आज के दौर में तेज रफ्तार जीवनशैली के पीछे भागती दुनिया के बीच सब चमकता दिख रहा है, लेकिन सामाजिक ताना-बाना बिखरता नजर आ रहा है। छोटे-छोटे या कम उम्र के बच्चे जिस तरह पढ़ाई में लापरवाही, नशा, चोरी, चाकूबाजी, हिंसा, अपराध, नफरत और मोबाइल की लत के शिकार हो रहे हैं, वह भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। समाज के अवांछित लोग इन बच्चों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। शातिर माफिया जानबूझ कर अपने स्वार्थ की खातिर नादान बच्चों को अंधेरी गलियों में धकेल देते हैं। दरअसल, नाबालिगों पर कठोर कानूनी कार्रवाई नहीं होती है, तो इसी का लाभ असामाजिक तत्त्व उठाने की जुगत में लगे रहते हैं।
इसकी चिंता में लोग घुलते हैं, लेकिन सवाल है कि यह रुके कैसे। टेलीविजन पर डरावनी फिल्मों, ओटीटी मंचों और यूट्यूब पर दिखने वाली रीलों में गालियां, हथियार, हिंसा परोसी जाती है। इसका बालमन पर बहुत बुरा और भयावह प्रभाव पड़ रहा है। इन्हीं हालात के दुष्परिणाम समाचारों की सुर्खियां बन रहे हैं। हमारे परिवार, स्कूल और कानून व्यवस्था की कमजोरियां हर रोज उजागर हो रही हैं। ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में बच्चों के लिए बेहतर परवरिश की ओर गंभीरता से सोच-विचार की कोशिश करनी होगी। घर-परिवारों के अभिभावकों को इस दिशा में निरंतर काम करने की बहुत जरूरत है।
बच्चे को बड़ा बनाएंगे लेकिन नेकदिल भी बनाएंगे, यह कोई नहीं सोचता
माता-पिता बनने के बाद संतान का सुख स्वाभाविक है, लेकिन संतान के विकास दिशा परिवार, समाज और देश के लिए सकारात्मक हो, इसके लिए सभी मोर्चों पर ध्यान देना चाहिए और यह तैयारी पहले से शुरू हो जाए तो बेहतर। केवल खाना-पानी, कपड़े, खिलौने देने तक ही अभिभावक का दायित्व सीमित नहीं हो सकता। माता-पिता का पढ़ा-लिखा और समझदार होना और समय पर विवेक का उपयोग करने वाला होना बहुत जरूरी है। घर में बच्चे के आते ही उसके भविष्य को लेकर तरह-तरह की कल्पनाएं कुलबुलाने लगती हैं। सभी अपने बच्चों को ‘बड़ा आदमी’ बनते देखना चाहते हैं। एक अच्छा और सच्चा नेकदिल इंसान बनाने की ओर किसी का ध्यान नहीं होता है। परवरिश में यहीं पर हमसे सबसे बड़ी चूक हो रही है।
बच्चे के स्कूल जाने से बारह वर्ष की उम्र तक उसका विशेष खयाल रखना होता है। उसके शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, बौद्धिक और संवेगात्मक विकास की गति और वृद्धि को निरंतर देखने की जरूरत होती है। अगर किसी पैमाने पर बच्चा कमजोर दिख रहा है तो उसे सहारे की जरूरत है। आजकल जिन घरों में एक या दो बच्चे हैं, वहां पर काम थोड़ा आसान है। मगर देखा यह जा रहा है कि इकलौती संतानें कहीं अधिक जिद्दी, गुस्सैल और नखरीली हो रही हैं। माता-पिता उनके सामने नतमस्तक होकर उल्टी-सीधी सभी बातें मानने को मजबूर हो रहे हैं। उन्हें बच्चों को समझाना होगा और जरूरत पड़ने पर काउंसिलिंग करवानी चाहिए।
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इस दिशा में स्कूल की भूमिका भी बहुत मायने रखती है। बच्चों का समग्र विवरण तैयार करते समय इन सभी बातों का ध्यान कक्षा के अध्यापक को रखना होता है। आमतौर पर वह सभी बच्चों के व्यवहार में होने वाले परिवर्तन पर नजर रखता है और माता-पिता के साथ होने वाली बैठकों या मुलाकातों में उस पर चर्चा भी करता है। शिक्षक की सलाह को ध्यानपूर्वक सुनकर उसके मुताबिक अपने बच्चे के हित में काम करने की जरूरत होती है। बच्चों को नकारात्मक व्यवहार के प्रति हतोत्साहित किया जाना चाहिए। तभी वह आगे चलकर एक अच्छा इंसान बन सकता है।
बच्चे की परवरिश में आस-पड़ोस की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
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बच्चा घर के बाहर जिन बच्चों के साथ खेलता कूदता है, उनका परिवेश भी उसे प्रभावित करता है। ध्यान रखने की जरूरत है कि हमारा बेटा-बेटी किनके साथ और कहां पर खेलता है। बच्चा घर में आकर जब खराब भाषा या शब्दावली और दूषित व्यवहार की प्रशंसा करे या इनका प्रयोग करे, तो सावधान हो जाने की जरूरत है। अपने नौनिहाल से पूरी बात सुनने और जानने की कोशिश करना चाहिए। उसे सही-गलत की पहचान कराना भी हमारी जिम्मेदारी है। उदाहरण के साथ समझाने का बच्चों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। हम अपने पड़ोसियों के साथ मिलकर बच्चों के लिए सौहार्दपूर्ण वातावरण तैयार करने में सहयोग करेंगे तो हमारा बच्चा बहुत से नकारात्मक प्रभावों से बच सकता है।
अभिभावकों को चाहिए कि वे कानून व्यवस्था और सामाजिक व्यवहार की शिक्षा भी बच्चों को जरूर प्रदान करें। दस-बारह साल के बच्चों की मुलाकात पुलिस और वकील से विद्यालय में जरूर करानी चाहिए, ताकि उन्हें अपने अधिकार और कर्तव्य के बारे में जानकारी मिल सके। जागरूकता के लिए यह भी हिदायत होनी चाहिए कि कुछ भी गलत किया तो कानूनी पचड़े में पड़ सकते हैं। जानकारी ही बचाव है।
बच्चे किसी भी देश का उज्ज्वल भविष्य माने जाते हैं। यह तभी संभव हो सकता है, जब उन्हें एक बढ़िया परवरिश प्राप्त हो। घर में माता-पिता और अन्य लोग, आस-पड़ोस का माहौल, स्कूल में शिक्षक और सहपाठी तथा देश की मित्रवत व्यवस्था इस दिशा में सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं। बच्चों को समय रहते सहेजने और समुचित मार्गदर्शन की बहुत आवश्यकता है। इसके लिए बच्चों के अभिभावक या माता-पिता को मनोवैज्ञानिकों और बाल विशेषज्ञों से निरंतर सलाह-मशविरा लेते रहना चाहिए। संवाद को जीवन का जरूरी हिस्सा बनाना चाहिए। कभी परिवार और रिश्तेदारों के बच्चों को एक साथ बिठाकर उनके विचार जानने चाहिए। समय आधारित परिसर की गतिविधियों के माध्यम से बच्चों में रचनात्मक और क्रियात्मक अभिरुचियों का विकास किया जा सकता है।
