वर्षों गुजर जाने के बाद भी बीते दिन पल-पल लुभाते हैं। बचपन में रेत के घर बनाना, कंचे या स्टापू खेलना, झमाझम बरसात में कागज की कश्ती तैराना, कागज के तिकोने हवाई जहाज बना-बना कर उड़ाना..! ऐसी बालमन की छोटी-छोटी खुशियों से लबालब लम्हें ताउम्र यादों में बस जाते हैं। इन यादगार लम्हों की कशिश ही है कि जब-जब याद करते हैं, तब-तब मन पुलकित हो उठता है। जब शोहरत और दौलती तामझाम से लदते हैं, तो ऐसे यादगार पलों को जी पाना जिंदगी से दूर हटता जाता है। नतीजतन, आसपास बिखरी हरी-भरी घास और पेड़-बूटों पर खिले फलों-फूलों को निहारने से चूकते जाते हैं। सुबह-सवेरे चिड़ियों की चहचहाहट सुनने के लिए कान नहीं बचते। रिसर्च फार माइंड लैब के न्यूरो साइकालजिस्ट डाक्टर डेविड लुइस का मानना है कि पतंग उड़ाना, रेत के घर बनाना, नाव तैराना जैसे छोटे-छोटे अनुभव इंसान को हमेशा याद रहते हैं। ऐसे पलों को दिल-दिमाग कभी न भूलने वाले खाने में संजोए रखता है।

जो अब बदल चुका होता है, उसे मन स्वीकार नहीं कर पाता

कुछ दिन पहले दिल्ली को एक नामी निजी स्कूल के संस्थापक अतीत से प्यार के बारे में बताने लगे कि उनके स्कूल में चालीस वर्षों के बाद हाल ही में फिर से नया निर्माण कराया गया है। बाहरी दीवार से लेकर मैदान, गलियारे, कक्षाएं, पुस्तकालय, क्लीनिक और शौचालय तक को नई शक्ल दी गई है। इसके बावजूद पुराने विद्यार्थी स्कूल आते हैं तो कहते हैं- सर, पहले सादे रूप में स्कूल ज्यादा भाता था। इस पर सोच में पड़ जाना स्वाभाविक है कि कुछ करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद कोई चीज अगर अच्छी न लगे, तो यही कहेंगे कि अतीत हमेशा अच्छा लगता है।’
जब बच्चा स्कूल में पढ़ता है, तो स्कूल में कक्षाओं के बीच से भागता है, न जाने के बहाने ढूंढ़ता है। जबकि स्कूल से निकल जाने के बाद वही विद्यार्थी स्कूली दिनों को जिंदगी के सबसे बेहतरीन दिन मानता है। बुजुर्ग होने तक हर मन फिर-फिर स्कूल जाने को बेकरार रहता है। इसीलिए सयाने समझाते हैं कि हमेशा मौजूदा समय को जीना चाहिए, भले कितनी ही विकट परिस्थितियों से दो-चार क्यों न होना पड़े। असल में यादों की तरह पुराना जमाना हमेशा मधुर लगता है। जो अब बदल चुका होता है, उसे मन स्वीकार नहीं कर पाता। हालांकि वर्तमान पहले से कई गुना सुविधाजनक और आरामदायक हुआ होता है।

छतों से कूदना छत पर, छतों पर चढ़ जाना, घर थे, घराने थे, छतों के वे जमाने थे

सच है कि टूटी-फूटी खटारा साइकिल पर दूर-दूर आना-जाना, टिन की छत से पानी टपकना, गंदी गलियों में रहना या गर्मी में खुली छत पर सोना और बारिश आ जाए तो बिस्तर सिर पर उठा कर नीचे भागना..! आज भी याद करके हर किसी को वे पुराने दिन अच्छे लगते हैं। तब उस दौर को जीते वक्त बेशक मन ऊबता रहा हो, उन मुश्किलों से मुक्ति का रास्ता खोजने के लिए जुटे रहे हों, लेकिन आज मुड़ कर देखते हैं, तो उनसे सुकून पाते हैं। याद किया जा सकता है कि पहले हर घर में आंगन होता था, छत भी होती थी। छतों की खुशनुमा यादों को संजोए गुलजार साहब के बड़े प्यारे शब्द हैं- ‘छतों से कूदना छत पर, छतों पर चढ़ जाना/ …घर थे, घराने थे, छतों के वे जमाने थे/ …छतों से जोड़ कर छतें, जब मुहल्ले वाले बातें करते थे/ …छतों पर सूतना मांझे, उड़ानी पतंगें, पेचे लड़ाना..।’

जैसे-जैसे संयुक्त परिवार खत्म होते गए, वैसे-वैसे आंगन और छतें भी नहीं रहीं। आंगन में कोयले की अंगीठी के इर्द-गिर्द सारा परिवार सुबह की चाय-नाश्ते और रात को खाने के लिए चौकड़ी मार कर बैठता था। रात खाने के बाद पीतल की परात में बाजार से चवन्नी-अठन्नी की बर्फ लाकर परिवार के हर सदस्य के हिस्से के चूसने वाले दो-दो आम ठंडे करते थे।

बीता दौर इसलिए भी मौजूदा से बेहतर लगता है कि जब पीछे मुड़कर देखा जाए, तो पाते हैं कि तब जिंदगी धीमी रफ्तार से चलती थी, आज की तरह भागती नहीं थी। संयुक्त परिवार गुजरे जमाने की सबसे बड़ी सौगात थे। दादा-दादी के साथ रहना, उनकी कहानियां सुन-सुन कर नींद आना। नाना-नानी के घर गर्मी की छुट्टियां बिताना। सालों बाद तमाम छोटी-छोटी यादें ताउम्र आनंदित करती हैं। आंगन में बजते रेडियो पर फरमाइशी गाने सुनना या फिर दूरदर्शन पर ‘चित्रहार’ और इतवार की हिंदी फीचर फिल्म देखते टीवी के आगे से न उठाना, अब कहां गए वे दिन।

गली-मुहल्लों में अगल-बगल में घर होते थे। आपसी भाई-चारा और स्नेह इतना था कि कई रात को सोते इधर थे और सुबह जागते उधर। दोपहर को गली में सांझा तंदूर तपता था, सभी औरतें वहीं तंदूरी रोटियां लगा लाती थीं। उस दौर की सुपर हिट ‘सीता और गीता’, या ‘पूरब और पश्चिम’ हो, या फिर, ‘हरे रामा हरे कृष्णा’, देख कर आने वाले कई- कई शामें गली के बच्चों को फिल्म की कहानी सुना-सुना कर दिल बहलाते रहते थे। जितना मजा सुनने वाले को आता था, उतना ही मजा सुनाने वाले को भी आता था। तब कमाइयां कम थीं, समय, संतुष्टि और सुकून के पल खूब थे। ऐसी यादों की याद के सहारे सारी जिंदगी गुजर जाती है। जैसे एक फिल्मी गीत के बोल हैं- ‘बातें भूल जाती हैं, यादें याद आती हैं/ ये यादें किसी दिल-ए-जानम के/ चले जाने के बाद आती हैं..।’ उन दिनों की स्मृतियां बार-बार ताजी हो आती हैं।