परिवार के रिश्ते हों या फिर सामाजिक स्तर पर विकसित हुए संबंध, हरेक का अपना महत्त्व है। कहते हैं कि रिश्ते हवा की तरह होते हैं और हमेशा आसपास मौजूद होकर सामाजिकता के विस्तार के साथ-साथ जीवन को सांसें देते रहते हैं। इनका सहारा न हो तो व्यक्ति के सामने कई बार भटकाव के हालात बनने लगते हैं। परदेस में कोई परिचित या अपने आसपास के इलाके से परिचित या वहीं का कोई व्यक्ति मिल जाए, तो बांछें खिल जाती हैं। एकाकीपन के बीच अगर कोई दिल के करीब आकर अपना बन कर या इसका अहसास देकर सिर पर हाथ रख दे, तो दुख के पलों में भी रोम-रोम में नई ऊर्जा भर जाती है।
रिश्तों का जादू यही है। घर-परिवार और दोस्ती- इन सबके बीच ही जिंदगी का आनंद है। रिश्ते नहीं होंगे तो जीवन में अकेलापन महसूस होता है। हालांकि एकांत के नाम पर अकेलेपन को महिमामंडित करने की कोशिश देखी जाती रही है। मगर एकाकी जीवन में उपजा खालीपन कई बार व्यक्ति को खोखला कर जाता है।
‘परिवार’ के रूप में विरासत में मिली संस्था रिश्तों की पहली पाठशाला होती है। माता-पिता, भाई-बहन निस्वार्थ भाव से जीवन भर एक दूसरे का साथ देते हैं। एक दूसरे का सम्मान करना, सेवा करना, सीमित संसाधन होने पर मिल-बांट कर जीवन जीना, एक दूसरे को प्रेरित करना… यह सब हम परिवार से ही सीखते हैं। उदाहरण के तौर पर मां से ममता, त्याग, करुणा की सीख मिलती है, तो पिता अनुशासन और प्रबंधन के पाठ सिखाते हैं। बहन से सम्मान और अपनापन सीखते हैं, तो भाई से परवाह और जिम्मेदारी सीखते हैं।
विवाह के बाद पति-पत्नी का संबंध भी विश्वास के सहारे चलता है। अगर परवरिश के दौरान अच्छी सीख मिलती है, तो जीवन में विद्रोह जैसी नौबत नहीं आती। यों विद्रोह का भाव तब पैदा होता है, जब व्यक्तित्व और अधिकार का हनन हो, उसे दबाया जाए और भावनाओं का दमन हो। परिवार का ढांचा ऐसा होता है कि वह ऐसी स्थिति पैदा होने से रोकता है और किसी के भीतर इस तरह का भाव आने पर उसे संभालता है।
हम अकेलेपन को लेकर फिक्रमंद तो होते हैं, मगर उसके कारकों और उसके समाधान को लेकर शायद उतनी ही गहराई से नहीं ध्यान दे पाते। आभासी दुनिया में कोई हल तलाशने के बजाय अगर हम रिश्तों को अहमियत देंगे तो हमें अकेलापन महसूस नहीं होगा, रिश्ते चाहे परिवारिक हों या सामाजिक। अकेलापन इंसान को खोखला बना देता है। जिंदगी नीरस हो जाती है। अकेला इंसान कई तरह की व्याधियों का शिकार हो जाता है। इसमें अवसाद भी शामिल है और इसी अवसाद के दलदल में पहुंच कर कितने लोग मौत को गले लगा लेते हैं।
इन परिस्थितियों का सामना करने के लिए हमारे पास रिश्तों की विरासत है। इसे सींचकर ऐसी परिस्थितियों से बचा जा सकता है। बच्चों में स्नेह और धैर्य के बीज अंकुरित करने की जरूरत है। माता-पिता, भाई-बहन, घर के बुजुर्गों, परिजनों और दूर के रिश्तेदारों का सम्मान करने और बच्चों को सिखाना चाहिए। रिश्ते चाहे प्राकृतिक हों या सामाजिक, इसको चलाने में प्रेम, सराहना, समय, सामंजस्य, सहयोग की दरकार होती है।
नफे-नुकसान का आकलन करके रिश्ते बनाना या उस हिसाब से उन्हें निभाना अकेलेपन की ओर ले जाता है। सामाजिक रिश्ते भी बहुत कुछ सिखाते हैं। आस-पड़ोस और दफ्तर की दोस्ती से अक्सर कई परंपराएं, कलाएं, और हुनर का आदान -प्रादान होता है, तो कई परेशानियां जिन्हें हम किसी और के सामने जिक्र नहीं कर पाते, उन्हें दोस्तों से साझा कर लेते हैं। दोस्तों से कटकर व्यक्ति गलत कदम उठाने के बारे में सोचने लगता है। वहीं अगर वह किसी के करीब है, तो जीवन में ऐसी मौत नहीं आती।
यह भी गौरतलब है कि रिश्तों में ईमानदार और उनकी कद्र करने वाले व्यक्ति के जीवन में स्पष्टता होती है। रिश्ता कोई भी हो, लेकिन अगर निबाह सही है, तो जीवन में उलझनें भी बहुत कम होंगी। सब कुछ व्यवस्थित और आसानी से चलता रहेगा। मुश्किल घड़ी में भी किसी बाहरी परामर्शदाता या सलाहकार की जरूरत ही नहीं होगी। परिजन ही सलाहकार की भूमिका में हमेशा मार्गदर्शन करते हैं। परिवारिक रिश्ते के साथ-साथ सामाजिक रिश्तों को निभाना भी जरूरी होता है। अपने दोस्तों और पड़ोसियों कभी रिश्ते खराब नहीं करने चाहिए। जरूरत पड़ने पर सबसे पहले यही काम आते हैं।
दूर के रिश्तों का भी अपना महत्त्व है। इन सबकी कीमत जरूरत पड़ने पर पता चल ही जाती है। मगर रिश्तेदारियों के बीच यह अक्सर देखा जाता है कि नातेदारों में ज्यादातर लोग कई बार दुश्मनी की हद तक जाकर प्रतिद्वंद्विता निभाने लगते हैं। ऐसे में अगर कोई व्यक्ति अकेला पड़ता है और उसे अपने रिश्तेदारों के बजाय आस-पड़ोस के समाज के अन्य लोगों का साथ मिलता है, तो इससे एक नए समाज और रिश्ते की बुनियाद पड़ती है। सहयोग का यह रिश्ता पारिवारिक रिश्तेदारियों से अलग और कई बार बेहद खूबसूरत होता है, जहां अलग-अलग पृष्ठभूमि के लोग एक दूसरे के साथ खड़े होते हैं।