अमिताभ स.
एक कहावत है कि शीशे के घरों में रहने वालों को दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंकने चाहिए। लेकिन हाल में देखा कि इस मशहूर कहावत से शायद बेखबर समझदार नेता शीशे के घरों में रहने के बावजूद अपने विपक्षी नेताओं के घरों पर पत्थर मारने से बाज नहीं आए। अपने गिरेबान में झांके बिना सभी बेमानी बहसों में उलझते रहे।
इस पर एक छोटा-सा उद्धरण है- एक बार एक संत ऐसे गांव से गुजरे जहां एक विद्वान रहते थे। उनके शिष्यों ने उन दोनों में एक वाद-विवाद कराने की योजना बनाई, ताकि जाना जा सके कि कौन ज्यादा प्रतिभाशाली है। उनमें तीखी बहस का अंदेशा था, इसलिए आयोजन स्थल पर भीड़ जमा हो गई। मगर वहां जो हुआ, वह देख कर सभी हैरान हो गए। उन दोनों विद्वानों ने एक दूसरे को सादर नमन किया और चुपचाप अपने-अपने घर लौट गए।
बाद में एक युवा शिष्य ने एक संत से पूछ लिया कि उन्होंने वाद-विवाद क्यों नहीं किया! संत ने जवाब दिया, ‘वह जानता था कि मैं जानता हूं। मैं जानता हूं कि वह जानता था।’ असल में, दोनों महापुरुषों ने उस छोटी-सी मुलाकात में ही एक दूसरे की योग्यता को भली-भांति पहचान लिया था। साथ ही, समझ भी लिया था कि केवल दिखावे के लिए कुछ साबित करने की जरूरत नहीं है। इस प्रकार, शालीन मौन ने सब कुछ कह दिया।
एक श्लोक है- ‘मौनं सर्वार्थ साधनम्’। तात्पर्य यह है कि मौन का औजार हर मोर्चा जीतने की शक्ति रखता है। मौन बेसिर-पैर की बहसों की और क्रोध से छुटकारे की सर्वश्रेष्ठ और कारगर चिकित्सा भी है। निराधार बोलना और कटु वचन इंसान के बड़े आंतरिक शत्रु हैं, क्योंकि इससे खुद पर की काबू खो जाता है और मुख से अपशब्द निकल पड़ते हैं।
बोलने या न बोलने के द्वंद्व पर स्वामी विवेकानंद की राय है कि श्रेष्ठ इंसान होने का मतलब दूसरों को अस्वीकार करना नहीं है। श्रेष्ठ इंसान दूसरों और अपने विचारों में जो अच्छा है, बेहतर है, उसे स्वीकार करता है। साथ-साथ हमारे भीतर और दूसरों के भीतर जो बुरा है, उसे भी स्वीकार करने से नहीं पीछे हटता।
इसीलिए माना जाता है कि पहलवान असली बलवान नहीं होता, बल्कि बलवान वह है, जो खामखा की बहसों में न उलझे और उससे जन्मे क्रोध में खुद को नियंत्रित रख सके। कहा भी गया है कि सहन न करना और बात-बेबात पर गाली-गलौज में उलझे रहना सही समझ के दुश्मन हैं। लेखक आरिसन स्वेट मार्डेन के मुताबिक वाद-विवाद बुरा नहीं है।
इसमें बुराई तब है, जब इंसान विवेक खो देता है और आपे से बाहर हो जाता है। वास्तव में, विवेकशीलता से ही व्यक्ति सही-गलत का बोध करता है। जब-जब चित्त शांत होता है, मन-मस्तिष्क में स्थिरता आ जाती है। फिर कोई झूठ-मूठ की बहस या अपने झूठ को सच साबित करने में नहीं जुटता। इसीलिए नासमझ ही बहसों को बढ़-चढ़ कर हवा देता है, जबकि समझदार खुद पर काबू रखता है।
हर बच्चे को उसकी दादी-नानी बचपन में सीख देने वाले कई वृत्तांत सुनाती है। बाल पत्रिकाओं में भी ऐसी छोटी-छोटी कहानियां पढ़ी जा सकती हैं। ऐसा ही एक वृत्तांत है- गुरु नानक देव अपनी पद यात्राओं के दौरान मुल्तान पहुंचे, तो वहां पहले से कई धर्म प्रचारक मौजूद थे। एक संत ने उन्हें दूध से लबालब भरा कटोरा भेजा। गुरु नानक देव ने बगीचे से चमेली का एक फूल तोड़ कर दूध पर हल्के से टिका दिया और कटोरा संत को लौटा दिया।
दूध से लबालब कटोरा जैसे का तैसे बिना पिए लौटा देख कर संत के शिष्य तिलमिलाए। शिष्यों को लगा कि गुरु नानक देव ने उनके गुरु का अपमान किया है। संत ने उन्हें शांत किया और समझाया- ‘शिष्यो, परेशानी की कोई बात नहीं है। बात इत्ती-सी है कि मैंने गुरु नानक से एक प्रश्न किया था। प्रश्न था कि मुल्तान में पहले से ही दूध जैसे पवित्र-शुद्ध चरित्रवान संत विराजमान हैं, फिर उन्हें यहां पधारने की क्या आवश्यकता आन पड़ी? उन्होंने उत्तर भेजा कि जैसे कटोरे में लबालब भरे दूध का चमेली के फूल ने तिनका भर भी हर्ज नहीं किया, बल्कि उसकी शोभा ही बढ़ाई है। मैं भी इसी तरह इस नन्हे चमेली के फूल की भांति यहां रहूंगा।’ माना जाता है कि ज्यादा बोलने वाला इंसान कभी भी तथ्यपूर्ण बातें नहीं करता।
इसलिए कम बोलना चाहिए, ताकि सटीक बोला जा सके। कबीर के वचन सदियों से नसीहत दे रहे हैं कि ‘ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोय/ औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय’। तात्पर्य है कि बहस छिड़े, तो भी ऐसी मधुर वाणी का साथ कतई मत छोड़िए कि कहने वाले का मिजाज भी शीतल रहे और सुनने वाला भी प्रसन्न हो जाए। सो, बेहतरी और समझदारी इसी में है कि बहसबाजी में खपती भारी उर्जा को सही दिशा दी जाए। रूसी साहित्यकार चेखव यशमय जीवन के तीन सरल सूत्रों का जिक्र करते हैं- ‘सदा धीमे बोलो, कम बोलो और मीठा बोलो।’ यही मंत्र झूठ, क्रोध और कटुता से बचाव की शक्ति बन कर उभरता है।