एक समय था, जब भारत में परिवारों का आकार बड़ा होता था। घर के सभी सदस्यों का साथ रहना होता था। सबका खाना साथ बनता और सभी साथ में बैठकर खाना खाते थे। यहां संस्कृति के महत्त्वपूर्ण तत्त्व शिष्टाचार, तहजीब, सभ्य संवाद, धार्मिक संस्कार, मान्यताएं और मूल्य श्रेष्ठ रहे हैं। ये सभी हमारे संयुक्त परिवार में बखूबी देखे जा सकते हैं। घर में पूरे दिन चहल-पहल रहती थी, जिससे पूरे दिन घर के अंदर खुशी का माहौल बना रहता था। कभी-कभार लड़ाई-झगड़ा भी हो जाता था, लेकिन घर के अंदर प्यार-मोहब्बत भी अथाह होती थी। खट्टे-मीठे अनुभव ऐसे ही चलते रहते थे। अनेक मौकों पर परिवार में खुशी का माहौल देखते ही बनता था। मगर आज बडी विडंबना है कि पुराने वक्त का संयुक्त परिवार अब ऐसे एकल परिवारों में परिवर्तित हो गया है, जहां रिश्तों की डोर टूट रही है।

सबसे ज्यादा गहरा संबंध माता-पिता का होता है। आज इसी रिश्ते की अनदेखी होती जा रही है। एकल परिवार होने के बाद ताऊ-ताई, चाचा-चाची और उनके बच्चे पीछे छूटते जा रहे हैं। सब लोग एकांत में रहना पसंद करने लगे हैं। बेटा-बेटी हो या फिर बेटे की बहू, सभी अपनी-अपनी जिंदगी जीना पंसद करने लगे हैं। रिश्तेदारियों में प्यार-मोहब्बत दूर की बात हो चली है। अब तो लोग आपस में बोलना भी छोड़ देते हैं। संयुक्त परिवारों में सब रिश्ते-नाते एक बंधन में बंधे होते थे, जो आज के एकल परिवारों में छिन-भिन्न हो चुके हैं। हम सब इन रिश्तों की मर्यादा को पीछे छोड़कर स्वार्थ की जिंदगी जीने लगे हैं और अपने-अपने स्वार्थ का हल खोजने में लगे हैं।

एक समय जब भी किसी बड़े-बुजुर्ग या बच्चों को कोई भी समस्या होती तो घर के अन्य सदस्यों द्वारा आपस में मिल-बैठ कर समाधान किया जाता था। घर के मुखिया पर सबकी जिम्मेदारी होती थी। बुजुर्गों द्वारा आने वाली पीढ़ी को अपनी संस्कृति और परंपराओं के साथ मिलकर रहने की सभ्यता का परिचय कराया जाता है। यह एक प्रकार से समाज की आवश्यकता है। इन परिवारों में अपनापन होता है। संयुक्त परिवार में एक अच्छे समाज की संरचना होती है। जबकि आज सब अपने-अपने स्वार्थ में जीने लगे हैं।

एक-दूसरे की भावनाओं को समझना ओर त्याग की भावना खत्म होती जा रही है। युवा पीढ़ी बुजुर्गों की भावनाओं को नहीं समझ पा रही है। शायद इस भौतिकवादी युग में उन्हें धन ओर स्वयं की ही जिंदगी जीने की सबसे बड़ी चीज दिखती है। परिवार कुछ लोगों के साथ मिलकर रहने से नहीं बनता, बल्कि इसमें रिश्तों की मजबूत डोर के सहयोग के साथ अटूट रिश्तों का बंधन होता है।

आधुनिकता की अंधी दौड़ में परिवारों की मान्यताएं बदलती जा रही हैं। पिछले दो दशक से पारिवारिक पद्धति, खासकर संयुक्त परिवार के रूप में काफी बदलाव आया है। संयुक्त परिवारों में एक दूसरे की भावनाओं को समझा जाता है। एकल परिवार में व्यक्तिगत भावना उत्पन्न हो जाती है, जो रिश्तों पर हावी होने लगती है। जहां इस प्रकार की भावना होती है, वहां स्वार्थ आ जाना स्वाभाविक है। परिवार हमेशा मर्यादाओं से बनते हैं, जहां कर्तव्य और अनुशासन होते हैं। आज रिश्तों की डोर में गांठें पड़ने लगी हैं। अक्सर बुजुर्गों से सुना जा सकता है कि हमारे जमाने में बीस-पचीस लोग होने के बावजूद परिवार हंसी-खुशी से रहता था।

आज के एकल परिवार में वह सब कहां है। जिस परिवार में एकता होती है, वहां समृद्धि और शांति के साथ रिश्ते मजबूत होते हैं, जिसमें आपसी प्यार, स्रेह, सौहार्द और परस्पर विश्वास है। उस समय के संयुक्त परिवारों में बच्चों को दादा-दादी ओर अन्य लोग शिक्षाप्रद कहानी सुना कर उनका मनोरंजन करते थे। सब बच्चे अपने बुजुर्गों के सान्निध्य में रहते थे। इतने बड़े परिवार में बच्चों के साथ भेदभाव नहीं किया जाता था। लेकिन आज की सबसे बड़ी विडंबना यह हो चुकी है कि वसुधैव कुटुंबकम् वाली परंपरा समाप्ति के कगार पर पहुंच चुकी है।

दरअसल, जब से इंटरनेट का जमाना आया है, तब से सब एकल परिवारों में भी एकांत में रहना पसंद करने लगे हैं। रिश्ते-नाते बिखर रहे हैं। प्यार और स्नेह औपचारिकता के समान रह गए हैं। सब भावनाएं वाट्सएप और फेसबुक पर सिमटते जा रहे हैं। आज एकल परिवारों में सबसे ज्यादा उपेक्षा के शिकार बच्चे और बुजुर्ग हो रहे हैं। सब अपने अपने जीवन में इतने व्यस्त हैं कि रिश्ते तो दूर, लोग अपने बच्चों ओर माता-पिता को भी समय नहीं दे पा रहे हैं। बुजुर्ग घर के एक कोने में पड़े दिन काटने पर मजबूर हैं।

किसी समय छुट्टियों में अपने नाना-नानी के घर जाने पर बच्चों के भीतर जो खुशी होती थी, वह एक अलग ही अहसास कराती थी। उस समय रिश्तों को बोझ नहीं समझा जाता था, बल्कि रिश्तों की जरूरत समझी जाती थी। अब यह सब आधुनिक जीवन में सिर्फ सपने रह गए हैं और परिवार के विचारों में भिन्नता आने लगी है। आज दिखावे की होड़ में पड़ कर हम सिर्फ अपना स्वार्थ हल करने पर लगे हुए हैं। हमने अपने कर्तव्यों ओर मूल्यों को पीछे छोड़ दिया है। अपने दायित्वों को भूल चुके हैं।

आज शहरों-महानगरों में भीड़ बढ़ती जा रही है, दड़बे की तरह बहुमंजिला इमारतों में हजारों लोग रहते हैं, मगर सब अलग-अलग। किसी के दुख-सुख से किसी को मतलब नहीं। कभी सामूहिक आयोजन होता दिखता भी है तो वह बस किसी तरह औपचारिकता निभाने की तरह होती है। संवेदनात्मक लगाव के तत्त्व अनुपस्थित रहते हैं। ऐसे में लोगों को तब परिवार की कमी खलती है जब किसी आपात स्थिति में किसी अपने की जरूरत महसूस होती है। कभी लगता है कि कोई पास होता, जिससे अपने दुख बांटे जा सकते या खुशी साझा की जा पाती।