिकांश यही देखा जाता है कि आत्मकेंद्रित होती जीवन दैनंदिनी में सोशल मीडिया के आभासी मंच से ही बीमार या परलोक सिधारे मित्र के शोक संतप्त परिवार को सिर्फ ‘गेटवेल सून’ और ‘आरआइपी’ के कृपण संदेश भेजकर निवृत्त हो जाने की मन:स्थिति प्राप्त कर ली गई है।

काल के कपाल पर पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हुए क्षरण के कारण अब सच्ची मित्रता असंभव है, लेकिन हम ईमानदारी से प्रयास करें तो मित्रता के बुझते दीए में लौ आ सकती है। हालांकि आज की युवा पीढ़ी के कुछ मित्र वैसे भी चिह्नित किए गए हैं जो अपने मित्र को भटकाने, मौज-मस्ती करने और स्वार्थ की प्रवृत्ति तक ही सीमित रखते हैं।

पूर्वजों के कथन में वास्तविकता का चित्रण रहा है कि दुष्ट प्रकृति के साथी की कभी भी संगति नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा मित्र खुद अधोगति को प्राप्त करता है और अपने साथ अन्य मित्रों को भी संकट में डाल देता है। इसलिए मित्र के चयन में सावधानी हो और यह सुनिश्चित हो कि वह स्वार्थी नहीं है। अनेक प्रतिकूलताओं के बावजूद मित्र मंडली के ढांचे के निर्माण में हम सचमुच सफल हो सकते हैं, अगर हम अपने हृदय तल से खुद एक आदर्श मित्र बनने की अर्हता पूरी करें।