समाज ने कठिन परिस्थितियों में कष्ट को कम करने की क्षमता तो विकसित कर ली, लेकिन ऐसा लगता है कि शेष रह गई पीड़ा से निपटने की क्षमता ज्यादातर लोगों ने खो दी है। वैज्ञानिकों के अध्ययन इस बात पर जोर देते हैं कि आधुनिक पाश्चात्य समाज के अधिकांश लोग इस विश्वास में जीते हैं कि संसार रहने के लिए अच्छी जगह है, अधिकांश जीवन अच्छा है और यह कि वे स्वयं अच्छे लोग हैं और अच्छी चीजें पाने के अधिकारी हैं। ये विश्वास अधिक खुशहाल और स्वस्थ जीवन जीने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। मगर कष्टों का होना चूंकि निश्चित है, इसलिए यह बात इस विश्वास को कमजोर कर देती है और खुशी पाना और अच्छे ढंग से जीना कठिन बना देता है। इस संदर्भ में जब इस दुनिया के न्याय और दया से व्यक्ति का विश्वास उठ जाता है, तो छोटी-छोटी तकलीफ भी बड़ा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डाल सकती है। इस कारण पीड़ा बहुत ज्यादा महसूस होती है।

कष्ट से सिर्फ अस्थायी तौर पर बचा जा सकता है, स्थायी नहीं

कष्ट से सिर्फ अस्थायी तौर पर बचा जा सकता है, मगर किसी ऐसी बीमारी की तरह, जिसका उपचार न करवाया जाए तो बीमारी बढ़ती जाती है। दवाओं से कुछ देर का आराम तो मिल सकता है, लेकिन लगातार प्रयोग से शरीर को होने वाले नुकसान और जीवन में होने वाले सामाजिक नुकसान के कारण असंतोष या भावनात्मक दर्द से अधिक पीड़ा हो सकती है। पीड़ा को अस्वीकार करना या मनोवैज्ञानिक रक्षा प्रणाली कुछ समय के लिए हमें उस दर्द को सहन करने से बचा सकती है, लेकिन इससे हमारा कष्ट दूर नहीं होता।

कभी-कभी अपनी समस्याओं से बचने की हमारी अचेतन रणनीतियां बहुत गहराई लिए होती हैं। ये इतनी गहरी होती हैं कि हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती हैं और कई बार उन्हें बाहर निकालना भी मुश्किल हो जाता है। आमतौर पर हर दूसरा व्यक्ति समस्याओं से बचने के लिए दूसरों को दोष देता है। ऐसे दोष जो वास्तव में खुद के ही होते हैं। यह समस्याओं के समाधान का प्रभावी तरीका नहीं है और यह स्वभाव लोगों को हमेशा दुखी रखता है।

ज्यादातर मामलों में दुविधा ही दुख का मुख्य कारण बनती हैं

ज्यादातर मामलों में दुविधा ही दुख का मुख्य कारण बनती हैं। उदाहरण के लिए, किसी दंपती को गर्भस्थ शिशु में कोई गंभीर शारीरिक, मानसिक विकलांगता का पता चल जाए तो ज्यादा संभावना है कि वह दंपती दुविधा में फंस जाएगा कि अब उन्हें क्या करना चाहिए। संभव है कि जिंदगी भर के कष्ट से बचाने के लिए शिशु के जन्म देने के फैसले पर विचार करना पड़ जाए, लेकिन महिला को उस क्षति और दुख की वजह से गंभीर पीड़ा महसूस होगी और हो सकता है अपने फैसले पर अमल करते हुए उसे अफसोस और ग्लानि भी हो। इससे अलग, यह भी हो सकता है कि प्रकृति अपना काम करे और बच्चे को जन्म लेने दिया जाए। मगर इससे उसके और बच्चे, दोनों के लिए जीवन भर की परेशानी और कष्ट की स्थिति बन सकती है।

हममें से किसी को भी इस तरह की दुविधाजनक परिस्थितियों का सामना कर पड़ सकता है और हम खुद को इसके लिए मानसिक रूप से तैयार कर सकते हैं। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि ऐसा करने से उस स्थिति में कोई सुधार नहीं होगा। बस इससे हमें मानसिक रूप से हालात से निपटने में मदद मिल सकती है, हमारा डर कुछ कम हो सकता है, लेकिन इससे समस्या का समाधान नहीं हो सकता।

पीड़ा के प्रति हमारे दृष्टिकोण में इस बात की भूमिका होती है। उदाहरण के लिए, अगर हमारा मूल नजरिया यह है कि कष्ट नकारात्मक है, इससे किसी भी रूप में बचना चाहिए और यह असफलता का प्रतीक है, तो इससे कठिन परिस्थितियों में चिंता और असहिष्णुता का विशिष्ट मनोवैज्ञानिक अंश जुड़ जाएगा और यह हमारे ऊपर हावी हो जाएगा। दूसरी ओर, अगर हम कष्ट को जीवन का स्वाभाविक अंग मानते हैं तो निश्चित रूप से यह नजरिया हमें जीवन की कठिनाइयों के प्रति अधिक सहनशील बना देगा। यों भी दुख किसी को अच्छा तो नहीं लगता, लेकिन जीवन में अलग-अलग वजहों से मिलने वाले दुख हमें जीवन के संघर्षों से परिचित कराते हैं और बेहतर रास्तों की तलाश के प्रति ज्यादा जुझारू बनाते हैं।

जीवन की दैनिक सच्चाइयों के संपर्क में रहने वाले लोग आसानी से इस बात को नकार नहीं सकते कि जीवन में कष्ट आते हैं और यही जीवन का स्वाभाविक रूप है। किसी न किसी को दोष देने और पीड़ित अनुभव करते रहने का खतरा हमारे कष्ट को बढ़ाता है और इससे कुंठा, क्रोध और रोष बढ़ता है। निश्चय ही, पीड़ा से मुक्त होने की इच्छा हर एक मनुष्य का लक्ष्य होता है। यह खुश रहने की हमारी इच्छा का परिणाम है। यह पूरी तरह से उचित है कि हम अपने दुख के कारणों को खोजें और अपनी समस्याओं को कम करने के लिए जो कुछ कर सकते है, वह करें। जब तक हम कष्ट को अस्वाभाविक असामान्य अवस्था मानते रहेंगे और उससे डरते रहेंगे, बचेंगे और उसे अस्वीकार करेंगे, तब तक हम कष्ट के कारणों को दूर कर कभी सुख से नहीं जी पाएंगे।

समस्याओं से संघर्ष कर जीवन को एक नया आयाम देना चाहिए। जिन लोगों को प्रसन्न रहकर जीवन जीने की कला आती है, वे आनंद का मार्ग अपनाते हैं। एक ऐसा आनंद जो उन्हें हर परिस्थितियों से, हर समस्याओं से परे रखकर जीवन को सुखी बनाने में मददगार बनता है।