मुग्धा

कभी भी जब अपने मन से एक-दो पंक्ति लिख कर हम किसी को भेजते हैं, तब वे चाहे कविता में हों या फिर सपाट गद्य, दो-चार शब्द हमारी विचारधारा और हमारी सोच के आकाश में चार चांद सजा देते हैं। यानी जब यों ही, ऐसे ही कुछ लिख दिया तो वह ऐसा प्यारा और सलोना बन गया तो सोचा जा सकता है कि रोज एक पृष्ठ लिख देने से हमारा पूरा दिन और फिर हौले-हौले यह जीवन कितना खूबसूरत हो सकता है।

मन में दबी बात को बाहर निकालने से मिलती है राहत

इसीलिए लियो टालस्टाय ने अपने एक संस्मरण में कहा है कि लिखना उनके लिए सबसे पहले अपनी निराशा मिटाने की सबसे बढ़िया दवा बना, फिर इतना मान-सम्मान और गुणगान तो उसमें जुड़ता चला गया था। किसी कवि ने कहा है कि इस मन का माहौल मन से निकली हुई किसी बात से ही बनता-संवरता है। फिर भी हम जिंदगी की आपाधापी में दो पल बैठ कर लिखना भूल जाते हैं। जर्मन वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक शोध के मुताबिक हमारे मन में असंख्य भाव पैदा होते हैं। उन्हें दबाना नहीं, बल्कि बाहर निकालना भी जरूरी होता है, क्योंकि इससे कई जानलेवा बीमारियों का खतरा कम हो सकता है।

भावों को दबा लेने से बढ़ता है ‘स्ट्रेस हार्मोन कार्टीसोल’ का स्तर

एक जगह बैठ कर लिखने से मन हल्का महसूस होने लगता है। अपने बेचैनी वाले भावों को दबा लेने या मन ही मन घुटने वाले लोगों में ‘स्ट्रेस हार्मोन कार्टीसोल’ का स्तर बढ़ जाता है और उन्हें हृदयाघात, कैंसर, उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियां होने का खतरा चालीस फीसद तक बढ़ सकता है। इसलिए अपना एक नियम बना लेना चाहिए कि डायरी लिखी जाए, उसमें कुछ लिख दिया जाए और प्यार, नफरत, शिकायत या गुस्से को लिख कर निकाल दिया जाए। दुख को दूर करने की यह दवा आजकल विदेशों में बहुतायत से पनप रहे ‘ओल्ड होम्स’ यानी वृद्धाश्रमों में बताई जा रही है। बुजुर्गों से कहा जाता है कि जो मन में आ रहा है, उसे झट से लिख दें और शिकायत से आजाद हो जाएं। माफी का गुण विकसित होने लगेगा।

बंगलुरु में कुछ माह पहले एक निजी कंपनी के अवसाद से भरे कुछ कार्मिकों को दो दिन की कार्यशाला में सिर्फ लिखने के लिए कागज दिए गए। विषय थे- मेरा दफ्तर, मेरे दौरे, मेरी बैठक, मेरे सहकर्मी, मेरे तरह-तरह के वरिष्ठ, मेरी गलतियां, मेरी कमियां, मेरी खराब आदत वगैरह। इन सब पर लिखने के बाद उन सबके आक्सीजन, थायराइड, रक्तचाप के स्तर को मापा गया। सब कुछ सामान्य मिला।

उन सबने माना कि जैसे एक जादुई अहसास भीतर समाने लगा और वे किसी सुकून और परम शांति की अवस्था में आ गए। उन सबको यह भी सीखने को मिला कि आनंद और उमंग के लिए विलासिता और सुविधा की नहीं, केवल कुछ लिखने और संतोष करने की जरूरत है। कार्यशाला से जाते समय सभी कार्मिक यह भी कहते गए कि जिनसे बहुत नफरत थी, इतना लिखने के बाद यही लगा कि वे इतने भी बुरे नहीं थे। नकारात्मकता मिट गई।

असंतोष, पीड़ा और विवाद आदि को खत्म करने की शक्ति हमारे विचार और हमारी कलम से ज्यादा किसी में नहीं है। अपने दिमाग और शरीर को नियंत्रित करने का जो काम हमारे भाव और संकल्प कर सकते हैं, वह कोई और नहीं कर सकता। व्यवहार मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, रोज कुछ न कुछ लिखना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि इससे हम उन्मुक्त और गतिशील बने रहते हैं। मन में जो सकारात्मक ऊर्जा है, उसे लिख देने से हम अपने दिल और दिमाग की गांठ को खोल सकते हैं। तनाव को बाहर निकाल देने से हमारे भीतर रचनात्मकता फैलने लगती है और हम इसे अपने इर्द-गिर्द भी फैलाते हैं। हम जो काम करते हैं, उस पर अच्छे से ध्यान दे पाते हैं।

ऐसा प्रमाणित हो गया है कि कुछ मिनट तक खुल कर लिखने से मांसपेशियां कम से कम चालीस मिनट तक सामान्य महसूस करती हैं। इसके अलावा, रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है। जो लोग अधिक सोचते और लिखते भी हैं, वे लंबे समय तक युवा दिखते हैं। सोचने और लिखने से दिमाग सक्रिय होता है और एक तरह की आनंद भरी एकाग्रता से दिल तक पहुंचने वाली धमनियों में खून का प्रवाह सुचारु रूप से होता है, जिससे हृदय रोगों की समस्या नहीं होती। अनेक परीक्षण, प्रयोग और शोध से यह साबित हुआ है कि जो अनुभव किया, उसे लिखने में भी हमारी कई इंद्रियां सकारात्मक ढंग से काम करती हैं और उनमें एक लचीलापन आने लगता है।

मनोवैज्ञानिक यह सिद्ध कर ही चुके हैं कि अतीत का हर कठिन दिन आज मीठा ही महसूस होता है। इसलिए जो लोग डायरी लिखते हुए जिंदगी को खुल कर जीते हैं, वे बुढ़ापे में सेहत से तरोताजा लगते हैं और ज्यादा उदार, संतोषी और सामाजिक रहते हैं। सबने देखा होगा कि सदैव खुश रहने वाले उम्रदराज लोगों को अपने लिए चाय-काफी बनाना, अपना कमरा ठीक करना और बाकी काम करना भी सरल, सहज लगता है। लिखना एकदम किसी मधुर से ध्यान में गोते लगाने जैसा ही होता है।