गौरव बिस्सा
पुस्तकों को घोंटते बच्चे, मौन और सुप्त-सा बचपन, जिसमें खेलकूद और हंसी-ठिठोली गायब है और इन सबसे ऊपर स्कूल और माता-पिता का पढ़ाई के लिए जबरदस्त दबाव! इसी आपाधापी में बीत रहा है बचपन, जिसमें न तो शरारत है, न आनंदित करने वाले खेल और न ही बचपना। बच्चों का जीवन मानो एक मशीन बन गया है और उसके लिए जिम्मेदार है माता-पिता की अदम्य आकांक्षा और उम्मीदों का बोझ। आज अभिभावक बच्चे से चाहते हैं कि वह हर चीज में सर्वोत्तम हो। उन्हें खुद से पूछना चाहिए कि क्या वे अपनी उस उम्र में हर विषय में अव्वल थे। शायद नहीं। फिर संतान पर बोझ क्यों?
नन्हे बच्चों से इतनी भी क्या उम्मीदें पालना कि उनका बचपन, शौक और बालमन का सुख ही समाप्त हो जाए! बच्चों से इतनी उम्मीदें, उन पर इतना ज्यादा नियंत्रण आखिर किसलिए? वह कार्य जो अभिभावक नहीं कर सके, उसे बच्चों द्वारा संपादित किए जाने का दबाव स्वार्थ नहीं तो और क्या है? इस समस्या का मूल है अभिभावकों द्वारा बच्चों से अत्यधिक अपेक्षा और उन्हें सर्वगुणों से संपन्न बनाने की चाहत। प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा में बच्चों पर अनावश्यक दबाव डाला जाता है।
माता-पिता अपने स्नेहीजनों के समक्ष शान से कहते हैं कि ‘मेरे बच्चे ने तो दूसरी कक्षा में वह सीख लिया है जो मैंने पांचवीं में सीखा था।’ लेकिन ऐसा करते हुए वे भूल जाते हैं कि इस क्रम में बच्चा मशीन-सा बन गया है। स्कूल, आने-जाने का समय, ट्यूशन, खेल की कक्षाएं, होमवर्क और इसके बाद भी तकनीक आधारित खेल और कई व्यस्तताएं। वही खेल, जिनमें पढ़ाई छिपी हुई हो। चार साल के बच्चे के कोमल मन की आर्त पुकार है कि ‘मैं कब खेलूं, कब शरारत करूं और बचपन की धमाचौकड़ी कैसे करूं?’ इस ‘क्यों’ का जवाब किसी अभिभावक के पास नहीं है।
प्रारंभिक शिक्षा में अध्ययनरत बच्चों के अभिभावकों के बीच एक व्यर्थ-सी प्रतियोगिता शुरू हो चुकी है। अभिभावक अपने बच्चों से इतनी ज्यादा अपेक्षा करने लगे हैं कि उन्हें क्रिकेट सीखने भेजने कुछ दिनों में ही अपने बच्चे में एक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खिलाड़ी चाहिए। छोटी उम्र में वे बच्चों को माडल, नर्तक, क्रिकेट खिलाड़ी और राज्य स्तर का जिमनास्ट बनाने में जुटे हैं।
समझ नहीं आता कि एक अंगुली को दूसरी जितनी लंबा बनाने के लिए दूसरी अंगुली को क्यों खींचा जा रहा है? अंगुली टूट जाएगी, लेकिन अपनी वास्तविक आकृति नहीं छोड़ेगी। सभी अंगुलियां एक बराबर नहीं होतीं। सभी के कार्य अलग-अलग हैं, परिभाषित हैं। अब अगर हम अंगूठे को खींच-खींचकर उसे अंगुली बनाना चाहेंगे तो क्या होगा? अंगूठा टूट जाएगा। इसी तरह जो बच्चा गणित नहीं सीखना चाहता, उसे जबरदस्ती इंजीनियर बनाएंगे तो क्या वह देश के लिए योगदान दे सकेगा? कतई नहीं. खरगोश को नकली पंख लगाकर पहाड़ी से गिराएंगे तो वह पक्षी नहीं बनेगा, बल्कि उसकी टांगें टूट जाएंगी। अब वह भागने का काम भी न कर सकेगा, जो वह कर सकता था।
बच्चों की इस अवस्था के लिए बाजार के प्रवाह और अपने सपनों में गुम माता-पिता जिम्मेदार हैं। पिता अपनी महत्त्वाकांक्षा का बोझ अपनी संतान पर डालकर उसे बेलगाम बनने के लिए प्रेरित करते हैं, बाकी लोग परोक्ष तरीके से इसका समर्थन करते हैं। सभी सब कुछ समझते हुए भी नासमझ बनने का नाटक करते हैं। इसी रवैये से कोई बच्चा मानवीय गुण खो देता है। हमें याद रखना चाहिए कि कहीं हम भी अपनी संतान के साथ ऐसा ही व्यवहार तो नहीं कर रहे! ऐसा व्यवहार संतान को अकेला बना देगा।
बच्चों का बढ़ता अकेलापन आज के समय का बड़ा गंभीर मुद्दा है। अकेलेपन के कारण बच्चों में बागी तेवर बढ़ रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि किसी को उनकी चिंता या परवाह नहीं है। दोस्त नहीं, रिश्तेदार नहीं। बच्चे कहां जाएं, कहां खेलें, क्या करें- ये अनुत्तरित प्रश्न हैं। इस अवस्था में ‘बिगड़े हुए बच्चों’ का झुंड तैयार नहीं होगा तो और क्या होगा? ऐसे में बच्चे मोबाइल गेम में, खराब फिल्मों में या अनर्गल गतिविधियों में लिप्त होकर सुख की तलाश करते हैं और यहीं से शुरू होती हैं समस्याएं।
‘तुम जीतोगे और जीत के रहोगे’ जैसे शब्दों ने बच्चों के मन में यह डर बिठा दिया है कि अगर वे किसी कारण से विफल हो गए तो जीवन में कुछ शेष न रहेगा। जितना जरूरी बच्चों को जीतना सिखाना है, उतना ही जरूरी है कि उन्हें संघर्ष के बाद हारना भी सिखाया जाए। उन्हें बताया जाए कि हार भी जीवन का अभिन्न अंग है।
हार स्वीकार न कर पाने की प्रवृत्ति के कारण युवाओं का मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ रहा है और आत्मघाती प्रवृत्तियां विकसित हो रही हैं। इसलिए अभिभावकों को चाहिए कि बच्चों को सिर्फ प्रेरित न करें, बल्कि कठोर सच्चाइयों से भी अवगत कराएं और तपाएं। आग में तपने के बाद ही भोजन स्वादिष्ट बन पाता है। इसी तरह जीवन में भी तपना या संघर्ष करना जरूरी है। संतान को भी थोड़ा तपने दिया जाए, यही लालन-पालन का गूढ़ सूत्र है।