कृष्ण कुमार रत्तू

यह जीवन निरंतर गतिशील है और यही समय का सच है। जिंदगी की गतिशीलता बनी रहे तो आने वाली नस्लों के लिए श्रेष्ठ संस्कृतियों के इतिहास की विरासत संरक्षित रहती है। किन्हीं वजहों से यह थम जाए तो शेष स्मृतियों में विरासत और इतिहास का पन्नों में दर्ज रहता है। इस कालचक्र में संवाद जिंदगी की सांसें हैं और ये निरंतर चलती रहनी चाहिए।

बदलते समय और नई सूचना प्रौद्योगिकी के युग में समूचे विश्व में भागमभाग और चकाचौंध के बीच मानवीय मूल्य की नई पहचान हमारे सामने एक नया इतिहास रच रही है। पिछले दशकों में विज्ञान के नए तौर-तरीकों और नई सूचना संप्रेषण क्रांति की त्वरित गति ने आज के समाज में हर उम्र के बाशिंदे को पूरी तरह बदल दिया है और यह बदलाव अब हमारी जिंदगी का हिस्सा है। इसी के साथ हमें अपनी आने वाली नस्लों के लिए अपनी विरासत को सहेज कर रखना होगा।

इन दिनों जिस तरह के परिदृश्य और बदलते परिवेश में महानगरों से दूर गांव की जिंदगी में हमने बदलावों को आमंत्रित किया है, वे समय की आवश्यकता हैं, लेकिन अगर हमने अपनी विरासत, इतिहास और पुरखों की पहचान को नष्ट कर दिया तो फिर अगली पीढ़ी और हम भविष्य में अपनी जो पहचान दुनिया के सामने बनाएंगे, वह कुछ अलग तरह की होगी।

हमारी उस बदली हुई पहचान में भारतीयता नहीं होगी और सद्भाव और अपनापन कहीं गायब हो चुका होगा। एक वृत्त चित्र ‘द लास्ट रिपेयर शाप’ में स्मृतियों और संस्कृति की पहचान के पीछे एक गहरा संवेदनशील बदलाव दिखाया गया है। उसमें एक हारमोनियम की दुकान बंद होती दिखाई जाती है। उसके दुकानदार असल में मरम्मत करने वाले होते हैं, जिसके एक पात्र के संवाद पूरी दुनिया के इतिहास और बदलाव को एक नई दृष्टि देते हैं। उसकी जिंदगी बदल सकती है। मगर यह जिंदगी की उन नकारात्मक पहलुओं को भी दिखाती है कि किस तरह से मरम्मत की एक दुकान बंद होने से सुर-संवाद सब कुछ पीछे छूट जाता है।

यह उम्मीद से भरी एक कहानी है, जिसके साथ-साथ सुर-संवाद जुड़ा हुआ होता है, क्योंकि यह समाज को जोड़ता है। इसको जब वर्तमान समाज के बदलते हुए परिवेश के साथ जोड़ कर देखा जाए तो लगता है कि हम सबने सुर संवाद की मरम्मत की अनेक दुकानों को ताले लगा दिए हैं। अपनी पहचान को हमने दफ्न कर दिया है। आज हमारे पुराने संगीत के साजों की दुकानें बीते हुए कल की बात बन गई है और नए सामान में किसी की रुचि नहीं है। नया संगीत शोर संगीत का अभिप्राय और उसकी पहचान बन गया है। वह रूह को भिगो देने वाले संगीत के संवाद की पहचान की प्रतिस्पर्धा में कहां रहेगा?

यही आदमी के विकास से रुकने की एक नई कहानी है। यह भी सच है कि आज संगीत के साथ-साथ संवाद के अन्य माध्यम हमारे सोशल मीडिया के कारण ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं कि त्वरित गति से संदेश आजकल कहीं भी पहुंच जाते हैं और एक बड़े दायरे से लोगों को जोड़ देते हैं। इस समय यह एक नया चलन है। अब संगीत और सुर का स्थान कहां है? हमने वह जगह ही खत्म कर दी है, जिसमें संगीत के स्वर से भावनात्मक संवाद यानी पारिवारिक पृष्ठभूमि का एक नया मंजर था।

यह परिदृश्य सौहार्द और प्रेम का एक उदाहरण था। यह ठीक वैसे ही है, जैसे हमने चिट्ठियां लिखनी छोड़ दी और भावनात्मक संबंधों से वाट्सएप और अन्य माध्यमों से वीडियो काल के जरिए बात हो जाती है, लेकिन संवेदना का सच और स्नेह जो हस्तलिखित में लिखे हुए अक्षरों के साथ किसी अपने के पास पहुंचता है, वह स्मृतियों में रूह से दिल का सफर करता है। यह दिल आजकल बदल गया है। एक सच यह भी है कि हमने अपनी रचनात्मकता को शून्य कर दिया है, यानी छोड़ दिया है। हमने प्रेम की परिभाषा ही बदल दी है, जो समाज को जोड़ती थी।

हम अब मुसीबत में मुस्कुराते नहीं हैं, सोशल मीडिया की शरण में चले जाते हैं। मगर जिंदगी और संवाद में वह ताकत है जो संकट में सारी शक्ति और ताकत को इकट्ठा करके रख सकता है। दूसरी ओर, पानी रुक जाए तो उसके बहाव में शुद्धता खत्म हो जाती है और यह इसी प्रकार से है कि संवाद का समय एक सुख जीवन की नई परिपाटी को लेकर आता है।

इन दिनों तकनीक की दुनिया में कृत्रिम बुद्धिमता यानी एआइ और आभासी दुनिया में गुम नई नस्ल अपनी आभासी मुस्कान में ही मुग्ध होती दिख रही है। यह अगर इसी तरह चलता रहा तो आने वाले दिन पहचान के लिए वैसे दिन होंगे जब आभासी दुनिया की एआइ तकनीक से ‘डीपफेक’ का शिकार होकर कोई व्यक्ति एक विकृत कृति में बदल जाएगा।

इंसान का सच सुर-संगीत, सहज मन और शांति के साथ जीने की उस संस्कृति का नाम है, जिसमें जिंदगी मुस्कुराती रहे और जिंदगी फूलों से हर सुबह एक नया संदेश दे। यही इंसान का जिंदा और रूह में भीगा हुआ सुर और संवाद है। इसे बचाने के लिए हमें आभासी दुनिया से बाहर निकल कर प्रकृति के साथ जीना होगा और और संवाद का आनंद उठाना होगा। यह जिंदगी चार दिन की है, पता नहीं कब बीत जाए।