धर्मेंद्र जोशी

समय के पहिये थमते नहीं। कभी विश्राम नहीं करते। अपनी नियत गति से, निर्बाध, प्राकृतिक लय से चलते रहते हैं। मनुष्य का जीवन भी समय चक्र की घूर्णन गति के सापेक्ष विभिन्न पड़ावों को पार करते हुए अपने अंतिम पायदान पर पहुंच ही जाता है। बालपन की अबोध भंगिमा कब सयानी हो जाती है और कब उत्तरार्द्ध की बेला आ जाती है, पता ही नहीं चलता। जीवन का हर पड़ाव महत्त्वपूर्ण है और स्मृतियों का खजाना भी, जिसमें कुछ खट्टी तो कुछ मीठी यादों की गठरी सहेज कर रखी जाती है, जो बीते बचपन, छूटती युवावस्था और साथ चलती पके बालों की उम्र को भी साधने का काम करती है।

पांच दशक पहले गांव, कस्बे और छोटे शहरों का बचपन आज के बचपन से बिल्कुल अलहदा था, संयुक्त परिवारों की छांव में, सघनता से बुने हुए रिश्तों का एक अटूट बंधन बच्चों को जन्म से ही मिलता था, जिसके सुवासित वातावरण में उन्मुक्त बाल्यकाल गुजरता था। उसमें नानी-दादी की कहानियां धर्म और अध्यात्म से जुड़ाव एक दूसरे के प्रति समर्पण ममत्व की भावना और गहन गंभीर संस्कारों के चलते बाल्यावस्था का समग्र समय बहुत ही आसानी से गुजर जाता था।

इसके ठीक विपरीत आज बच्चों के बचपन को समय के पहले ही खत्म किया जा रहा है। भावुकता का स्थान यांत्रिकता ने ले लिया है। यही कारण है कि परिवार और रक्त संबंधियों के बीच भी भाव भरे रिश्तों का नितांत अभाव देखा जा रहा है। छोटी-छोटी बात पर आपसी संबधों में तुरंत कटुता पैदा हो जाती है।

मनमाफिक काम न होने पर बच्चे से लेकर बड़े तक आपा खो देते हैं। जैसे-जैसे भौतिक सुखों और सुविधाओं का लाभ लोगों को मिलने लगा है, उसी अनुपात में आत्महत्याओं की संख्या का ग्राफ भी बढ़ा है। बाहरी चकाचौंध तो खूब दिखाई दे रही है, मगर मन के कोने में गहन अंधकार समाया हुआ है।

वे दिन पता नहीं कहां गए, जब गांव में किसी के यहां शादी होती थी और खुशी सारा गांव मनाता था। पड़ोस में आए मेहमान के लिए सारी व्यवस्थाओं का भार पड़ोसी ही उठा लेते थे। जब बेटियां घर से विदा होती थीं, तो आसपास वाले की आंखें भी पनीली हो जाती थीं। आजकल जीवन तो आगे बढ़ रहा है, मगर जीवन मूल्यों में गिरावट का दौर लगातार जारी है। एक दूसरे का समय-समय पर सहयोग, दुख और सुख में खड़े रहने की भावना, रिश्तों को निभाने की प्रबल इच्छा और स्नेह की डोर भी अब टूटने लगी हैं, जिसका असर भावी पीढ़ी पर स्पष्ट दिखाई दे रहा है।

एक ऐसा भी समय भी रहा, जब सारे लोग मिलजुल कर हर छोटी-बड़ी समस्या का हल निकालने में एक दूसरे की मदद करते थे। बीमारी हो या कोई अचानक आ जाने वाली आपदा हो, कोई न कोई अवश्य खड़ा हुआ दिखाई देता था, लेकिन आजकल आदमी भीड़ से घिरा हुआ है, संपन्नता के सारे संसाधन मौजूद हैं, आधुनिकता का आकाश छूने को आतुर हैं, आभासी दुनिया में रात-दिन विचरण कर रहा है, मगर वास्तविकता में अत्यंत अकेला है। भावनात्मक और मानवीय गुणों से बहुत ही निर्धन हैं, इसलिए बहुत कम उम्र में ही बड़ी-बड़ी और जानलेवा बीमारियां सामने आने लगी हैं। जरा-सा तनाव सहन करने की भी सामर्थ्य नहीं है। सहनशीलता क्षीण हो चुकी है।

जब से आर्थिक आधार को समाज में उच्चता का पैमाना बनाया गया है, तब से आपसी रिश्तों में एक प्रकार की तल्खी और नकारात्मक प्रतिद्वंदिता दिखाई देने लगी है। एक अंधी दौड़ शुरू हो चुकी है, जिसका कोई अंत नहीं है। इसका सबसे अधिक कुप्रभाव नजदीक के रिश्तों पर पड़ा है। यही कारण है कि आज पिता-पुत्र, भाई-भाई, चाचा-भतीजा के रिश्ते अत्यंत असहज और कुटिल अवधारणा से भरे हो गए हैं।

आज जब रिश्तों को कलंकित करने वाली खबरें आती हैं, तब दिल बैठ जाता है। जमीन-जायदाद के लिए की आसमान छूती कीमतों ने भाई को भाई का दुश्मन बना दिया है। कोई भी तनिक भी पीछे हटने को तैयार नहीं है। वे दिन अब बस यादों में हैं, जब बड़े के कपड़े पहन कर छोटा भाई अपनी स्कूल-कालेज की पढ़ाई पूरी कर लेते थे।

परिवार में अपने दायित्व के साथ साथ छोटे भाई बहन के लिए पिता का फर्ज भी पूरा करता था। वहीं छोटे भाई भी सारी उम्र बड़े भाई के सम्मान में कोई कमी नहीं आने देते थे। कभी रिश्तों का बंधन एक दूसरे का संबल हुआ करता था। बड़ी से बड़ी विपत्ति को भी मिलकर परास्त किया जा सकता था।

परिवार और समाज को इकट्ठा रहने और साथ में काम करने के लिए प्रेरित किए जाने का भाव भी अब दुर्बल होने लगा है। इसका असर चारों ओर दिखने लगा है। आज इस बात की भी आवश्यकता महसूस की जाने लगी है कि भारतीय जीवन मूल्यों को पुनर्स्थापित किया जाए, ताकि मनभेद की खाई को पाटा जा सके।

बदलाव का स्वरूप सर्वत्र दिखाई देने लगा है, चाहे वैचारिक स्तर हो, रहन-सहन का ढंग हो, खाने पीने की बात हो या फिर तीज-त्योहार, शादी के आयोजन हों। सकारात्मक बदलावों का स्वागत किया जाना चाहिए, वहीं नकारात्मक और आडंबरयुक्त बदलावों का विरोध किया जाना चाहिए। आज बेहद खर्चीली शादियां अस्तित्व में आ चुकी हैं. खुले रूप में मदिरापान फैशन बन चुका है।

वर्तमान में नैतिक मूल्यों का भी तीव्रता से क्षरण हुआ है, जो आए दिन की घटनाओं में देखा जा सकता है। संवेदना का मापांक शून्य पर है। आज किसी भी घटना का लोगों के दिलों पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। एक अजीब खालीपन लोगों के मन में घर कर गया है, जिसका भरना अत्यंत आवश्यक है, ताकि स्नेह के रिश्तों का जुड़ाव कायम रहे।