धन कमाने की चाह रखना कोई गलत बात नहीं है। मेहनत करके रुपया जोड़ने की इच्छा एक तरह की सकारात्मक चाह है, जो रोटी, कपड़ा और छत हासिल करने में सहायक होती है। संसार में जीने के लिए धन जरूरी है। इसीलिए किसी हुनर पर चिंतन, मंथन और उसमें अभ्यास करके पारंगत होना, फिर उससे धन कमाने की जुगत स्वाभाविक है। इस प्रक्रिया में मेहनत और लगन एक आधारभूत भूमिका निभाते हैं। लगभग सभी अपने मन की सचेतन और जागृत अवस्था में यह सोचते हैं। काम करके रुपया मिलेगा, पैसा आएगा, नकद या डिजिटल। मगर आज के भौतिक सुख प्राप्ति के समय में हर बात पर हर चीज के बदले बस धन की प्राप्ति हो, यही बात जरा नकारात्मक है।

धन कमाने में पूरा जीवन लगाना मानसिक बिमारी है

धन पाकर अमीर बनने का स्वप्न इंसान के दिलोदिमाग पर निरंतर प्रवहमान और परिवर्तनशील होते हैं। कुछ लोग अमीर बनकर अपना अतीत भी भूल जाते हैं। आडंबर करने लगते हैं। फिर मानसिक रोगी बनते हैं। बचा-खुचा धन इलाज में खप जाता है। मगर आज इस पर सतत चिंतन की जरूरत है। समझ होनी चाहिए कि रुपया कमाना है, इसलिए कि जी सकें। यह पूरा जीवन ही धन कमाने में लग जाए, यह मानसिक विकार है। येन-केन-प्रकारेण किसी के कंधे पर चढ़कर या किसी का हक मारकर या किसी को बेवकूफ बनाकर या खुद को मशीन बनाकर दौलत जमा करना निंदनीय है। कुछ समय पहले एक विचार गोष्ठी में एक साठ वर्ष का कारोबारी उठा और रोने लगा। उसने ही पैसे खर्च कर उस गोष्ठी का आयोजन कराया था। मगर उसके रोने की वजह यह थी कि उसने पैंतीस साल तक खूब मुनाफे पर ‘बेबी फूड’ बेचा, मगर मिलावट भी खूब धड़ल्ले से करता रहा। मगर जब उसके जुड़वां पोते विकलांग पैदा हुए और इलाज भी काम न आया, तब उसने इसे अपने कर्म का फल मानकर यह काम ही बंद कर दिया।

धनवान होना जरूरी, परन्तु रातोंरात नहीं होना चाहिए

इस तरह का अनुभव लोगों के लिए एक ज्वलंत उदाहरण है कि धन कमाना चाहिए, मगर गलत ढंग से नहीं। धन कमाने की ललक में किसी को धोखा देना भी एक ऐसा कर्म है, जो किसी के हाथों हमें भी चुकाना ही होगा। मौजूदा परिवेश में विकास और भावी योजनाओं की समृद्धि के लिए धनवान होना जरूरी है, मगर इसमें रातोंरात नहीं। मेहनत करते हुए धीरज रखना ही सबसे अच्छा कदम है। धन एकत्र करने की धुन में यथासंभव दूसरों की जेब में डाका कभी भी नहीं डालना चाहिए। बुद्ध राजकुमार थे, लेकिन सब धन त्याग दिया, तब जीवन सफल हुआ। स्वामी विवेकानंद ने राजघरानों में खुद जाकर चंदा मांगा, तब जाकर मानवता के लिए अपना उद्देश्य पूरा कर सके।

धन-दौलत पर एक ही व्यक्ति के विचार समय, स्थिति और स्थान के अनुरूप अलग-अलग हो सकते हैं। माहौल के कारण व्यक्ति लोभी भी बन जाता है और कभी दानी भी। धन को लेकर मन में उठने वाली प्रत्येक बात या सूझ भी उपयोगी नहीं होती है। जुए से कौड़ी को अशर्फी बनाने का विचार उपयुक्त नहीं है। कारण कि इसके मूल में चिंतन की प्रौढ़ता और परिपक्वता नहीं है। बहुत अधिक धन रखने वाले व्यक्ति को धनवान कहा जा सकता है, लेकिन जरूरत पर भी खर्च न कर उसे बहुत अधिक संभाल कर रखने वाले व्यक्ति को विवेकी तो नहीं कहा जा सकता। विवेकवान से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है, जिसके धन में समाज का हित और आत्मकल्याण का भाव निहित हो। एक बहुत ही सुंदर प्रसंग है। कविवर निराला एक बार रात के समय कवि सम्मेलन से लौट रहे थे। राह में एक भिखारी कड़ाके की ठंड में कांप रहा था। भूखा भी था। निराला को कवि सम्मेलन से धनराशि का एक लिफाफा मिला था। उन्होंने वह धनराशि उस गरीब पर खर्च कर दी। उसके बाद आनंद से झूमते हुए चले।

हमारा धन किसके लिए उपयोगी है, इन विचारों की त्वरा हमारे अंदर एक नागरिक का भाव पैदा करती है, जबकि मेरा धन मेरे लिए है, इसको बस मैं ही भोगता रहूं, ऐसे भाव हमें अमानुषिकता की ओर ले जाते हैं। धनवान बनकर सामाजिक से साधक तक की मानवता की एक पूरी यात्रा होती है। धन से किसी का भला हो, यह एक तरह का परोपकार है। यह जन कल्याण की उमंग है। यह भूलना नहीं चाहिए कि धन भी समाज कल्याण का माध्यम है। धन को सबसे साझा करना, मन की उन्नत अवस्था का सूचक है। जबकि धन पाकर मन में चंचलता, लोभ और कंजूसी अपरिपक्व मन की निशानी है। शास्त्रों में बताया गया है कि हम अपने धन से समाज में समानता और सौहार्द निरंतर उत्सर्जित करें और संतोष बनाए रखें। कमाई हुई पूंजी समाज कल्याण के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन है, लेकिन कभी-कभी देखने में आता है कि व्यक्ति संसाधनों का दुरुपयोग कर भ्रष्ट तरीके से अपने लिए धन संग्रह कर लेता है।

कई बार गरीब कल्याण योजना के प्रणेता भी लोक कल्याण की आड़ में नकद राशि का दुरुपयोग कर आत्म-उन्नयन में लग जाते हैं। वे किसी खास समुदाय, धर्म या संप्रदाय के उत्थान और उन्नयन का सब्जबाग दिखाकर एक फर्जी फाइल बनाते हैं और उसे ही प्रचारित करते हैं और संस्थाएं स्थापित करते हैं। फिर समर्थकों का एक जनसमूह तैयार करके उसका उपयोग आत्म-उन्नयन और धन संचयन के लिए करते हैं। ऐसी स्थिति में वे केवल लोभी और धन के दास मात्र बनकर रह जाते हैं। इसीलिए अपने समाज को परिवार मानकर उसका कल्याण करने वाले मेहनत करके जो दौलत पाते हैं, उससे वे धन-लोलुप नहीं बनते। ऐसे लोग जब भी नजर आते हैं, उनके निखरे हुए चेहरे, संतोष भरी वाणी, बातचीत आदि इस बात को खुद ही प्रमाणित कर देते हैं।