अशोक कुमार
जीवन में रोमांच, उत्साह, खुशी, दुख, चिंता, भय जैसी अनेक प्रकार की भावनाओं की नैसर्गिक स्थिति से हम सब गुजरते ही रहते हैं। ये भावनाएं हमारी मनोस्थिति को सक्रिय करती हुई जीवन की गहराई और गंभीरता को भी स्पर्श करती हैं। कभी-कभी हमारी मनोदशा एक साथ कई भावनाओं से युक्त होकर अनेक विषयों पर केंद्रित हो जाती हैं। स्नायु विज्ञान का सिद्धांत है कि हमारी चिंतन प्रणाली से प्रवाहित भावनाएं शारीरिक और मानसिक स्तर पर अपनी क्रियाशीलता हमेशा बनाए रखती हैं, जो जीवन यात्रा के पथ पर साथ चलती हैं।
मृत्यु का आगमन किसी को अपने आगोश में लेने में कोई भी भेदभाव नहीं करता
उदासी, दुख और निराशा के हम तभी शिकार होते हैं, जब हमारे जीवन आंगन में कोई प्रतिकूल घटना होती है। ऐसी स्थिति में जीवन का ध्रुव सत्य है कि मृत्यु का आगमन किसी को अपने आगोश में लेने में कोई भी भेदभाव नहीं करता। हालांकि यह दुख का क्रूर कहर है, लेकिन इसके अस्तित्व और व्यापकता से हम मुंह मोड़ नहीं सकते। मृत्यु जीवन का आधार और अवश्यंभावी प्रक्रिया है, जिसे हम खुले मन से कुछ देर के लिए भले न स्वीकार करें, लेकिन मन से इसकी ग्राह्यता को अंगीकार करना ही पड़ता है। अगर हम मृत्यु को नहीं समझते तो कभी जीवन के मर्म को जान नहीं सकेंगे और न उस मर्मांतक घटना को संभाल सकेंगे।
आध्यात्मिक प्रक्रिया तभी प्रारंभ होती है, जब हम मृत्यु का सामना करते हैं
कुछ मनीषियों का अभिमत है कि आध्यात्मिक प्रक्रिया तभी प्रारंभ होती है, जब हम मृत्यु का सामना करते हैं। किसी ऐसे व्यक्ति की मृत्यु की, जो हमारे प्रिय हैं। जब मृत्यु आ रही हो या आ गई हो तभी अधिकतर लोगों के मन में यह प्रश्न आता है कि यह सब क्या है और इसके बाद क्या होगा। जब तक जीवन है, हमें यह सत्य लगता है। हमें यह विश्वास नहीं होता कि यह बस ऐसे ही समाप्त होने वाला है। लेकिन जब मृत्यु पास पहुंच जाती है, तभी मन यह चिंतन करना शुरू करता है कि कुछ और भी उपक्रम है जो इससे श्रेष्ठ है, जिससे हम शोक विह्वलता से उबर पाते हैं।
चंचल मन कितना भी सोच ले, सूक्ष्मता से यथार्थ को स्वीकार नहीं कर पाता
चंचल मन चाहे कितना भी सोच ले, यह वास्तव में सूक्ष्मता से यथार्थ को स्वीकार नहीं कर पाता, क्योंकि हमारा अनुरागी मन सिर्फ उसी अवधारणा पर सक्रिय रहता है जो पहले से मन के कोने में जड़ जमा चुका है। हमारे मन की एकपक्षीय सोच का ही परिणाम है कि जब उसका वास्ता मृत्यु से नहीं होता तो कोई आधारभूत सिद्धांत से वह अपने को परे मानने को विवश है।
कुछ समाजशास्त्रियों का कथन है कि मृत्यु जीवन से अवकाश ग्रहण करने की स्थिति है, जैसे लोग अपने काम से छुट्टी लेकर नदी, समुद्र में गोता लगाने, सैर-सपाटा करने जाते हैं। विश्व कवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने कहा है कि ‘मृत्यु सर्वशक्तिमान का आमंत्रण है। जब वह आए तो उसका द्वार खोल कर स्वागत करें, उसके चरणों में हृदय धन अर्पित कर उसका अभिवादन किया जाए।’
अगर मृत्यु न हो तो जीवन भार बन जाएगा, यह संसार कांटों की तरह चुभने लगेगा। व्यक्ति में जीने की जो चाह है, वह मृत्यु के अप्रत्यक्ष कारण से ही है। संसार में अगर यह नहीं होता तो जीवन के अस्तित्व की अंतिम परिणति आखिर क्या होती, यह विचारणीय है। शारीरिक असमर्थता के कारण पराश्रित हो जानेवाले लोगों को मुक्तिदाता, असाध्य रोगों से ग्रस्त लोग, जिनकी कोई चिकित्सा संभव नहीं है, उन्हें मृत्यु ही वरेण्य कर कष्ट से निवारण कर पाता है।
सच मानें तो मृत्यु से ही इस दुनिया में सौंदर्य का आकर्षण विद्यमान है। इसकी अनुपस्थिति से जगत में अमरता का साम्राज्य स्थापित हो जाता और लोग-बाग के हृदय में कठोरता, निर्दयता और असहयोग का आवेग प्रबल हो जाता। मनोवैज्ञानिकों का मत है कि अनेक बार व्यक्ति बुराइयों से इसलिए बचे रहते हैं कि उन्हें मृत्यु का भय अपनी छोटी-सी जिंदगी का खयाल दिला देता है। नतीजतन, जीवन चक्र में असंख्य दुर्गुण पनप नहीं पाते। अगर मनुष्य अमर हो जाए तो वह कुछ भी करने में परहेज नहीं करेगा।
इसीलिए यह प्रमाणित हो चुका है कि मनुष्य के पांव कहीं रुकते हैं तो वह मौत के दरवाजे पर ही। मृत्यु हम सबको त्याग और उत्सर्ग का भी पाठ पढ़ाती है। व्यक्ति जीवन भर वस्तु व्यापार में लीन रह कर संग्रह में परेशान रहता है, मानो उसे सदा-सर्वदा इसी धरती पर रहना है। लेकिन जब मौत आकर चुपके से हमें अज्ञात स्थान की यात्रा कराती है तो समस्त संपदा, वैभव यहीं छूट जाता है। युगों-युगों से जारी मृत्यु की अंतहीन तथ्य को अगर समझ लिया जाए तो शोक संतप्त की बेला के घनत्व को हम निश्चित रूप से कम कर सकते हैं। यह अनवरत प्रक्रिया ही हमें सद्कार्य और सद्भाव का पावन संदेश देती है। इसीलिए हम अपने देश के महारत्नों के कृत्यों को हृदयंगम करने की प्रेरणा ग्रहण करते हैं, भले उनके भौतिक शरीर आज हम सबके बीच नहीं हैं।