Blog: आर्थिक सुधारों के बरक्स बेरोजगारी, समय पर नौकरियां नहीं मिलने से निराश हो रहे हैं युवा

हाल ही में एक ऐतिहासिक तीर्थ स्थल और संग्रहालय पर पर्यटकों की संख्या नगण्य देखी गई, जबकि खानपान की दुकानों, नौका विहार, समुद्र तट आदि पर भारी भीड़ थी। भीड़ में प्रत्येक व्यक्ति वीडियो या रील बनाने, धीमी गति की फिल्म बनाने और फोटो खिंचवाने में व्यस्त था। ऐतिहासिक स्थलों के इतिहास और भूगोल के विषय में अभिभावक अपने बच्चों के प्रश्नों का जवाब नहीं दे पा रहे थे। वे बच्चों को फोटो खिंचवाने के लिए मुद्राएं बनाने के लिए प्रेरित कर रहे थे. बच्चों के प्रश्नों की बौछार से उनके अभिभावक बच्चों को झिड़क रहे थे, क्योंकि उन्हें खुद कुछ ज्ञान नहीं था। सवाल है कि क्या जीवन का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ भौतिक आनंद लेना भर रह गया है? क्या सिर्फ तस्वीरें खिंचवाना, सोशल मीडिया पर मशहूर होना, लोगों में यह दिखाना कि व्यक्ति बहुत आनंदित है आदि ही जीवन के लक्ष्य रह गए हैं?

बच्चों के सवालों का जवाब नहीं दे पा रहे हैं अभिभावक

यह स्थिति बहुत गंभीर है कि एक वयस्क नागरिक को इतिहास के बारे में सामान्य जानकारी भी नहीं है। व्यक्ति अपने राष्ट्र गौरव, अपनी थातियों, संस्कृति और अपने देश से इस स्तर तक कट चुका है कि वह बच्चों के मन में उठते प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ है। जब एक माता-पिता को यह जानकारी नहीं कि उसके देश के महत्त्वपूर्ण गौरवशाली व्यक्तित्व कौन हैं, तो वे अपनी पीढ़ी में राष्ट्र गौरव के संस्कारों को कैसे बीजारोपित कर पाएंगे? अभिभावक सिर्फ भोजन, आनंद, मनोरंजन, तस्वीरों और सोशल मीडिया पर अपनी तस्वीरों या टिप्पणियों पर आने वाली पसंदगी और साझा किए जाने में ही अपनी जिंदगी की खुशी तलाशते प्रतीत हो रहे हैं। क्या वर्तमान अभिभावक अपने बारह से पंद्रह वर्षीय संतानों के साथ देश के ताजा घटनाक्रमों पर, वित्त और रक्षा नीति पर, सामान्य विज्ञान के सिद्धांतों, सांस्कृतिक गौरव आदि विषयों पर चर्चा करने में समर्थ हैं? शायद नहीं। यह अत्यंत कष्टदायक है।

हम घूमने क्यों जाते हैं? व्यंग्यात्मक भाषा में इसका उत्तर है- हम ‘रील’ बनाने, तस्वीरें खिंचवाकर सोशल मीडिया पर डालने के लिए घूमने जाते हैं! इसी को शायद जीवन की खुशी मान लिया गया है। खुशी को सिर्फ ‘रील’, सुंदर कपड़ों और भोजन करने से जोड़ दिया गया है। यह एक दुखद सत्य है। व्यक्ति अपने आनंद की जगह दूसरों को यह दिखाने में व्यस्त है कि वह बहुत सुखी है। आनंद की जगह दिखावे ने ले ली है। क्या ‘रील’ बना रहे हैं, क्यों बना रहे हैं, उसका उद्देश्य क्या है, समाज को उसका क्या संदेश मिलेगा, इन सब पर समाज मौन है। यों किसी को अपनी सुविधा से खुद को अभिव्यक्त करने का अधिकार है, मगर यह भी सच है कि रील और तस्वीरों ने कई दंपतियों का जीवन खराब किया है। इन चित्रों और टिप्पणियों के कारण परस्पर समन्वय में कमी आ रही है, तुलना बढ़ रही है और दांपत्य जीवन कष्टप्रद हो रहा है। आनंद भीतर है। ऊपरी दिखावे, रील, फोटो, स्टेटस और कपड़ों से वास्तविक खुशी मिलनी असंभव है।

दरअसल, इस तरह के शौक के पीछे छिपी है लोगों द्वारा स्वीकार किए जाने की इच्छा। इस कार्य के पीछे दिखावा है, खुद को औरों से अधिक सुखी दिखाने का भाव है। दूसरे हमारी बात का समर्थन करें और हमें स्वीकार करें, क्या यह आवश्यक है? सोशल मीडिया पर फोटो डालकर या कुछ लिखकर व्यक्ति दूसरों से सराहना और स्वीकारोक्ति चाहता है। क्या मनुष्य खुद की नजर में इतना अशक्त और निर्बल है कि जब तक दूसरे लोग उसे खुश न मानें, तब तक वह खुश नहीं होगा? यह सोचने की जरूरत है कि हम पढ़ने के शौकीन हैं और हमने यह बात सोशल मीडिया पर लिखी। अब जो पढ़ने का शौकीन होगा, वह हमारे काम की तारीफ करेगा और जो शौक नहीं रखता होगा, वह आलोचना करेगा। इसमें मानसिक तनाव क्यों लेना? इंटरनेट एक खुला मंच है। कोई रोक-टोक नहीं हैं। जो जैसा चाहे, वैसा लिख सकता है। ऐसी अवस्था में दूसरों की टिप्पणियों को दिल से लगाया जाना अनुचित है।

सच यह है कि ‘रील’ और तस्वीरों के जरिए लोकप्रियता हासिल होने की प्यास जगाना बाजार का एक मायाजाल है, जिसे कंपनियों ने गढ़ा है। करीब बीस वर्ष पूर्व किराए पर परिधान लाकर दूल्हा-दुल्हन विवाह संपन्न कर लेते थे। वे समझते थे कि एक बार पहने जाने वाले महंगे परिधानों पर बेवजह खर्च करना ठीक नहीं है। अब ऐसे बचत प्रधान समाज में कंपनी अपना उत्पाद कैसे बेचे? इसलिए प्रत्येक समारोह और त्योहार का व्यवसायीकरण शुरू हो गया। समारोह में एक जैसे परिधान पहनना, फोटो खींचना आदि इसी रणनीति का हिस्सा हैं। भारत में विवाह के दौरान पहने जाने वाले महिलाओं के परिधानों का बाजार और ‘रीलों’ के निर्माण और तस्वीरें खिंचवाने की तथाकथित प्रतियोगिता के कारण मोबाइल का बाजार बेतहाशा वृद्धि कर रहा है।

कुछ दिनों पहले एक खबर आई कि मां ने किशोरी को मोबाइल छोड़कर पढ़ने को कहा और उसे मोबाइल के अत्यधिक इस्तेमाल करने पर टोका। इस बात से नाराज होकर किशोरी ने आमघाती कदम उठा लिया। ऐसे और भी समाचार आए दिन आते रहते हैं। आखिर क्यों व्यक्ति इतना अकेला, तन्हा और एकाकी हो गया है कि उसने मोबाइल के आभासी संसार को ही सच मान लिया है? यह समझना होगा कि आभासी इंटरनेट की दुनिया वास्तविक नहीं होती। इंटरनेट की दुनिया मायाजाल है और उसमें जो दिखता है, वो पूरी तरह सच नहीं है। न तो इसकी तारीफें सच्ची हैं और न ही आलोचना। इसलिए आभासी दुनिया को त्यागकर वास्तविक दुनिया में जीना ही जीवन है।