सरस्वती रमेश
दीपावली प्रकाश का पर्व है। सुख-समृद्धि, अच्छाई और जीवन में फैले तमस को विसर्जित कर इसे आलोकित करने का पर्व है। प्रकाश का स्वभाव मनुष्य के सात्विक गुणों का विस्तार है। इसका संबंध ज्ञान, चेतना, आशा, निर्भयता और जीवन की सकारात्मकता से है। इसकी उत्पत्ति हमारे जीवन को अर्थपूर्ण बनाने के लिए हुई है। हमारी क्षमताओं को, आकांक्षाओं को, विचारों को सही दिशा दिखाने के लिए हुई है।
बिना इस ज्योति के मनुष्य पंगु जीवात्मता है। उसकी चेतना सपाट है। उसका मष्तिष्क विचारों से कोरा है। उसके कर्म निरुद्देश्य हैं। उसकी दृष्टि शून्य है। यह शून्यता मनुष्य के भीतर से मनुष्यता के विनाश का कारक है। हमारी सामाजिकता के पर कुतरने का हथियार है। तमाम असामाजिक तत्त्वों के मूल में यही विचारशून्यता है। यही तमस है। दीपावली जीवन में ज्योति की पुकार है। हमारी प्रकृति से, अपनी चेतना से यही अपेक्षा होगी कि हमें प्रकाश की ओर ले चलो… अंधियारे से निकालो… असत्य से दूर ले चलो… अज्ञानता से बाहर लाओ।
प्रकाश क्या है? निरंतर परिष्कृत, निरंतर जागृत होने की प्रक्रिया। ये परिष्कार हमारे अंतर का है और जागरण सामाजिकता का है। हम सामाजिक हुए बिना सार्थक नहीं हो सकते हैं। समाज का उत्थान ही हमारा उत्थान है। समाज का पतन हमारा भी पतन है। हम सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। एक ही प्रकृति का हिस्सा हैं। हमारे हित और अहित एक दूसरे से प्रभावित होते हैं। हमारे कार्यों का प्रभाव दूरगामी है। यही प्रकाश का भी स्वभाव है।
दीपक अपने आप से प्रकाशित हुआ तो आसपास भी रोशनी जरूर फैलाएगा। संसार को आलोकित कर देगा। इसीलिए दीये की महत्ता आदमकद अंधेरे से अधिक है, क्योंकि एक नन्हा-सा दीपक पूरे कमरे को प्रकाश से भर देता है। जलता हुआ दीपक अपनी रोशनी को अपने तक सीमित नहीं रख सकता और ज्ञानी मनुष्य अपने ज्ञान को अपने आप तक रोककर नहीं रखता। उसे संसार को देना ही उसकी नियति है। उसका स्वभाव है। प्रकाश सृजन है। अनुदान है। बिना प्रकाश की संकल्पना के यह सृष्टि नहीं चल सकती। उत्पादन नहीं हो सकता। इसलिए हमें हर हाल में प्रकाश की ओर जाना ही होगा।
प्रकाश का हर रूप सुखद और सुंदर होता है। प्रकाश कभी ज्ञान रूप में हमें मिलता है, कभी समृद्धि के रूप में। हमारी चेतना में बैठे ईश्वर की प्राप्ति भी हमें प्रकाश रूप में ही होती है। प्रकाश हमारे भीतर के विशेष गुणों का प्रतिनिधि है। मनुष्य के भीतर सदाचार, प्रेम, करुणा सहिष्णुता का गुण इसी अखंड ज्योति के प्रतीक हैं। जीवन में प्रकाश है तो सब शुभ और लाभ है।
अंधकार अशुभ और हानि है। जीवन की हानि, संकल्पों की हानि, प्रकृति और पर्यावरण की हानि, मनुष्यता की हानि। संवेदनाओं का लोप। अंधकार किसी भी रूप में हो, दुखदायी होता है। चाहे अज्ञानता का अंधकार हो या भय, निराशा, संशय का अंधकार। दुर्गुणों का अंधियारा हो या दुराग्रहों का। क्रोध या कुंठा का।
हर युग में अंधकार अपनी आदमकद परछाई से प्रकाश को ढकने की कोशिश करता रहा है और हर युग में प्रकाश ने उसको हराया है। अंधियारा मनुष्य को छलने के लिए आता है। उसे राह से भटकाने के लिए उसका जन्म हुआ है। अंधकार और प्रकाश की राहें नितांत जुदा हैं। दोनों में आपसी बैर है।
अंधकार और प्रकाश के बीच एक युद्ध चलता रहता है, जिसमें आखिरकार प्रकाश की विजय निश्चित होती है। इसलिए प्रकाश को बार-बार आना पड़ता है। इसलिए दीपावली जैसे प्रकाश पर्व को बार-बार आना पड़ता है। दीपावली हमारी चेतना को जागृत करने का कार्य करती है। दीपावली सिर्फ बाहरी अंधियारे को मिटाने का प्रतीक नहीं है, बल्कि मन के कोठर की काली परतों को चमकाने का भी मौका है।
मनुष्य को दो तरह के अंधकार से लड़ना है। एक वह जो बाहर विराजमान है और दूसरा उसके भीतर मौजूद है। बैर, कटुता, ईर्ष्या, द्वेष, अराजकता, लोभ और गलत आचरण का अंधकार। भीतर के अंधकार से लड़े बिना वह बाहर के अंधियारे को नहीं मिटा सकता, क्योंकि भीतर का अंधियारा कहीं गूढ़ है।
इस अंधियारे की परत इतनी मोटी है कि इसे पार कर कोई रोशनी बाहर नहीं आ सकती। इसलिए पहले इस परत को समूल रूप से हटाना उजियारे की ओर पहला कदम है। अंधकार मनुष्य के गुणों को सीमित करने के लिए आता है। मनुष्य को मानसिक भय की ओर खींचता है। नकारात्मक ऊर्जा का स्रोत है। इसलिए रोशनी की महत्ता और भी बढ़ जाती है। दिवाली की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है।
आज दीपमालाएं टिमटिमा रही हैं। हर ओर उजास ही उजास है। अंधेरे का नामोनिशान नहीं है। हम सबने अपना अपना दीपक जला लिया है। अपने प्रकाश को पहचान लिया है। मन प्रफुल्लित और हृदय आनंदित है। ऐसे में कहीं भी अंधेरा न बचे। अभाव न रहे। बुराई न दिखे। नकारात्मकता का अंधियारा न आए। यह संदेश संसार भर में फैले, इन जगमगाती लड़ियों की रोशनी की तरह।